प्रमोद साह
यह जनवरी 1974, का वाकिया है जब प्रसिद्ध गांधीवादी सर्वोदय कार्यकर्ता श्री सुंदरलाल बहुगुणा उत्तराखंड में अपनी 127 दिवसीय 1500 किलोमीटर लंबी यात्रा के मध्य अल्मोड़ा में रैन बसेरा होटल में ठहरे हुए थे। टिहरी के युवा कुंवर प्रसून और प्रताप शिखर भी उनके साथ थे जब शमशेर सिंह बिष्ट और श्री शेखर पाठक उनसे मिले तो नेपाल की सीमा के गांव अस्कोट से हिमाचल प्रदेश की सीमा तक के गांव आराकोट तक की पदयात्रा की योजना बनकर तैयार हुई।
25 मई 1974 को राजकीय इंटर कॉलेज अस्कोट से यह ऐतिहासिक यात्रा प्रारंभ हुई जो 45 दिनों में 750 किलोमीटर से अधिक की यात्रा के दौरान 12 बड़ी-बड़ी नदियां 9000 से 14000 फुट तक के तीन पर्वत शिखर के साथ ही 200 से अधिक गांवों और कस्बों से होकर गुजरी। इस यात्रा ने शमशेर सिंह बिष्ट के जीवन का उद्देश्य बदल दिया। वह गांव कुमाऊं के हों अथवा गढ़वाल के दोनों ही जगह ग्रामीण समाज के हाल बेहद दर्दनाक थे।
अस्कोट में काली और गोरी नदियां बहती हैं, तो आराकोट में टोन्स और पब्बर। दोनों के बीच का जीवन अभाव, गरीबी और पीड़ा में पल रहा है। यह दर्शन उन्हीं के बीच जाकर हो सकता है। मोटर सड़कों तक तो सब ठीक दिखता है फिर लोग घर से बाहर बन ठन कर भी निकलते हैं इसलिए अभाव और गरीबी का दर्शन करने के लिए जो पद यात्रा संपन्न हुई उसने उत्तराखंड के गांव में गरीबी अभाव, असुरक्षा, शराब खोरी, क्षेत्रीय राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय घटनाओं से अनभिज्ञता और महिलाओं की बदहाली के साथ ही मजबूर युवाओं के पलायन की दारूण तस्वीर पेश की। उस पीडा़ ने ही शमशेर को उत्तराखंड में ही संघर्षरत रहने का मैदान दे दिया।
उसके बाद मात्र 6 माह की जेएनयू की पढ़ाई को शमशेर सिंह बिष्ट ने अलविदा कह दिया और समाज के संघर्ष को अपना विश्वविद्यालय बना दिया। इस यात्रा की यह भी उपलब्धि थी कि इसने कुमाऊं और गढ़वाल के मध्य सामाजिक सहयोग के नए द्वार खोले। यह भी कि प्रताप शिखर और कुंवर प्रसून जहां तपे हुए गांधीवादी सर्वोदय कार्यकर्ता थे वहीं शमशेर सिंह बिष्ट और श्री शेखर पाठक वामपंथ के रुझान के युवा लेकिन दोनों ही धाराओं ने इस यात्रा में एक बेहतर समन्वय स्थापित कर समाज को नई दिशा दी।
जेएनयू के छह माह ने हीं शमशेर सिंह बिष्ट को धर्म, जाति और क्षेत्रवाद से ऊपर उठकर एक मानवीय दृष्टि से चीजों को देखने समझने की दृष्टि दी। इस दृष्टि से न केवल शमशेर सिंह बिष्ट के सामाजिक संघर्ष को आसान किया बल्कि उन्हें संघर्ष के राष्ट्रीय फलक में स्थापित होने में भी सहायता प्रदान की।
आज शमशेर सिंह बिष्ट की पुण्यतिथि है। संघर्ष का इतिहास बहुत लंबा-चौडा है। उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि का यह ज्यादा बेहतर तरीका होगा कि 1974 से 2014 के कालखंड में प्रत्येक 10 वर्ष में सम्पन्न इन पांच “अस्कोट – आराकोट यात्रा ” अभियान के जमीनी अध्ययन का संकलन हो और समाज निर्माण में उनका उपयोग हो।
समाज निर्माण में यात्राओं का हमेशा महत्वपूर्ण स्थान रहा है यात्राएं न केवल भौगोलिक उद्घाटन करते हैं, बल्कि यात्राओं से व्यक्तित्व का निर्माण और दृष्टि का विस्तार भी होता रहा है।