रेवती बिष्ट
चाह नहीं, मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ।
चाह नहीं, प्रेमी-माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ॥
चाह नहीं, सम्राटों के शव पर, हे हरि, डाला जाऊँ।
चाह नहीं, देवों के सिर पर चढूँ, भाग्य पर इठलाऊँ॥
कवि माखन लाल चतुर्वेदी की इन सुंदर पंक्तियां में एक फूल की कामना व्यक्त की है कि उसकी इच्छा है कि वह किसी अन्य की शोभा ना बढ़ाकर उसे मार्ग पर पड़ा रहे जिस मार्ग से निछावर जिस मार्ग से मातृभूमि के लिए निछावर होने वाले वीरों के पद पड़ते हो, उन्हीं के कदमों से मैं कुचला जाऊं यह मुझे कामना है कि तुम उसी राह पर मुझे गिरा देना उन वीरों के पैरों तले पढ़ कर मेरा जीवन धन्य हो जाएगा. इन्हीं पलों से प्रेरित होकर एक फूल भी अपने वर्तमान को सजीव करना चाहता है निर्विकार भाव से फूल अपने को देश पर निछावर होने वालों को ही सौंपना चाहता है इस तरह एक साधारण निर्विकार व्यक्तित्व शंभु (शमशेर सिंह बिष्ट) कि भी कामनाएं यही रही कि अपने को संघर्षों की राह पर सौंपते हुए सादा जीवन उच्च विचार की परंपरा बनाए रखें. वह भी अनेक राजनीतिक प्रलोभनों के बावजूद अपने व्यक्तित्व को कायम रखते हुए हमेशा अडिग बने हुए संघर्षरत रहे.
विद्यार्थी जीवन में कठिनाइयों के रहते हुए भी अध्ययन की ओर एकाग्रता रखते हुए बढ़ते रहे.कुछ घटनाओं से व्यवधान पड़ते हुए भी उनका सामना करते हुए दृढ़ता से कार्य करते रहे. दादाजी भी इनके फौजी जीवन में रहते हुए देश की सेवा करते रहे थे। इनके पिताजी भी सरकारी सेवाओं में शहर में ही रहते थे पर उन्होंने गांव से भी लगाव रखते हुए अपनी माटी की यादों में सामाजिक रिश्ते निभाते रहे. इनकी माता जी ने भी इनके जीवन को खूब संवारा। माताजी से इनका संघर्षों में दृष्टिकोण भी हमेशा मिलता रहा। शहर के वातावरण के बावजूद अपने गांव, जायदाद व माटी से प्यार करते रहे। गांव के लोग भी इनका बहुत सत्कार करते थे। इन्हें अपने गांव की जन्मभूमि से लगाव हुआ। इनकी हमेशा यही कामना रही कि वहां की भी सेवा करते रहे. गांव में भी बड़ा सम्मान मिलता और सभी बड़े प्रेम से इन्हें बुलाते रहते। इन्हें भी गांव के प्रति बड़ी कामनाएं रहती थी इसलिए गांव का भ्रमण भी करते रहते थे. पुश्तों से अल्मोड़ा में रहते हुए भी अपने गांव के लोगों के प्रति बहुत प्यार व आदर रखते और सभी का सम्मान करते रहे.अल्मोड़ा में बचपन के दोस्तों के साथ खेलते हुए बड़े हुए पर बड़े होते-होते स्वभाव में बदलाव आता गया। गुस्सा आना भी कम होता गया, विचारों में परिवर्तन होते गया, अच्छे मित्रों के साथ पढ़ाई की और कॉलेज में छात्र संघ के चुनाव में भी अध्यक्ष पद पर रिकार्ड मतों से जीत हासिल की।
चुनाव के जुलूस में शिव जी के बहुत बड़े पोस्टर के साथ लोगों की अथाह भीड़ रही. वैसी जीत फिर किसी की नहीं हो सकी. इनका छात्र संघ भी लड़कियों का सम्मान करते हुए सभी के हितों का ध्यान रखता था। लड़कियों व बहनों की इज्जत करते हुए इन्होंने एक लड़के को थप्पड़ भी जड़ दिया था, बाद में उसे महसूस भी करा दिया कि मां बहनों की सम्मान करना सीखो. कॉलेज का कोई भी कार्यक्रम हो स्वयं भी अनुशासन कायम रखते और दूसरों को भी अनुसरण करवाते. छात्र संघ का भी कॉलेज में बहुत बड़ा आदर रहता था. किसी भी पार्टी का कोई दखल नहीं होता था. इनको कॉलेज के आंदोलन में भी बहुत दिन जेल में बंद रहना पड़ा. स्टार पेपर मिल के खिलाफ भी लड़ते रहे. वन बचाओ आंदोलन, चिपको आंदोलन, नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन में भी पूरे परिवार के साथ भागीदारी की और जो भी आंदोलनकारी लोग आते उन सभी के रहने-खाने की व्यवस्था इनके घर पर ही होती थी. इनको परिवार के सभी लोगों का सहयोग रहता था. परिवार के साथ ही रहने की सब व्यवस्था भी हो जाती थी. जुलूस में बच्चे जवान बूढ़े सभी भागीदारी करते थे. कई लोगों को उनके साथ जेल में डाल दिया गया था. उत्तराखंड आंदोलन में भी इनके साथी और परिवार के सदस्य शामिल हुए.
इन्होंने कई लोगों के साथ खूब पैदल यात्राओं में भी भाग लिया. लोगों से मिलते हुए दूर-दूर गांव की यात्रा का अनुभव बटोरते हुए जाते रहे. स्वामी अग्निवेश के साथ भी पैदल यात्राओं में भागीदारी करते रहे. नदी बचाओ यात्रा में उनके साथ राधा बहन आदि महिलाओं की अहम भूमिका रही तथा महिलाएं भी आगे आने लगी. इनके साथ यात्राओं में सभी के संगठित रहने की संभावना रहती थी. यह लोग आगे भी साथ चलते रहे. सबसे प्रमुख यात्रा 1974 में असकोट से आराकोट तक की थी. जिसमें प्रमुख चार छात्रों ने भागीदारी की थी. गढ़वाल से प्रताप शिखर, कुंवर प्रसून व कुमाऊं से शेखर पाठक और शमशेर सिंह बिष्ट. इस पैदल यात्रा में अपने पास एक भी पैसा न रखकर अपना पिठ्ठू लाद कर पैदल ही गांव-गांव के लोगों से संपर्क करते हुए उन्हीं के साथ निवास व भोजन की व्यवस्था करनी होती. लोगों की घरों में निवास करते हुए यात्रा पूरी करनी थी. इस यात्रा की पुनरावृत्ति फिर से इस वर्ष की गई जो कि हर 10 साल के अंतराल में रखी जाती है. 10 साल के अंतराल पर इस वर्ष की यात्रा में अन्य लोगों के साथ शेखर पाठक भी शामिल रहे. शंभू विभिन्न संगठनों के साथ भी यात्रा करते रहे. रायपुर व दक्षिण भारत के वनों के अध्ययन हेतु भी गए. अकेले ही जंगलों की यात्रा करते रहे.
उत्तराखंड में भी व्यक्तिगत और संगठनों के साथ बहुत यात्राओं को संपन्न करते रहे.गिर्दा, शेखर, राजीव, चंडी प्रसाद भट्ट व अन्य साथियों के साथ भ्रमण करते हुए आपदा ग्रस्त भूस्खलनों व गंगनानी आपदा, तवाघाट भूस्खलन आदि की यात्राओं द्वारा लोगों को संगठित कर सहयोग करते रहे. सुंदरलाल बहुगुणा जी के टिहरी बांध के विरोध में भी शामिल रहते हुए वहां के भ्रमण में रहे. लोक वाहिनी संगठन व व्यक्तिगत स्तर पर भी बांधों का विरोध करते हुए जुलूस निकालते हुए उत्तराखंड की जनता को जागरुक करते हुए प्रयत्नशील रहे.
उत्तराखंड राज्य हेतु जनता के साथ भागीदारी में संगठित रहते हुए संघर्ष करते रहे. राज्य तो मिला पर सपनों के उत्तराखंड की कामना ही रह गई, जिसमें भ्रष्टाचार व बेईमान न हो. ऐसा राज्य उनकी कल्पना ही रह गया. भ्रष्टाचार पूरी तरह समाप्त न हो सका. शहीदों की कुर्बानी और उनकी तमन्नाओं का उत्तराखंड उन्हें नहीं मिल सका. संघर्षरथ जीवन अपने समाज के लिए समर्पित करते हुए अभावग्रस्त लोगों की भलाई करते हुए और उनके उपचार हेतु अपना पूरा जीवन संघर्षरत रखते हुए अपने को सभी के लिए समर्पण करते हुए ऐसे विचारों व भावनाओं को हम नमन करते हैं. उनके कठिन संघर्षों को समाज के उत्थान हेतु अनुसरण करते हुए उनके सपनों के उत्तराखंड के प्रति अपनी संवेदनाओं के साथ अपनी भावनाएं समर्पित करते हैं.