सुसैन चाको व ललित मौर्या
हिमालयी क्षेत्र में बढ़ते पर्यटन के चलते हिल स्टेशनों पर दबाव बढ़ रहा है। इसके साथ ही पर्यटन के लिए जिस तरह से इस क्षेत्र में भूमि उपयोग में बदलाव आ रहा है वो अपने आप में एक बड़ी समस्या है। जंगलों का बढ़ता विनाश भी इस क्षेत्र के इकोसिस्टम पर व्यापक असर डाल रहा है।
यह जानकारी हाल ही में गोविंद बल्लभ पंत राष्ट्रीय हिमालयी पर्यावरण संस्थान (जीबीएनआईएचई) द्वारा जारी रिपोर्ट ‘एनवायर्नमेंटल एस्सेसमेन्ट ऑफ टूरिज्म इन द इंडियन हिमालयन रीजन’ में सामने आई है। इस रिपोर्ट को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) के आदेश पर पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफ और सीसी) को सौंपा गया है।
यह रिपोर्ट हिन्दू अखबार में प्रकाशित एक रिपोर्ट के सन्दर्भ में प्रकाशित की गई है जिसमें कहा गया था कि पर्यटन ने हिमालय क्षेत्र में आर्थिक समृद्धि तो लाइ है लेकिन इसका खामियाजा पर्यावरण को भुगतना पड़ रहा है।
देखा जाए तो इस क्षेत्र में जो नागरिक सुविधाएं उपलब्ध हैं उनके भीतर पर्यटन का प्रबंधन अपने आप में एक बड़ी चुनौती है। इसके साथ ही बुनियादी सुविधाओं की कमी भी एक समस्या है। उदाहरण के लिए लद्दाख को ही देख लीजिए, जो पहले ही जल संकट की समस्या से ग्रस्त क्षेत्र है। वहां पर्यटन ने इस समस्या को और बढ़ा दिया है।
गौरतलब है कि यह क्षेत्र अपनी पानी की मांग के लिए ज्यादातर बर्फ या हिमनदों के पिघलने और सिंधु नदी के प्रवाह पर निर्भर है। इस क्षेत्र में जहां एक स्थानीय निवासी प्रति दिन 75 लीटर पानी का उपयोग करता है वहीं एक पर्यटक के लिए हर रोज करीब 100 लीटर पानी की जरुरत है ऐसे में यह बढ़ी हुई मांग वहां जल स्रोतों पर कहीं ज्यादा दबाव डाल रही है।
16 जून 2022 को एनजीटी की साइट पर डाली गई इस रिपोर्ट में सिफारिश की गई है कि लद्दाख में संरक्षित क्षेत्रों जैसे हेमिस नेशनल पार्क, चांगथांग कोल्ड डेजर्ट सैंक्चुअरी और काराकोरम सैंक्चुअरी में सतर्कता और नियमित गश्त की जरुरत है, जिससे इस क्षेत्र में वन्यजीव और पर्यटकों के बीच संघर्ष की घटनाओं को टाला जा सके।
इतना ही नहीं इस क्षेत्र में ऑफ-रोड ड्राइविंग के कारण इस क्षेत्र में वन्यजीवों का आवास नष्ट हो रहा है और जैवविविधता पर इसका असर पड़ रहा है। साथ ही बढ़ता अतिक्रमण भी नई समस्याएं पैदा कर रहा है।
इसी तरह मनाली, हिमाचल प्रदेश में किए एक अध्ययन से पता चला है कि 1989 में वहां जो 4.7 फीसदी निर्मित क्षेत्र था वो 2012 में बढ़कर 15.7 फीसदी हो गया है। इसी तरह 1980 से 2011 के बीच वहां पर्यटकों की संख्या में 1900 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है।
गौरतलब है कि जहां 1989 में वहां आए पर्यटकों का आंकड़ा 1.4 लाख था वो 2012 में बढ़कर 28 लाख पर पहुंच गया था। जिसका सीधा असर इस क्षेत्र के इकोसिस्टम पर पड़ रहा है। इसके साथ ही इस क्षेत्र में पिछले कुछ वर्षों के दौरान मौजूदा होटलों की संख्या में भी वृद्धि हुई है। इसका खामियाजा इस क्षेत्र में हरियाली और जैवविविधता को भुगतना पड़ रहा है।
बढ़ते दबाव को कम करने के लिए क्या कुछ किए जा सकते हैं प्रयास
लद्दाख की तरह ही कश्मीर क्षेत्र में भी पर्यटकों की आवाजाही, वायु गुणवत्ता और ठोस कचरे के प्रबंधन पर ध्यान देने की जरुरत है। इसके साथ ही जम्मू में अमरनाथ और माता वैष्णो देवी की यात्रा करने वाले तीर्थयात्रियों के लिए बेहतर सुविधाएं सुनिश्चित करने के लिए वहां मौजूद सुविधाओं पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है।
रिपोर्ट में इस बात पर भी जोर दिया गया है कि भारतीय हिमालय क्षेत्र के लिए सस्टेनेबल एजेंडा के साथ पर्यटन सम्बन्धी नियमों को दुरुस्त करने की जरुरत है। इसे भारतीय हिमालय क्षेत्र के हर एक पर्यटन स्थल पर कितने पर्यटकों के लिए सुविधाएं मौजूद है और वहां मौजूद बुनियादी ढांचे की कितनी क्षमता है इस सबको ध्यान में रखकर नियंत्रित किया जा सकता है।
रिपोर्ट के अनुसार मुख्य रूप से ठोस कचरे के उत्पादन और प्रदूषण के स्तर को कम करके जल, वायु और जैवविविधता को होते नुकसान को कम किया जा सकता है। ऐसे में रिपोर्ट ने स्पष्ट तौर पर कहा है कि जहां इस क्षेत्र में स्थानीय लोगों के स्थाई रोजगार को ध्यान में रखना जरुरी है। वहीं साथ ही अनियमित पर्यटन के चलते इस क्षेत्र में पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र को होते नुकसान को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
रिपोर्ट के मुताबिक उन पर्यटक स्थलों से सबक सीखने की जरुरत है जो पहले ही बढ़ते पर्यटकों का दबाव झेल रहे हैं। साथ ही रिपोर्ट ने इस बात पर भी जोर दिया है कि हिमालयी राज्यों को एक ऐसा तंत्र विकसित करने की जरुरत है जिसमें पर्यटन के शाश्वत विकास के साथ-साथ इकोसिस्टम और जैवविविधता पर पड़ते प्रभाव को भी कम से कम किया जा सके।
‘www.downtoearth.org.in’ से साभार