व्योमेश जुगरान
फाल्गुन के इस मदमाते मौसम पर चुनावी तैयारी के रंग कुछ ऐसे बिखरे कि होल्यारों ने मुख्यमंत्री टीएसआर का चेहरा बदरंग कर डाला। चुनावों से ठीक पहले लत्ते फाड़ने वाली होली सूबे की सियासत का स्थायी ‘खैला’ बन चुकी है। बेशक यह टीएसआर और उनकी कोटड़ी के लिए किसी जलजले से कम न हो, मगर पहाड़ की नेतृत्वहीन और अभागी जनता के लिए नई बात बात है। वह इस राज्य की स्थापना के बीस सालों में दसवीं बार मुख्यमंत्री बदलता देख रही है।
बीजेपी के प्रथम सीएम (कामचलाउू) नित्यानंद स्वामी को फरवरी 2002 में चुनावों से ऐन पहले भगत सिंह कोश्यारी ने रिप्लेस किया। कोश्यारी फेल रहे और रंग जमाया, कांग्रेस के एनडी तिवारी ने। 2007 के चुनावों में भाजपा के कद्दावर नेता जनरल खंडूड़ी ने ‘कांटों का ताज’ पहना और करीब ढाई साल बाद ही पार्टी आलाकमान ने उन्हें विदाई का फरमान पकड़ा दिया।
जुलाई 2009 में बेहद नाटकीय अंदाज में महत्वाकांक्षी रमेश पोखरियाल निशंक गद्दीनशीं हुए मगर भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरा होने के कारण उन्हें 2012 की चुनावी नैया पार लगाने लायक नहीं समझा गया और इसके लिए जनरल खंडूड़ी को दोबारा लाना पड़ा। खंडूड़ी पार्टी को जीत के मुहाने तक तो ले गए, मगर खुद अपना चुनाव गंवा बैठे। ताक में बैठी कांग्रेस ने जोड़तोड़ कर विजय बहुगुणा के नेतृत्व में सरकार बना ली। मगर बहुगुणा को भी अधबीच में चलता कर दिया गया और हरीश रावत का बरसों पुराना सपना पूरा हुआ। रावत के नेतृत्व में कांग्रेस 2017 का चुनाव बुरी तरह हार गई और लॉटरी लगी, भाजपा के त्रिवेन्द्र सिंह रावत की।
ताजा घटनाचक्र में चुनाव से पहले टीएसआर का इस्तीफा सीधे-सीधे उन माननीयों का ‘खैला’ है जो चुनावी नैया को डूबते देख ‘नई पतवार’ के सहारे पार लगना चाहते हैं। उन्हें पता है कि इस बार ‘मोदी मैजिक’ उनके काम नहीं आने वाला। कानोंकान तो यह है कि इस ‘खैला’ में कम से कम 30 विधायक शामिल थे जो दिल्ली को ‘डराने’ बनाने के लिए काफी थे। इधर चमोली, रुद्रप्रयाग, अल्मोड़ा और बागेश्वर को मिलाकर गैरसैंण कमिश्नरी बनाने के इकतरफा निर्णय से कुमांउू लॉबी की त्यौरिंयां पहले से चढ़ी हुई थीं, तिस पर महिला लाठीचार्ज जैसे विषयों के बहाने टीएसआर पर लक्ष्य साधना आसान हो गया। टीएसआर का चुपचाप समर्पण उत्तराखंड में नेतृत्वहीनता का एक और प्रहसन है। इस पर हंसे या रुआंसा हों…।