नवीन जोशी
बहुत प्यारे इनसान, लेखक, आंदोलनकारी और नवोन्मेषी दोस्त त्रेपन सिंह चौहान की मृत्यु की खबर सुनने के बाद लगातार उसके बारे में सोचता रहा हूं. मात्र 48 साल की उम्र में वह चला गया. पिछले करीब दस-बारह साल से वह मौत को छकाता आया. पहले कैंसर से लड़ा और जीता. फिर उस पर लाइलाज मोटर न्यूरॉन रोग ने हमला कर दिया, वही बीमारी जो विज्ञानी स्टीफन हॉकिंग को थी. वह उससे भी खूब लड़ा. जब तक जूझ सकता था, जूझता रहा. वह कभी नहीं डरा, न इस जालिम व्यव्स्था से, न जानलेवा बीमारियों से.
वह जीवन को सार्थक कर हंसते-लड़ते चला गया. एक हम हैं जो सम्भावित रोग की आशंका से मरे-मरे जी रहे हैं. उन अधिसंख्य लोगों की तरह, जिनके सिर पर छत है और खाने को रोटी, मुझे आजकल कोरोना का डर सताता रहता है. कभी छींक आ गई तो लगता है कि बस, हो गया. दिन में दस बार लगता है कि अब हुआ, अब तो हो ही गया. एक छींक आती है तो तन-मन कांप जाता है. खांसी आई नहीं कि आत्मा हिल जाती है. कलाई पकड़-पकड़ कर देखता हूं, शरीर का ताप तो नहीं बढ़ रहा! हंफनी तो नहीं हो रही!
छींक पहले भी खूब आती होगी. खांसी पर कौन ध्यान देता था जब तक कि वह रात की नींद ही हराम न कर दे! गला खंखार के थूक लेते थे और चिन्ता नहीं करते थे कि कफ निकला कि सूखी खांसी है. हलका-फुलका बुखार भी कोई बुखार होता था! नाक बहती रहती और रुमाल से पोछ-पोछ कर उसे लाल बना लेते थे. जुकाम कहते हैं जिसे, उस फ्लू को कौन भाव देता था! डॉक्टर भी कहते थे, जुकाम है. इलाज करोगे तो सात दिन में ठीक हो जाएगा. बिना दवा के एक हफ्ता लगेगा! आजकल खांसी-बुखार के लक्षण दिखते ही अछूत करार दिए जाते हैं. डॉक्टरों ने गेट पर बोर्ड लगा रखे हैं- ‘यहां खांसी-जुकाम वाले मरीज नहीं देखे जाते!’ गार्ड बैठा रखे हैं कि कोई खांसी-जुकाम वाला मरीज भीतर न आ जाए.
जब कोरोना नहीं था, तो छोटी-सी शारीरिक व्याधि में भयानक रोग हो जाने की आशंका से डरते रहे. पेट का रोग कुछ असाध्य किस्म का है तो हर समय उसी का रोना. तमाम सावधानियों के बावजूद रोग तंग करता रहता है लेकिन दवाओं ने अब तक सम्भाल ही रखा है. तो भी बीमारी सिर चढ़ा रखी है.
त्रेपन हर साल मुझे ‘घसियारी प्रतियोगिता’ में शामिल होने के लिए आमंत्रित करता था. कहता था- ‘दाज्यू, अबकी बार आ ही जाइए. आपको कोई दिक्कत नहीं होगी.’ मैं हर बार अपने रोग का हवाला दे देता- ‘इम्युनिटी बहुत कम है, त्रेपन. सफर में इंफेक्शन का डर रहता है. खाने में भी बहुत परहेज है. आने का बहुत मन है लेकिन मजबूर हूं,’ वह कहता- ‘अपना ख्याल रखिए. अगले साल आइएगा.’ अपनी जानलेवा बीमारी के बावजूद जब तक शरीर ने साथ दिया वह गांव-गांव दौड़ता रहा. वह कभी नहीं डरा. उसकी व्याधि क्या कम सावधानियां मांगती थी? उसके परहेज क्या कम थे? उसने कभी नहीं कहा कि इस बार घसियारी प्रतियोगिता नहीं होगी या मैं शामिल नहीं हो पाऊंगा.
त्रेपन टिहरी की उस बाल गंगा घाटी के एक गांव में जन्मा था जो आंदोलनों की उर्वरा भूमि है. बाल्यावस्था से ही वह आंदोलनकारी बना और लेखक भी. चिपको से लेकर उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन और उसके बाद के कई जन-संघर्षों में वह शामिल रहा. उसने बड़े बांधों के विरुद्ध संघर्ष किया और बाल गंगा घाटी में ग्रामीणों की कम्पनी बनाकर एक मेगावाट का बिजलीघर बनाने का सपना देखा. उसने ग्रामीणों के सशक्तीकरण के लिए चेतना आंदोलन चलाया. उसके नवोन्मेषी जन-अभियान ‘घसियारी प्रतियोगिता’ को बहुत सराहा गया जिसमें उत्तराखण्ड की ग्रामीण महिलाओं के लिए हर साल घास काटने की प्रतियोगिता होती थी. इन महिलाओं को बड़े पर्यावरणवादियों के मुकाबले वह ‘रीयल इकोलॉजिस्ट’ कहता था.
इसी दौरान उसने उपन्यास लिखे, कहानियां लिखीं, डूबती टिहरी पर किताब और कई लेख लिखे. ‘यमुना’ और ‘हे ब्वारी’ उपन्यास राज्य बनने से पहले और बाद के उत्तराखण्ड के जीवंत दस्तावेज हैं. पिछले कुछ बरस से वह बिस्तर तक सीमित हो गया. जब उसके हाथों ने काम करना बंद कर दिया तो वह कम्प्यूटर पर बोल कर लिखने लगा. फिर उसकी जुबान ने साथ छोड़ दिया तो उसने एक अमेरिकी मित्र की सहायता से ऐसा सॉफ्टवेयर प्राप्त किया जो आंख की पुतलियों के इशारे से लिख सकता है. अपने अंतिम दिनों तक वह कम्प्यूटर के पर्दे पर पलकें झपका कर ‘यमुना’ का तीसरा भाग लिख रहा था.
हमने उसकी बीमारी के बारे में सुन रखा था लेकिन उस सॉफ्टवेयर के बारे में सुना तक नहीं था जिसके सहारे वह लिखने में जुटा था. पुतलियों के इशारे से लिखे उपन्यास-अंश ‘नैनीताल समाचार’ में प्रकाशित हुए तो उन्हें पढ़ते हुए उसकी प्रतिभा के अलावा उसकी अदम्य जीजीविषा से मन भर गया. आंदोलनकारी के रूप में उसके पास जनता के लिए सपने थे और लेखक के रूप में सघन जीवनानुभव. वह दोनों का निरंतर उपयोग करता रहा.
और, हम कांप रहे हैं कि आज आठ सौ मरीज मिले लखनऊ में. कल साढ़े सात सौ थे. रोज संख्या बढ़ रही है. अस्पतालों में जगह नहीं. सभी कोविड बेड फुल. वेण्टीलेटर फुल. डॉक्टर-नर्स कम पड़ रहे. बेचारे, खुद उनको हुआ जा रहा कोरोना. कितने डॉक्टर जान गंवा बैठे हैं. मंत्री को हो गया, एम पी को हो गया. हमारा क्या भरोसा.’ होम्योपैथिक गोलियां खा लीं. आर्युर्वेदिक रोज गले से नीचे उतारा जा रहा. ऐलोपैथी बेडसाइड टेबल पर प्रतीक्षा में है. ऑक्सीमीटर कबके खरीद लिया था. जितनी दवाइयों पर प्रयोग हो रहे हैं, सब के नाम याद कर लिए हैं. यूनानी-तिब्बती भी आजमा रहे हैं.
ऐसे में त्रेपन की याद सवाल पूछती है- ऐसे जीना भी कोई जीना है? क्या वह अलग ही मिट्टी के बने होते हैं जो डरते नहीं, हर हालात में लड़ते हैं और सामने खड़ी मृत्यु के मुंह पर ठहाका लगाते रहते हैं? सलाम त्रेपन. मुझे घसियारी प्रतियोगिता में हर साल आना चाहिए था.
जीने का अर्थ तुम बता रहे थे, मैं ही नहीं सुन पाया.