दिनेश उपाध्याय
किताब के जिल्द का पार्श्व काला है जिस पर लाल अक्षरों से किताब का नाम लिखा है ‘मुखजात्रा‘। लम्बे समय बाद एक ऐसी किताब पढ़ने को मिली जिसे पढ़ना शुरू किया तो पढ़ता चला गया।
यह पुस्तक नागेन्द्र सकलानी और मोलू भरदारी की शहादत और इसके उपरान्त उनकी शव यात्रा के प्रकरण पर आधारित है। पाठकों से अनुरोध रहेगा कि पुस्तक की जिल्द के पृष्ठ भाग से पढ़ना प्रारम्भ करेंं, जिसमें लिखा है, ‘‘उनके कन्धों पर दो अर्थियां थीं। मृतकों के शरीर पर कफन नहीं डाला गया था बल्कि उनकी कमीजें खोल दी गईं थीं ताकि जनता अपने शहीदों के सीने पर लगी गोलियों के घाव देख सके….’’
यह पुस्तक रंगमंच और सिनेमा से जुड़ी अभिनेत्री, निर्देशक और सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता स्नेहलता रेड्डी को समर्पित है, जो आपातकाल के दौरान बंगलौर जेल में कैद रहीं। पैरोल में छूटने के कुछ ही दिनों उपरान्त उनकी मृत्यु हो गई थी। जेल में दी गईं अमानवीय यातनाएं इसका कारण रहीं।
पुस्तक की भूमिका लिखते हुए शेखर पाठक लिखते हैं, ‘‘व्यवस्था द्वारा कराई गई हत्याएं शहादत में तब्दील हो जाती हैं। यह इतिहास की सच्चाई है।’’
लेखक सुनील कैंथोला ने अपने कथन को दो भागों में बाँटा है ‘जो मैं समझा’ और ‘जैसा मैने देखा’। इन दोनों कथनों ने ‘मुखजात्रा‘ नाटक को जबरदस्त मजबूती दी है। ये कथन नाटक की पृष्ठभूमि न होकर नाटक की आवश्यकता हो गये हैं। ‘जो मैं समझा’ के प्रारम्भ में कैंथोला जी लिखते हैं कि, ‘‘वे लोग तीन दिनों तक दो अर्थियों के लेकर चलते रहे। इन तीन दिनों में यात्रा में शामिल होने वालों की संख्या बढ़ती चली गयी।….. इस शवयात्रा के राजधानी पहुंचने पर जो हुआ, वह इतिहास में ‘टिहरी जन क्रांति’ के नाम से दर्ज है।
‘‘यह कथा जो इस नाटक के माध्यम से मैं लगाने का प्रयास कर रहा हूं वह उसी शवयात्रा के बारे में है जिसने टिहरी रियासत के ताबूत में अंतिम कील ठोकने का कार्य किया।’’
कैंथोला का इस महान ऐतिहासिक घटना से क्या जुड़ाव है ? इनके पुरखों को राजा के किन अत्याचारों के कारण अपना पुश्तैनी गांव ‘कैंथोली’ छोड़ना पड़ा ? खास पट्टी और ‘ढंढक’ क्या है ? यह सब जानना बहुत रोचक है। लेखक ने नाटक लिखने के लिये विभिन्न शोधकर्ताओं के शोध का अध्ययन तो किया ही, विभिन्न लोगों से हुई मुलाकातों ने भी इस पुस्तक को प्रामाणिकता प्रदान की है। 14 जनवरी 1948 के दिन नागेन्द्र सकलानी की शवयात्रा की चश्मदीद गवाह 103 वर्षीय प्रेमवती पैन्यूली के स्मृति पटल पर वह जन सैलाब आज भी जस की तस मौजूद है। यह सब लिखने के दौरान लेखक 1994 के राज्य आन्दोलन में हुए अन्याय और अपमान को भी नहीं भूले हैं।
‘जैसा मैने देखा’ में फलते-फूलते पूरब को पश्चिम द्वारा बरबाद कर दिये जाने का इतिहास है। तमाम तरह की ईस्ट इंडिया कम्पनियों, महारानी एलिजाबेथ प्रथम, राजे-रजवाड़े, सामन्त-रियासतें, कर, बंगाल का अकाल यानी शासकों द्वारा जनता पर जुल्म की दास्तान के हर जिक्र को लिखने की कोशिश इस भाग में की गई है, ताकि नाटक को सम्पूर्ण एतिहासिक पृष्ठभूमि में समझा जा सके। अन्याय और लूट-खसोट के कई उदाहरण, कैंथोला जी ने इस भाग में दिये हैं, जैसे- विलियम मूरक्राफ्ट अपनी डायरी में लिखता है कि ‘‘जनता से टैक्स वसूली के दौरान यदि गोरखा सिपाहियों को लोगों के घरों में कोई कीमती वस्तु या मवेशी नहीं मिलते तो वे टैक्स देने में अक्षम परिवारों के बच्चों और महिलाओं को पकड़ कर ले जाते और उन्हें गुलाम बना कर बेच देते।’’
पुस्तक का अगला भाग ‘मुखजात्रा’ नाटक है। यह नाटक ‘बोलांदा बद्री विशाल’ यानी बोलने वाले बद्री विशाल यानी राजा टिहरी रियासत की रियासत को हमेशा के लिये भारत में मिला देने और राजतंत्र का मुंह हमेशा के लिये बन्द कर देने के अनोखे और अहिंसक जन विद्रोह पर आधारित है।
नाटक के पात्र महात्मा गांधी जी भी हैं और नागेन्द्र सकलानी भी। नाटक में पूरे विद्रोह का नेतृत्व नागेन्द्र सकलानी करते हैं जो कम्युनिस्ट हैं पर नागेन्द्र सकलानी को गोली लगने के बाद भी पूरा विद्रोह अहिंसक रहता है। गोली मारने वालों को एक कोठरी में बन्द कर दिया जाता है ताकि गुस्साये लोग उन्हें जान से न मार दें।
खुद नागेन्द्र का डायलॉग है, ‘‘हम हिंसा नहीें चाहते, हम इंकलाब चाहते हैं। आजादी की रोशनी रियासत टिहरी के हर गांव, घर खलिहान में पहुंचाना चाहते हैं।’’
स्थानीय भाषा के गीत इस नाटक को और भी ताकतवर बनाते हैं : ‘‘‘इंकलाब जिंदाबाद गीत अब लगौंला हम/जुल्म पीड़ा अन्यों की सांग अब उठोंला हम/डांड भरि बेगार करि /हाड तक लछे गैन/ पुलिस पटवारी डारान बाच तक लछे गैन /इंकलाब जिंदाबाद गीत अब लगौंला हम/इना बुलान्दा बदरिकी डैर अब मिटौला हम/आंख बुज्या वूका अर/कन्दणू भी फुट्या छन/पीठ करी हम जनै /सुनींदा जो पड़यो छन/मुट्ठ बोटिक दगड़ी सब हाथ अब उठौंला हम/इंकलाब जिंदाबाद गीत अब लगौंला हम।’’
इंकलाब जिन्दाबाद का गीत अब गाएंगे हम/जुल्म पीड़ा अन्याय की अर्थी अब उठाएंगे हम/दंड भरा बेगार करा हड्डियां तक निचुड़ गई/पुलिस पटवारी की डर से आवाज तक बन्द हो गई/ इंकलाब जिंदाबाद का गीत अब गाएंगे हम/इस बोलने वाले बद्री के डर को मिटाएंगे हम/उसकी आंखें बन्द हैं और कान भी फूटे हैं/हमारी और पीठ करके जो मीठी नींद सो रहे हैं/मुट्ठी बांधे एक साथ हाथ अब उठाएंगे हम/इंकलाब जिन्दाबाद का गीत अब गाएंगे हम।
प्रतिरोध के गौरवपूर्ण इतिहास की अभिव्यक्ति है यह नाटक। इस नाटक का मंचन अवश्य होना चाहिये।
पुस्तक के अंत में नागेन्द्र सकलानी जी के पढ़ने योग्य अविस्मरणीय पत्र हैं। इस पुस्तक में अन्याय के खिलाफ एक चैतन्य गुस्सा शुरू से अंत तक बह रहा है। इस किताब को इसलिये अवश्य पढ़ें कि आप अन्याय के खिलाफ जन प्रतिरोध के इतिहास को जान सकें। प्रतिरोध के इतिहास को अवश्य समझें ताकि आप अन्याय के खिलाफ अपनी उपस्थिति दर्ज कर सकें।
पुस्तक : मुखजात्रा / मुद्रक : उत्तरांचल प्रेस, 32 चकराता रोड, देहरादून / प्रकाशक : हिमालय लोक साहित्य एवं संस्कृति विकास ट्रस्ट रक्षापुरम, देहरादून / मूल्य : 210 रुपये /
‘मुखजात्रा’ अमेजन पर भी उपलब्ध है।