सी. एस. कार्की
विशाखापत्तनम में तो वैज्ञानिक आज कह रहे हैं कि शिक्षित युवकों को गाँव में जाना चाहिए परंतु उत्तराखण्ड के शिक्षित युवकों ने बिना विज्ञापन किए यह कार्य पहले ही प्रारंभ कर दिया है।
(दिनमान- १-७ फरवरी १९७६)
उपरोक्त अंश दिनमान की रिपोर्ट ‘वन के मन में’ का है, जिसे ११-१२ जनवरी १९७६ को उत्तरखंड के युवकों, रचनात्मक कार्यकर्ताओं, राजनैतिज्ञों, बुद्धिजीवियों एवं श्रमिकों की दो दिवसीय विचार गोष्ठी के पश्चात प्रकाशित किया गया था। यह उत्तराखण्ड की पहली विचार गोष्ठी थी। गढ़वाल और कुमाऊं के वन श्रमिकों, युवकों, छात्र-छात्राओं, विभिन्न दलों के लोगों और बुद्धिजीवियों ने एक साथ इस विचार गोष्ठी में भाग लिया था। इस विचार गोष्ठी के पश्चात पहाड़ के शिक्षित नव युवकों, छात्रों को पहाड़ कीमूल समस्याओं से जोड़ा गया। उनमेंं गाँव के किसानों, श्रमिकों के शोषण के खिलाफ लड़ने, श्रम पर पूर्ण स्वामित्व जता पाने की क्षमता उत्पन्न करने, युवकों के लिए रोजगार के अवसर पैदा करने का अभिनव प्रयोग शमशेर सिंह बिष्ट जी के नेतृत्व में किया गया।
बिष्ट जी का करिश्माई व्यक्तित्व एवं दृढ़ सोच ने नौजवान पीढ़ी को अपने गांव, गरीबी, रोजगार एवं समाज के बारे में सोचने की दिशा दी और एक नए वातावरण का विकास प्रारंभ हुआ जिसमें छात्र, श्रमिक, किसान सब एक-दूसरे के पूरक सिद्ध होने लगे। बिष्ट जी ने चेतनशील विचारों को पहाड़ की जमीन पर रोपने का प्रयास किया। परिणाम स्वरूप विश्वविद्यालय में अध्ययनरत प्रतिभावान छात्र मजदूरों-किसानों की समस्याओं को हल करने का प्रयास करने लगेे और श्रमिक-कामगार विश्वविद्यालय के छात्रों एवं अन्य बुद्धिजीवियों की बात समझने के इच्छुक होने लगेेे। छात्रों की विचार एवं दृष्टि में यह परिवर्तन जिसमें पढ़ाई के साथ-साथ गॉव, जंगल, जमीन, पानी, पटवारी, प्रधान, लीसा एवं स्वास्थ्य के बारे में गंभीरता से सोचना और पूरे दमखम के साथ इन कार्यों को पूरा करना स्व. बिष्ट जी के आत्मीय व्यवहार एवं सही सोच का ही नतीजा था।
उत्तराखण्ड में ग्रामोत्थान छात्र संगठन को श्रमिक, युवा एवं अन्य से जोड़ते हुए इसे विस्तार देने के लिए ‘पर्वतीय युवा मोर्चा’ पीवाइएम का गठन किया गया। पीवाइएम लिखे ‘लाल शोले’ पहाड़ में परिवर्तन की आहट की तरह लगने लगे थे।
बात जनवरी १९७६ की। अल्मोड़ा स्थित राम कृष्ण धाम में दो दिवसीय विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया। इस विचार गोष्ठी में पहुंचे लोगों के लिए भोजन और रहने की व्यवस्था तब छात्रों एवं ग्रामीण किसान श्रमिकों ने स्वयं की। लेकिन तब इस भव्य विचार गोष्ठी में किसी भी फोटाग्राफर को नहीं बुलाया गया। संदेश स्पष्ट था- ‘काम, परिणाम उत्तम, दिखावा कम।’ ‘युवा एवं वन श्रमिक विचार गोष्ठी’ नाम से आयोजित इस विचार गोष्ठी के मुख्य अतिथि चिपको आंदोलन के जन्मदाताओं में से एक चंडी प्रसाद भट्ट जी एवं अध्यक्षता मेरे पूज्य पिताजी स्व. शोबन सिंह कार्की जी ने की थी। गोष्ठी में कई सार्थक उपलब्धियों के साथ उत्तराखण्ड में समस्त वनों का संवर्धन तथा दोहन का कार्य वन श्रमिक सहकारी समितियों के माध्यम से करवाने एवं सहकारी समितियों को स्थापित करने का निर्णय लिया गया। इस प्रकार पहाड़ में वन ठेकेदारी प्रथा को समाप्त करने, वन श्रमिकों को अधिकतम लाभांश दिलाने और वनों के प्रति लोगों में जागरूकता लाने का प्रयास किया गया। अल्मोड़ा जिले में चार समितियां स्थापित की गई जिनका संचालन विश्वविद्यालय के छात्र कर रहे थे। वे समितियां थी- मनान श्रम संविदा सहकारी समिति, चमतोला, गुरना एवं सिलंगी। इनको क्रमश: एम. चन्द्रशेखर भट्ट, मोहन सिंह बिष्ट, सोबन सिंह नगरकोटी और मैं संचालित कर रहे थे। वन इतिहास में पहली बार इन समितियों के वन क्षेत्र को बिना टेंडर लीसा दोहन का कार्य सौंपा गया जो ठेकेदारी प्रथा की समाप्ति के लिए एक आशा की किरण थी। इन समितियों ने श्रमिकों, किसानों एवं ग्रामीणों की तमाम समस्याओं को समझने एवं सुलझाने का सतत प्रयास किया जिसके परिणामस्वरूप विभिन्न प्रकार के जन आंदोलनों की जमीन तैयार होने लगी।
स्व. बिष्ट जी एवं साथियों के प्रयास से देश के बुद्धिजीवी, शोधार्थी और छात्र गांवों में श्रमिकों एवं किसानों से मिलने लगे एवं उनके काम का मूल्यांकन करने लगे जिससे गांवों को सकारात्मक ऊर्जा मिली। पहाड़ के गांवों की समस्याएं, जन व वन का सामंजस्य, प्रशासन से गांव के लोगों को मिलने वाली पीड़ा, न्याय और स्वास्थ्य ये सभी विषय चर्चा में रहने लगे। इन्हें हल करने के लिए स्व. बिष्ट जी हमेशा तत्पर रहते। गाँवों की समस्याओं को लेकर पटवारी व ग्राम सचिव को समझाना, तहसीलदार को फटकारना एवं शोषित-पीडि़त जनों को लेकर उच्च प्रशासनिक अधिकारियों के दफ्तर में घुस जाना ये सारी घटनाएं स्मरण हो आती हैं। उन्होंने गाँव के लोगों को पेयजल, भूमि सुधार, भूमि आवंटन, जन स्वास्थ्य इत्यादि समस्याओं के लिए लड़ना सिखाया। उन्होंने साधारण ग्रामीण जनता के सम्मुख उच्च पदाधिकारियों को कठोर शब्दों में उनकी जिम्मेदारियों का आभास कराकर आम जन में आत्मविश्वास भी बढ़ाया।
स्व. बिष्ट जी के नेतृत्व में तब एक और प्रयोग हुआ- गाँव के युवकों का गाँव में ही कैसे समायोजित किया जाए। स्व. श्री खड़क सिंह खनी अपना काम नैनीताल से छोड़कर गाँव में आ गए थे। उनके रोजगार एवं स्थायित्व को हल करने के लिए गाँव में ही एक दुकान खोली गई। सहकारी बैंक से ऋण लेकर इसके लिए पूंजी की व्यवस्था की गई। मैंने और जगत सिंह रौतेला ने सहकारी बैंक से कर्ज लेकर खड़क दा के लिए गाँव में ही रोजगार उपलब्ध कराया और इसी की उपलब्धि रही संघर्षशील, जुझारू और बेहद साहसी आंदोलनकारी खड़क दा का बनना। यह बिष्ट जी का ही व्यक्तित्व था, जिसकी वजह से अध्ययनरत छात्रों को कर्ज मिल गया था।
तब चेतना प्रिंटिंग प्रेस भी अल्मोड़ा में अध्ययनरत छात्रों के लिए एक आसरा था। इसकी स्थापना के दावेदार में तब के युवा अपना घनिष्ठ जुड़ाव समझते थे। प्रेस का उद्घाटन हेमवंती नंदन बहुगुणा जी ने किया था और पैर से संचालित प्रिंटिंग मशीन में पहली पैडल मैंने मारा। संदेश था- ‘छात्र स्वयं मेहनत करेंगे।’ जगत रौतेला प्रेस से लम्बे समय तक जुड़े रहे। यह उनका विशाल हृदय ही था कि अपने प्रयासों एवं उपलब्धियों को भी साथियों, सहयोगियों के साथ सामूहिक उपलब्धि की तरह प्रदर्शित करते थे।
शमशेर दा के साथ हर साथी समझदार और निर्भीक हो जाता था। परिस्थितियां चाहे कुछ भी रहें, लेकिन भयभीत नहीं होता था। आपातकाल के दिनों में सैकड़ों गॉवों की लंबी-लंबी यात्राएं और सभाएं की। कभी भी किसी प्रकार की आशंका महसूस नहीं की। ऐसी ही एक यात्रा तब आपातकाल के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में जन जागरण एवं वन कटान के खिलाफ मुहिम लेकर अल्मोड़ा से शुरू की गई थी। अल्मोड़ा से शुरू हुई यह यात्रा बाड़ेछीना, धौलछीना, मल्ला सेराघाट, गणाई, बेरीनाग, थल, गंगोलीहाट, तल्ला सेरा, हरड़ा, नैनी, जागेश्वर होते हुए अल्मोड़ा लौटी थी। कई दिनों तक दर्जनों गाँवों और पड़ावों मेंं सभाएं आयोजित होती रही। यात्रा और सभाओं के दौरान स्थानीय प्रशासनिक कर्मचारियों और पटवारियों से भी सामना हुआ। इशारों या फिर दबी जुबान में वे कहतेे- ‘तुम्हारा नेता विपिन त्रिपाठी बंद हो गया, तुम सतर्क रहो।’ तब हमें लगता था- ‘हमारे साथ शेर है, तो हमें कौन क्या करेगा।’
उस समय के कई साथी आज हमारे बीच नहीं रहे, जिन्हें तब गाँव, गरीब, छात्र, श्रमिक, जंगल, पहाड़ की चिन्ता रहती थी। उन सबको भी स्मरण करते हुए नवयुवकों के आदर्श एवं प्रेरणाश्रोत रहे स्व. शमशेर दा को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।