जयसिंह रावत
विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत की शासन व्यवस्था को चलाने वाला संविधान अपने आकार और प्रकार में भी सबसे खास और विशाल है। यह लचीला भी है तो कठोर भी है। लचीलेपन का उदाहरण 1950 से लेकर अब तक इसमें 106 संशोधन होना है। जबकि इसकी कठोरता का उदाहरण यह कि इसमें समय के साथ संशोधन तो किए जा सकते हैं मगर इसकी सार्वभौम, धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी गणतंत्र की मूल भावना नहीं बदली जा सकती।
अब तक की सबसे बड़ी सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ 1973 में केशवानन्द भारती बनाम केरल सरकार के फैसले में स्पष्ट कर चुकी है कि भारत की संसद को संविधान संशोधन के व्यापक अधिकार तो हैं मगर असीमित नहीं हैं और वह भी संविधान की मूल भावना को नहीं बदल सकती। मतलब यह कि संसद सर्वोच्च कानून निर्मात्री होने के बावजूद संविधान के तहत ही है।
हमारे संविधान में विविधता और धर्मनिरपेक्षता का सम्मान किया गया है। मौलिक अधिकार, नीति निर्देशक सिद्धांत और सामाजिक न्याय के प्रावधान इसे अद्वितीय बनाते हैं। यह विभिन्न संविधानों से प्रेरणा लेकर भारत की आवश्यकताओं के अनुसार ढाला गया है। अपनी संशोधन क्षमता और सार्वभौमिक मताधिकार की दृष्टि से यह लोकतंत्र की मिसाल है
भारतीय संविधान को अपनी व्यापकता, समावेशिता और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के कारण विश्व में विशेष और अनोखा माना जाता है। भारतीय संविधान विश्व का सबसे लंबा लिखित संविधान है। प्रारंभ में इसमें 395 अनुच्छेद थे (अब 470 से अधिक), जिन्हें 25 भागों और 12 अनुसूचियों में विभाजित किया गया। यह शासन, नागरिक अधिकार, नीति निर्देशक सिद्धांत, संघीय ढांचे और प्रक्रियाओं को विस्तार से परिभाषित करता है, जिससे इसकी स्पष्टता और व्यापकता सुनिश्चित होती है।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 368 संविधान में संशोधन की प्रक्रिया को परिभाषित करता है। यह अनुच्छेद संसद को संविधान के विभिन्न प्रावधानों में संशोधन करने का अधिकार देता है, लेकिन कुछ शर्तों के साथ। इसका उद्देश्य संविधान को समय और परिस्थितियों के अनुसार लचीला और प्रासंगिक बनाए रखना है।
पिछले 74 सालों में इसमें 106 संशोधन हो चुके हैं। जो समय के साथ बदले परिवेश में शासन की आवश्यकतानुसार ढल सकता है। लचीलापन इसे समय के साथ बदलती परिस्थितियों के अनुसार अनुकूल बनाता है। इसमें कुछ प्रावधान साधारण बहुमत से भी बदले जा सकते हैं तो कुछ काफी कठिन प्रक्रिया से गुजरते हैं। यह कठोरता इसे स्थिर और मजबूत बनाती है।
संविधान में संघीय ढांचे में राज्यों और केंद्र के बीच संतुलन बनाए रखा गया है। संविधान ने मौलिक अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए अदालती समीक्षा की व्यवस्था दी है। इसमें आपातकालीन परिस्थितियों में केंद्र को अधिक शक्ति दी गई है। यह कठोरता और लचीलापन लोकतंत्र की रक्षा करता है। इस दृष्टिकोण से संविधान भारत की विविधता और बदलते समाज के लिए आदर्श बनता है।
हमारे संविधान निर्माताओं ने भारत की शासन व्यवस्था को विश्व में सर्वोत्तम बनाने के लिये विश्व की प्रमुख शासन व्यवस्थाओं को संचालित करने वाले बेहतर संविधानों के अच्छे-अच्छे गुण निकाल कर इसमें समाहित किये हें। जैसे संसदीय प्रणाली ब्रिटेन से ली गई है तो मजबूत केंद्र के साथ संघीय ढांचा कनाडा से लिया गया है। मौलिक अधिकारों की सोच अमेरिका के बिल ऑफ राइट्स से तो नीति निर्देशक सिद्धांत आयरलैंड से लिए गए हैं। इन प्रभावों के बावजूद, इसे भारतीय सामाजिक और सांस्कृतिक विविधता के अनुसार ढाला गया।
भारत विश्व का सबसे विविधतापूर्ण देश है, जिसमें भाषाई, सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक विविधता को समेटा गया है। भारतीय संविधान ने इस विविधता को संरक्षित करने और हर नागरिक को समानता का अधिकार देने के लिए कई प्रावधान किए हैं। संविधान के अनुसार, भारत में 22 मान्यता प्राप्त भाषाओं को 8वीं अनुसूची में स्थान दिया गया है। विभिन्न राज्यों को उनकी भाषाई और सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने का अधिकार दिया गया है। यह संघीय ढांचा सुनिश्चित करता है कि राज्यों को अपनी विशिष्टता का सम्मान करने की स्वतंत्रता मिले।संविधान ने भारत को एक ‘‘धर्मनिरपेक्ष’’ राज्य घोषित किया है।
संविधान में हर नागरिक को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है (अनुच्छेद 25-28)। धर्म के आधार पर भेदभाव निषिद्ध है, और यह सुनिश्चित किया गया है कि किसी व्यक्ति को अपने धर्म का पालन करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता हो।अल्पसंख्यकों के शैक्षिक और सांस्कृतिक अधिकारों की रक्षा के लिए अनुच्छेद 29 और 30 का प्रावधान किया गया है। सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18) दिया गया है। जाति, धर्म, लिंग, भाषा या जन्मस्थान के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव की सख्त मनाही है। संविधान यह सुनिश्चित करता है कि राज्य और धर्म अलग-अलग रहें।
भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार नागरिकों के स्वतंत्रता, समानता और गरिमा की गारंटी प्रदान करते हैं। ये अधिकार संविधान के भाग 3 में अनुच्छेद 12 से 35 तक विस्तृत हैं और लोकतंत्र का मूल आधार हैं। इनमें समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18) जाति, धर्म, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव को समाप्त करता है। स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22) नागरिकों को अभिव्यक्ति, आंदोलन, पेशा चुनने और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संरक्षण देता है। शोषण के खिलाफ अधिकार (अनुच्छेद 23-24) बंधुआ मजदूरी और बाल श्रम को प्रतिबंधित करता है।
धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28) सभी को अपने धर्म का पालन और प्रचार करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है। संस्कृति और शिक्षा के अधिकार (अनुच्छेद 29-30) अल्पसंख्यकों को अपनी सांस्कृतिक पहचान और शैक्षिक संस्थान स्थापित करने का अधिकार देते हैं। साथ ही संवैधानिक उपचार का अधिकार (अनुच्छेद 32) नागरिकों को उनके अधिकारों के हनन पर न्यायालय से सीधे अपील करने की अनुमति देता है।
राज्य के नीति निदेशक तत्व संविधान के भाग-4 (अनुच्छेद 36-51) में दिए गए हैं। ये तत्व राज्य को नीति निर्धारण और शासन संचालन में मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। हालांकि ये न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं हैं, लेकिन ये देश को सामाजिक और आर्थिक न्याय, समानता, और कल्याणकारी राज्य की दिशा में अग्रसर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इनमें समाज के कमजोर वर्गों के कल्याण, श्रमिकों के अधिकार, बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार, और आर्थिक समानता जैसे प्रावधान शामिल हैं। इनके अंतर्गत गांधीवादी विचारधारा (स्वराज, ग्राम विकास) और सामाजिक-आर्थिक प्रावधान (मजदूरों की सुरक्षा, समान वेतन) दोनों को शामिल किया गया है। ये तत्व सरकार को यह निर्देश देते हैं कि वे ऐसी नीतियां बनाएँ जो गरीबी उन्मूलन, शिक्षा, और सामाजिक न्याय को बढ़ावा दें, ताकि भारत एक समतावादी और कल्याणकारी राष्ट्र बने।
संविधान भारत का संघीय ढांचा मजबूत केंद्र के साथ राज्यों को स्वायत्तता प्रदान करता है। आपातकालीन परिस्थितियों में यह संघीय प्रणाली इकाईवादी बन जाती है, जो शासन में लचीलापन दिखाती है। हमारा संविधान न्यायपालिका को कानूनों की समीक्षा और उन्हें संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप बनाए रखने का अधिकार देता है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता लोकतंत्र और कानून के शासन को बनाए रखने में अहम भूमिका निभाती है। यह एक जीवंत दस्तावेज है। यह आवश्यकता पड़ने पर संवैधानिक उपचारों का अधिकार संसद को देता है। अनुच्छेद 32 को डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने संविधान का ‘‘हृदय और आत्मा’’ कहा। यह नागरिकों को मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए सीधे सर्वोच्च न्यायालय में जाने का अधिकार देता है।