हिमांशु जोशी
शाहजहां ने ताजमहल बनाने से पहले उसके पीछे यमुना नदी को आज के हालात में देखा होता तो ताज शायद वहां बना ही नही होता. लोग भीषण गर्मी के दौरान उत्तराखंड के पहाड़ो की ठंडक और खूबसूरती से इसकी तरफ खिंचे तो चले आते हैं पर पिछले कुछ सालों में विकास के नाम पर उत्तराखंड के पहाड़ों तो जिस तरह उधेड़ा गया है, उसके बाद लोग शायद ही ‘वाह उत्तराखंड’ कहने यहां पहुंचे.
उत्तराखंड टूरिज्म द्वारा उनकी साइट पर जारी आंकड़ों के अनुसार उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में भारतीयों के पसंदीदा टूरिस्ट स्पॉट देहरादून, मसूरी, टिहरी और बद्रीनाथ हैं. साल 2018 और 2019 के आंकड़ों पर नज़र डालें तो पता चलता है कि इन दोनों ही सालों में लगातार दस लाख से ऊपर पर्यटकों की आमद इन पर्यटक स्थलों में हो रही थी, मैदानी धार्मिक शहर हरिद्वार की बात करें तो वहां जाने वाले पर्यटकों की संख्या करोड़ों में थी.
साल 2019 में उत्तराखंड के औली में कचरा फैलाने के लिए दक्षिण अफ्रीका के व्यवसायी बंधुओं अजय और अतुल गुप्ता पर 2.5 लाख रुपये का जुर्माना लगाया गया था, यह वह कचरा था जो कुछ लोगों की वजह से एक सीमित क्षेत्र में हुआ और मीडिया में भी खूब उछला था पर उत्तराखंड में आने वाले करोडों पर्यटकों की वजह से जो कचरा हो रहा है उसकी वज़ह से पर्यावरण को हो रहे नुकसान पर कभी कोई बात नही हुई.
इस कचरे की वजह से उत्तराखंड की वादियों की खूबसूरती तो खराब हो ही रही है, साथ में भूमि को जो नुकसान होता है उसकी भरपाई कर पाना भी असम्भव हो जाता है.
सारे पर्यावरणविद व वैज्ञानिक इस मामले में एक मत हैं कि पर्यटन को बंद नही किया जा सकता पर कम से कम नियंत्रित तो किया ही जाए.
पर्यटन को बढ़ावा देने से पहले उत्तराखंड सरकार के लिए इस कचरे का समाधान खोजना आवश्यक है, जैसे नैनीताल और मसूरी जैसी सुंदर जगहों में शराब की फेंकी हुई बोतलें बड़ी समस्या है.
पर्यटकों को उत्तराखंड में प्रवेश देने से पहले उनके द्वारा लाए जा रहे सामान से पर्यावरण को होने वाले नुकसान के बारे में जानकारी दी जानी चाहिए.
भाजपा के सड़कों के जाल अभियान के तहत वर्ष 2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के महत्वकांक्षी प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए सारे नियम कायदों को ताक पर रख ऑल वेदर रोड कार्य शुरू हुआ. इस सड़क को तीर्थाटन और पर्यटन के साथ ही सामरिक महत्व के लिहाज से महत्वपूर्ण बताया गया.
पहाड़ न दरके इसके लिए पत्थर लगा पहाड़ों पर बाउंड्री की गई, जाल बांध फ़िर सरिया लगा भी पहाड़ों को रोकने की ‘रॉक ट्रीटमेंट’ स्कीम चली. सड़क की चौड़ाई दस मीटर से अधिक ही रखी गई थी.
इस सड़क से पर्यावरण को होने वाले नुक़सान को देखते सुप्रीम कोर्ट ने एक हाई पॉवर कमेटी गठित की, जिसके अध्यक्ष रवि चोपड़ा ने अपनी रिपोर्ट में सड़क की चौड़ाई 12 मीटर रखना ठीक नही बताया था और इसको सिर्फ 5.5 मीटर तक ही रखने की सिफारिश की थी पर महत्वाकांक्षी सत्ता के आगे सब फीके थे और इसके बाद सड़क बारिश या उसके बिना भी कई बार किसी न किसी बाधा से बंद रहने लगी.
इस 1 मई एक्टिविस्ट अतुल सती द्वारा ऑल वेदर रोड की सच्चाई दिखाता यह ट्वीट खासा वायरल हुआ था. जिसमें उत्तराखंड घूमने आने वालों को ऑल वेदर रोड का कितना फायदा मिला यह साफ हो गया.
पिछले साल टनकपुर से पिथौरागढ़ जाने वाली सड़क रिकॉर्ड सात दिनों से अधिक समय तक बंद रही थी.
टनकपुर से चंपावत की दूरी मात्र 70 किलोमीटर है पर पर सड़क बंद होने की वजह से रीठासाहिब के वैकल्पिक मार्ग से होता यह सफ़र 140 किलोमीटर का बन गया था.
विकास के नाम पर बनाई जा रही इस सड़क के निर्माण के दौरान अब तक कई घरों के चिराग भी बुझ चुके हैं.
साल 2018 में रुद्रप्रयाग जिले में केदारनाथ मार्ग पर बांसवाड़ा के पास कार्य करने वाले मजदूरों पर गिरी चट्टान से एक बड़ा हादसा हुआ था, जिसमें सात लोगों ने अपनी जान गंवाई.
मार्च 2020 में बद्रीनाथ हाईवे पर ऑल वेदर रोड कटिंग के दौरान एक और हादसा हुआ और चट्टान में दबने से तीन लोगों की मौत हो गई.
अक्टूबर 2020 में घाट-पिथौरागढ़ हाइवे पर एक कैंटर के ऊपर मलबा गिर जाने से उसमें सवार दो लोगों की मौके पर ही मौत हो गई.
हिमालय के दो ढाल हैं: उत्तरी और दक्षिणी. दक्षिणी में भारत, नेपाल, भूटान हैं. उत्तराखण्ड को सामने रख हम दक्षिणी हिमालय को समझ सकते हैं. उत्तराखण्ड की पर्वत श्रृंखलाओं के तीन स्तर हैं- शिवालिक, उसके ऊपर लघु हिमालय और उसके ऊपर ग्रेट हिमालय. इन तीन स्तरों मे सबसे अधिक संवेदनशील ग्रेट हिमालय और मध्य हिमालय की मिलान पट्टी हैं.
इस संवेदनशीलता की वजह इस मिलान पट्टी में मौजूद गहरी दरारें हैं.
बद्रीनाथ, केदारनाथ, रामबाड़ा, गौरीकुण्ड, गुप्तकाशी, पिंडारी नदी मार्ग, गौरी गंगा और काली नदी – ये सभी इलाके दरारयुक्त हैं.
यहां भूस्खलन का होते रहना स्वाभाविक घटना है, किंतु इसकी परवाह किए बगैर किए निर्माण को स्वाभाविक कहना नासमझी कहलायेगी. यह बात समझ लेनी जरूरी है कि मलवे या सड़कों में यदि पानी रिसेगा, तो विभीषिका सुनिश्चित है.
दरारों से दूर रहना, हिमालयी निर्माण की पहली शर्त है. जल निकासी मार्गों की सही व्यवस्था को दूसरी शर्त मानना चाहिए. हमें चाहिए कि मिट्टी-पत्थर की संरचना कोे समझकर निर्माण स्थल का चयन करें, जल निकासी के मार्ग में निर्माण न करें. नदियों को रोकें नही और बहने दें.
जापान और ऑस्ट्रेलिया में भी ऐसी दरारें हैं लेकिन सड़क मार्ग का चयन और निर्माण की उनकी तकनीक ऐसी है कि सड़कों के भीतर पानी रिसने की गुंजाइश नगण्य है इसलिए सड़कें बारिश में भी स्थिर रहती हैं.
पहाड़ों में सड़क बनाने के सही तरीके को लेकर पर्यावरण के मुद्दों में सालों से गहरी नज़र रखते आ रहे वरिष्ठ पत्रकार विनोद पांडे से बात की गयी. उन्होंने बताया कि पहले पहाड़ों में सड़क ‘कट एंड फिल’ तकनीक से बनती थी. सड़क बनाने के लिए पहाड़ काट सड़क के लिए आधा हिस्सा छोड़ा जाता था और आधे में उसी के मलबे की दीवार दी जाती थी. हल्द्वानी- नैनीताल रोड इसका उदाहरण है.
जेसीबी आने के बाद से इस ओर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया, पहाड़ काट उसका मलबा सड़क पर कहीं भी बेतरतीब तरीके से फेंक दिया जाता है. वो मलबा नीचे बह रही नदियों पर गिरता है और इससे जल प्रवाह में विघ्न आता है. सड़क बनाते समय पानी की निकासी का ध्यान भी नहीं दिया जाता और बाद में पानी अपना रास्ता खुद बनाते हुए भारी नुकसान भी करता जाता है.
टाइम्स ऑफ इंडिया’ ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि चार धाम सड़क को चौड़ा करने के लिए काटे जाने वाले 6000 देवदार के पेड़ों को चिह्नित करने पर ग्रामीण और कार्यकर्ता, राज्य वन विभाग के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं. स्थानीय लोगों का कहना है कि पारिस्थितिक रूप से कमजोर भागीरथी इको-सेंसिटिव जोन में इन पेड़ों की कटाई से क्षेत्र में ‘केदारनाथ जैसी आपदा’ आ सकती है.
देहरादून के आशारोड़ी में भी सड़क के चौड़ीकरण के नाम पर हज़ारों पेड़ काटे जा रहे हैं, जिससे पर्यावरण को सीधा नुकसान पहुंच रहा है.
देशभर में इस साल भीषण गर्मी पड़ रही है और चार धाम में भी इस बार अप्रैल माह की जगह मार्च में ही बर्फ पिघलने लगी है. जल, जंगल और जमीन का अतिदोहन ही इसके लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार है.
भूगर्भशास्त्री प्रोफ़ेसर खड्ग सिंह वल्दिया ने कहा था जब बड़ी-बड़ी गाड़ियां, ट्रक व बसें पहाड़ के इन कमजोर रास्तों पर चलतीं हैं तो भी धरती की पुरानी दरारें माइक्रो भूकम्पों से थरथरातीं हैं, हर रोज लाखों की संख्या में उठने वाले ये माइक्रो भूकंप पहाड़ों को कमजोर करते चले जाते हैं.
इस बीच चारधाम परियोजना की निगरानी करने वाली सुप्रीम कोर्ट की हाई पॉवर कमेटी के चेयरमैन पद से रवि चोपड़ा ने भी इस साल की शुरुआत में इस्तीफा दे दिया है.
पर्यावरणविद रवि चोपड़ा ने अपने इस्तीफा-पत्र में कहा था कि यह विश्वास टूट सा गया है कि उच्च अधिकार प्राप्त समिति इस बेहद नाजुक पारिस्थतिकी को संरक्षित कर सकती है. मैं अब और काम नहीं कर सकता, इसलिए इस समिति से मैं इस्तीफा दे रहा हूं.
पर्यटक सीज़न में पर्यटकों की भीड़ जगह-जगह बंद रहने वाली इस ऑल वेदर रोड वजह से परेशानी तो झेलती ही है, साथ में उत्तराखंड के क्षेत्रीय लोग भी इस वज़ह से परेशानी उठाते हैं. सड़क पर लगे लंबे जाम की वजह से उत्तराखंड के दूरस्थ क्षेत्रों में रहने वाले मरीजों के लिए और मुसीबत खड़ी हो जाती है.
कई पर्यटक जब अपना महत्वपूर्ण समय और पैसा खर्च कर कुछ सुकून पाने की तलाश लिए मंजिल के करीब पहुंचते हैं तो उन्हें ट्रैफिक की वजह से वहां से वापस लौटा दिया जाता है.
इंटरनेट, मोबाइल के इस युग में उत्तराखंड पर्यटन से जुड़े लोगों को चाहिए कि वह इन डिजिटल साधनों का सही प्रयोग करते उत्तराखंड आने वाले पर्यटकों तक सड़कों, पार्किंग की ताजा जानकारी पहुंचाते रहें.
उत्तराखंड में आने वाली पर्यटकों की इस भीड़ में अपनी जेब में नोटों की गड्डी भरे वह लोग भी हैं जो उत्तराखंड को एक बाजार के तौर पर देख रहे हैं या जिन्होंने पहाड़ को अपना दूसरा घर बनाने की ठानी है. ऐसे लोग अपना तो हित देख रहे हैं पर वह यह नही समझते कि अपने सुख के लिए उन्होंने पहाड़ को भी नगरों की तरह बनाना शुरू कर दिया है, जहां कंक्रीट का जाल है. ‘हिमान्तर’ पत्रिका में तरुण जोशी की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि एक अनुमान के मुताबिक उत्तराखंड की अब तक लगभग एक लाख हैक्टेयर जमीन उत्तराखंड के स्थानीय लोगों के हाथ से निकल बाहरी लोगों के हाथों में चली गई है.
पहाड़ की वादियां महानगरों की गलियों सा महसूस कराना शुरू करें उससे पहले उत्तराखंड में भूमि की खरीद फरोख्त को लेकर भूकानून लागू करने की आवश्यकता भी है.
उत्तराखंड से पलायन को रोकने के लिए बातें तो हमेशा की जाती है पर प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर उत्तराखंड में पलायन महत्वपूर्ण समस्या रहा है. उत्तराखंड के कई युवा नोएडा, दिल्ली के होटलों में काम करते गुमनामी के अंधेरों में खोए रहते हैं.
लाखों में एक प्रदीप मेहरा भी निकलता है, जिसकी कहानी चर्चा पा जाती है.
ग्राम्य विकास एवं पलायन आयोग, उत्तराखंड पौड़ी द्वारा जून 2021 में दिए गए आंकड़ों के अनुसार प्रदेश में पहली लहर के दौरान सितंबर 2020 तक 3,57,536 प्रवासी वापस लौटे थे, जिसमें से सितंबर अंत तक 1,04,849 प्रवासी एक बार फिर से वापस मैदानी क्षेत्रों में पलायन कर गए.
अपने उत्तराखंड दौरे में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि देश को बचाना है तो उत्तराखंड के पलायन को रोकना होगा क्योंकि उत्तराखंड देश की उत्तरी सीमा है. वृक्षारोपण, जल संरक्षण को बढ़ावा देना होगा. उत्तराखंड मे आध्यात्मिक पर्यटन को इको पर्यटन से जोड़ना होगा.
उनकी इस बात को गम्भीरता से किया जाए तो उत्तराखंड के स्थानीय लोगों के साथ पर्यटकों के लिए भी उत्तराखंड एक आदर्श पर्यटक स्थल बन सकता है.
इको टूरिज़्म का अर्थ है पर्यटन और प्रकृति संरक्षण का प्रबंधन इस ढंग से करना कि एक तरफ पर्यटन और पारिस्थितिकी की आवश्यकताएं पूरी हों साथ ही दूसरी तरफ स्थानीय समुदायों के लिए बेहतर जीवन स्तर सुनिश्चित किया जा सके.
आध्यात्मिक पर्यटन में पर्यटक, आध्यात्म से जुड़ी जगह जाना पसंद करते हैं.
उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में पर्यटक या तो चारधाम से जुड़ी आध्यात्मिक पर्यटन में रुचि लेता है या वो नैनीताल, मसूरी में जाकर इको टूरिज़्म को बढ़ावा देता है. इससे उत्तराखंड के बाकी क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को पर्यटन से जुड़े रोज़गार का खास फायदा नही मिलता. उत्तराखंड के हर जिले में धार्मिक महत्व के तीन- चार दर्शनीय स्थल जरूर हैं और अगर उनका प्रचार-प्रसार वहां की प्राकृतिक सुंदरता से जोड़कर किया जाएगा तो स्थानीय लोगों को तो इसका फायदा मिलेगा ही साथ ही मुख्य रूप से पर्यटकों के दबाव वाली तीन-चार जगहों से हट कर अन्य जगहों में भी पर्यटक घूमना शुरू कर देंगे. इससे उत्तराखंड को ट्रैफिक जाम, प्रदूषण जैसी समस्याओं से भी निजात मिल सकता है.
फोटो : गूगल से साभार