राजीव लोचन साह
पर्यटन और तीर्थाटन उत्तराखंड के लिये विनाशकारी हो गये हैं। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इस तथ्य को न तो प्रदेश सरकार समझ रही है और न ही पर्यटन से किंचित भी लाभ लेने वाला बेहद सामान्य व्यक्ति। जो लोग पर्यटन से दूर-दूर से भी नहीं जुड़े हैं, और ऐसे लोग प्रदेश की आबादी के अस्सी प्रतिशत से अधिक ही होंगे, अवश्य पर्यटन के रौद्र रूप से आतंकित हैं और इसे अपनी झुँझलाहट में ही व्यक्त कर पाते हैं। असंगठित होने के कारण वे अपनी आवाज प्रभावी ढंग से नहीं उठा पाते। पर्यावरण विज्ञानी या उत्तराखंड के हितैषी यदि पर्यटन के खतरों की ओर संकेत करते भी हैं तो उन्हें विकास विरोधी घोषित कर चुप कराने की कोशिश की जाती है। देहरादून के एक पत्रकार, ‘दैनिक भाष्कर’ के संवाददाता मनमीत ने हाल में चारधाम यात्रा की अव्यवस्थाओं पर समाचार प्रकाशित किया तो उन पर पुलिस द्वारा मुकदमा दर्ज कर लिया गया। सरकार स्वयं बदरीनाथ-केदारनाथ में भीड़ बढ़ने पर अपने गाल बजा रही है। उसने वर्ष 2013 की भयानक आपदा से कुछ भी नहीं सीखा है। यह बेहिसाब भीड़ और हेलीकॉप्टरों की उड़ानें नाजुक हिमालय का क्या हस्र करेंगी, इस ओर ओर सोचने की उसे फुर्सत ही नहीं है। स्थापित तीर्थों से अलग, अब नये इलाकों की ओर भी सरकार की कुदृष्टि पहुँचने लगी है। आदि कैलाश, जिसका नाम भी कुछ दशक पूर्व लोग नहीं जानते थे, कुछ मुठ्ठीभर घुमक्कड़ ही वहाँ जाया करते थे, अब सायास एक नया तीर्थ बनाया जा रहा है। यह प्रयास सुनियोजित रूप से, स्थानीय जनता के हितों की रक्षा करते हुए पर्यावरणसम्मत ढंग से किया जाता तो शायद स्वागतयोग्य होता। मगर यह सरकार को कब्जे में रखने वाली बड़ी कम्पनियों के माध्यम से किया जा रहा है। वहाँ हेलीकॉप्टर से यात्री ले जाये जा रहे हैं और पाँच सौ शैयाओं का एक होटल बनाया जा रहा है। छिटपुट ट्रैकिंग से पूरे रास्ते भर स्थानीय लोगों को जो हल्का-फुल्का रोजगार मिलता था, वह भी उनसे छिन गया है। ऐसे पर्यटन की उत्तराखंड को क्या जरूरत ?