राज शेखर पंत
राज्य के एक वरिष्ठ माननीय के हालिया उवाच के अनुसार सरकार द्वारा अब बड़े बड़े ठेकों को हिस्सों में बांट कर पार्टी कार्यकर्ताओं को दिया जाएगा। इस जानकारी ने कार्यकर्ता नामधारी इस परम प्रतापी प्रजाति के लिए मेरी अंध श्रद्धा (पुरानी पोस्ट -राजनैतिक कार्यकरता, एक दुर्लभ प्रजाति, Nov 2020) में तो खासा इज़ाफा किया ही है, साथ ही साथ उन माननीय की क्रांतिकारी, चमत्कारी सोच से भी मैं निश्चित ही अभिभूत हूं। सच कहते हैं अनुभवी लोग -राजनीति की दुरूह पगडंडियों पर, दुनियां-जहान की चिंताओं की गठरी पीठ पर लादे, कभी इधर तो कभी उधर कूदते हुए (सेवा के?) शिखर तक पहुंच जाना हर किसी के बूते की बात नहीं होती है।
अब तो मुझे वाकई गर्व होने लगा है यह बताते हुए कि मैं स्वयं, देव भूमि कहे जाने वाले इस स्वर्ग जैसे राज्य का वासी हूं। मुझे फख्र होता है ये बताते हुए कि इस छोटे से राज्य के महान माननीय आम जनता को खुश रखने के लिए -ताकि वे दुख-तकलीफ के पचड़ों में पड़ इस जन्म को व्यर्थ न कर डालें- विदूषक से लेकर गंगलोढ़-गोबर छाप चिकित्सक तक का किरदार निभाने की कुव्वत रखते हैं। यहां एक प्राण-घातक वायरस को भी जीवात्मा समझते हुए, उसकी जिजीविषा का भरपूर सम्मान किया जाता है। जीवों पर दया करने की हमारी प्राचीन परंपरा और बापू के अहिंसावाद का ऐसा इलास्टिकीकरण जो इसे खींच कर अनंत तक ले सके, सिर्फ मेरे ही महान राज्य में संभव है। अस्पताल, ऑक्सीजन, एम्बुलेंस जैसी, नियति के विरुद्ध जाकर जीवन को बढ़ाने-बचाने वाली; विधि के विधान में हतक्षेप करने वाली वस्तुओं को दरकिनार कर, ये महामहिम हमें शुभ्र हिमालय के प्रातःदर्शन कर योग करने की प्रेरणा देते हैं। ये बताते हैं हमें कि किस तरह नदी-घाटियों का सौंदर्य निहारने हुए,उनमे उगाया गया मडुआ, झिंगोरा और पिनालू खाने के बाद बज्याणी का ठंडा पानी पीकर हम स्वयं को बाज़ारवाद के भयानक जिन्न से बचा सकते हैं।
इसमें कभी दो रायें हो ही नहीं सकतीं कि यदि इन देवतुल्य माननीयों का महा-आशीर्वाद हमें नहीं मिला होता तो देवभूमि के दुर्लभ खिताब को यह राज्य पता नहीं कब का खो चुका होता। इन्ही की पहल पर हमने स्कूल, सड़क, अस्पताल, पानी, महंगाई , बेरोज़गारी जैसे निकृष्ठ सांसारिक मुद्दों से ऊपर उठ कर अपरिग्रह की प्राचीन मनीषा को समझा है। कभी कल्पना की है आपने कि इस देवभूमि को वास्तव में देवतुल्य बनाने के लिये माननीयरूपी इन महादेवों को कंचन ओर कामिनी रूपी कितना हलाहल कंठस्थ ही नहीं बल्कि उदरस्थ भी करना पड़ रहा होगा। आप और हम जैसे मूढों को ‘माया’ के कलुष से बचाने के लिए इतना ऐतिहासिक आत्मोत्सर्ग भला कर सकता है कोई?
खैर… बात हो रही थी कथित राजनैतिक कार्यकर्ताओं को ठेके दिए जाने की पहल की। संविधान भले ही ‘इक्विलिटी ऑव अपॉरचुनिटी’ की बात करता हो, पर आप खुद सोचिए साठ बरस पहले लिखी गयी किसी किताब को शिलालेख बना देना क्या उचित होगा, और वो भी एक ऐसे भूखंड में जहां ऊर्जा का असाधारण विस्फोट हो रहा हो। यूं भी आप किसी को उसके घर पर धर्मग्रंथों, अच्छी अच्छी किताबों को रखने, सजाने की सलाह तो दे सकते हैं, क्योंकि ऐसा करना, सभ्य, सम्पन्न और संस्कारवान होने की निशानी है। पर खुद सोचिए अगर अगले दिन आप उससे इन्हें पढ़ने और इन पर अमल करने की अपेक्षा भी करने लगें तो क्या यह अंगुली पकड़ कर पहुंचा पकड़ने वाली बात नहीं होगी?
और फिर, राजनैतिक कार्यकर्ता तो इन्ही महानुभावों की समृद्ध विरासत की टेम्पलेट फाइलें हैं। सेवा और समर्पण का स्थाई भाव, जो कि माननीयों की पूंजी होती है, ये कार्यकर्ता उसी विरासत के संवाहक हैं। बस यूं समझ लीजिए कि एक सघन इंटर्नशिप में हैं ये लोग जिसके पूरा होने पर इन्हें अपनी योग्यतानुसार ग्राम प्रधान, ब्लॉक प्रमुख या प्रधान पति से लेकर एमपी, एमएलए जैसे कर्मक्षेत्रों से सेवा करने का अवसर भविष्य में मिलेगा। एक ऐसी इंटर्नशिप है ये जो इन्हें त्याग , तपस्या और बलिदान के लिए तैयार कर रही है, ताकि माननीयों की विरासत को संभालने का हुनर ये अच्छी तरह सीख सकें।
इस देवभूमि को माया-मोह ओर सांसारिक प्रलोभनों से बचाने के लिए ज़रूरी है ये सब। ठेके तो बस शुरुवात हैं, शंकर बनने के लिए तो इन्हें अभी न जाने कितना हलाहल और पीना पड़ेगा।