कमलेश जोशी
उत्तराखंड राज्य को बने 21 साल बीत गए लेकिन “कोदा झंगोरा खाएँगे. उत्तराखंड बनाएँगे” की हूँकों के बीच बना यह राज्य आज उस मुहाने पर खड़ा है जहाँ कोदे, झंगोरे की खेती होना तक लगभग बंद हो गया है. अपनी पर्वतीय भौगोलिक पृष्ठभूमि के चलते विकास से वंचित होने और उत्तर प्रदेश का हिस्सा रहते उपेक्षाओं का शिकार होने के कारण वर्षों चले आंदोलन व सैकड़ों शहादतों के बाद उत्तराखंड अस्तित्व में आया तो लगा कि उत्तराखंडवासियों के सपनों का राज्य अब हकीकत बनेगा लेकिन हुआ ठीक इसके विपरीत. एक तरफ जहाँ राजनीतिक अस्थिरता देखने को मिली वहीं दूसरी तरफ पहाड़ी जिलों के प्रति देहरादून स्थित सचिवालय का रुख हमेशा उदासीन ही रहा.
राज्य के मुख्यमंत्रियों में नारायण दत्त तिवारी को छोड़ कोई भी अपने पाँच साल का कार्यकाल पूरा न कर सका. राज्य को दो बार राष्ट्रपति शासन झेलना पड़ा और वर्तमान सरकार का हाल तो यह रहा कि 3 मुख्यमंत्री एक के बाद एक बदलने पड़े. लगातार बदलते नेतृत्व के कारण सरकार का ध्यान आम जनमानस से जुड़े मुद्दों के इतर इन्हीं बातों पर लगा रहा कि कैसे जोड़-तोड़ कर सरकार बनाई जाए और शीर्ष नेतृत्व पर किसे काबिज किया जाए. राज्य में बढ़ती बेरोजगारी, पहाड़ों में लचर स्वास्थ्य सुविधाएँ, लगातार बंद होते सरकारी स्कूल, बढ़ता खनन व माफिया राज, जंगलों की बेतरतीब कटाई, स्थाई राजधानी, पर्यावरण का विनाश, लगातार आने वाली आपदाओं, राज्य पर लगातार बढ़ते कर्ज पर शायद ही किसी सरकार ने ध्यान केंद्रित किया हो.
सीएमआईई के आँकड़ों पर नजर डालें तो दिसंबर 2021 में राज्य में बेरोजगारी की दर 5 प्रतिशत रही है. जो कोरोना महामारी के बाद से लगातार ऊपर नीचे हो रही है. पहाड़ों में खस्ताहाल स्वास्थ्य व शिक्षा की सुविधाओं के कारण लोग मैदानी जिलों या फिर दिल्ली जैसे शहरों की ओर पलायन करने को मजबूर हैं. टाइम्स ऑफ इंडिया की एक खबर के अनुसार उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों के 1700 से अधिक गाँव पूरी तरह खाली हो चुके हैं जिन्हें “घोस्ट विलेज” की संज्ञा दी गई है. इन घोस्ट विलेज की सबसे अधिक संख्या अल्मोड़ा व पौड़ी जिले में हैं. कोरोना महामारी व देशव्यापी लॉकडाउन के कारण खाली हो चुके इन गाँवों में कुछ समय के लिए रौनक जरूर लौटी थी लेकिन रोजगार, स्वास्थ्य व शिक्षा सुविधाओं की कमी ने एक बार पुनः लोगों को पलायित होने के लिए मजबूर कर दिया.
राज्य में रोजगार की उम्मीद जिन सिडकुलों से नजर आती थी उनमें भी अधिकतर कंपनियों में ताले लग चुके हैं. सितारगंज, रूद्रपुर व हरिद्वार में स्थित सिडकुल में अधिकतर पहाड़ से पलायित युवा ही रोजगार के लिए अपनी किस्मत आजमाते नजर आते हैं लेकिन बिना किसी रेफरेंस या पहचान के वहाँ भी नौकरी मिल पाना टेढ़ी खीर ही है. सिडकुल की तर्ज पर ही कुछ उद्योग अगर दूरस्थ पहाड़ी जिलों में लगाए गए होते तो पहाड़ के युवाओं को रोजगार भी मिलता और पहाड़ आबाद भी होते. ठीक इसी तरह पहाड़ों में स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर सरकारें गंभीर नजर नहीं आती. श्रीनगर गढ़वाल में बना बेस हॉस्पिटल रेफर सेंटर से अधिक कुछ नहीं है जहाँ डॉक्टरों की कमी तो है ही साथ ही इलाज के लिए पर्याप्त आधुनिक मशीनें तक नहीं हैं. सड़कों व अस्पतालों के अभाव के चलते प्रसव पीड़ित महिलाओं के दम तोड़ने व सड़क पर ही बच्चों को जन्म देने की तमाम खबरें हम आए दिन सुनते ही रहते हैं.
हाल ही में जब एम्स के सैटेलाइट सेंटर खोलने की बात आई तो सरकार ने पहाड़ी जिलों को पूरी तरह उपेक्षित करते हुए मैदानी जिले ऊधम सिंह नगर को चुना. यह सैटेलाइट सेंटर सुदूर चमोली, उत्तरकाशी या पिथौरागढ़ जिले में खोलने की योजना बनाई जाती तो शायद पहाड़ में रह रहे लोगों की स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर शिकायत कुछ हद तक दूर हो पाती. लेकिन एक बार फिर परिसीमन के तहत लगातार बढ़ रही मैदानी सीटों और वोट बैंक को ध्यान में रखते हुए सरकार ने पहाड़ों की तरफ देखना भी मुनासिब नहीं समझा. वहीं दूसरी तरफ स्कूलों की बात करें तो पहाड़ों में सरकारी स्कूलों की बदहाली और उनका बंद होना किसी से छुपा नहीं है. उत्तराखंड में लगभग 2700 से अधिक प्राइमरी तथा अपर प्राइमरी स्कूल बंद करने की घोषणा सरकार 2018 में ही कर चुकी थी. उसके बाद से कोरोना महामारी के कारण उपजी परिस्थितियों से आप समझ सकते हैं कि कितने और सरकारी स्कूल बंद होने की कगार पर खड़े होंगे.
बाँधों व ऑल वैदर रोड जैसे प्रोजेक्ट से पर्यावरण को हो रहे नुकसान पर भी सरकार का कोई खास ध्यान नहीं हैं. पिछले कुछ वर्षों में ही हम केदारनाथ आपदा से लेकर रैणी, नैनीताल व चंपावत के चल्थी में आई प्राकृतिक आपदा से हुए भयावह नुकसान के गवाह बन चुके हैं. ये आपदाएँ जरूर प्राकृतिक थी लेकिन इनके कारण हुआ विनाश कहीं न कहीं मानवजनित था. बावजूद इसके सरकार रैणी में पावर प्रोजेक्ट को पुनः चालू करने के लिए आतुर रही है. ऑल वैदर रोड के नाम पर जिस तरह पहाड़ों और पेड़ों की बेतरतीब कटाई की गई है वह चिंता का विषय है. चोपड़ा कमेटी की सिफारिशों के बावजूद सड़क की चौड़ाई को 12 मीटर रखा गया और केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दलील दी की सामरिक सुरक्षा के लिहाज से सड़कों का चौड़ा होना जरूरी है. बशर्ते सड़क चौड़ी की जाती लेकिन उसका पर्यावरण पर प्रभाव (Environment Impact Assessment) व समाज पर प्रभाव (Social Impact Assessment) का आंकलन किया जाता और उसके बाद एनजीटी की देखरेख में पूरा काम होता तो ऑल वैदर रोड इतनी खस्ताहालत न होती जैसी वर्तमान में है. ऑल वैदर रोड के चलते सैकड़ों लोग अपनी जान गँवा चुके हैं. ऋषिकेश से केदारनाथ व बद्रीनाथ तथा टनकपुर से पिथौरागढ़ के बीच कई नए एक्टिव लैंडस्लाइड जोन बन चुके हैं जिनके लगातार दरकने का खतरा बना रहता है.
उत्तराखंड एक बार फिर विधानसभा चुनाव के समर में उतर चुका है लेकिन चुनाव में जनता से जुड़े उपरोक्त मुद्दे हावी नजर नहीं आते. बेरोजगारी पर जरूर कुछ बातें हो रही हैं लेकिन इसके अलावा दल बदलू नेताओं और टिकट वितरण का ही हो हल्ला सुनाई पड़ रहा है. पहाड़ों के विकास को लेकर कोई ठोस रोडमैप किसी भी पार्टी के पास नहीं है. सब हवा हवाई बातें हैं. आम आदमी पार्टी 8 लाख लोगों को 5000 रूपये के हिसाब से हर महीना बेरोजगारी भत्ता देने की बात कह रही है लेकिन उत्तराखंड जैसे कर्ज में डूबे राज्य के लिए 400 करोड़ प्रति माह का बेरोजगारी भत्ता दे पाना असंभव लगता है. बिजली, पानी, शिक्षा, मोहल्ला क्लिनिक जैसे मुद्दों को आप ने उठाने की कोशिश जरूर की है लेकिन ये तमाम बातें हर चुनाव के बाद पार्टियों के मैनिफ़ेस्टो में धूल फाँकती नजर आती है. उत्तराखंड की विशेष परिस्थितियों को समझते हुए राजनीतिक पार्टियों को पहाड़ोन्मुख विकास की अपनी योजनाओं के साथ जनता के बीच जाना चाहिये. साथ ही जनता को भी दलगत राजनीति से ऊपर उठकर अपना वोट सिर्फ स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़क, सुरक्षा, पर्यावरण, रोजगार, बिजली, पानी, पलायन, स्थाई राजधानी जैसे मुद्दों पर ही देना चाहिये तब जाकर कहीं उस उत्तराखंड का सपना साकार होगा जिसके लिए हमारे शहीदों ने खटीमा और मसूरी में गोलियाँ खाई थीं.