भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के राष्ट्रीय प्रवक्ता और टीवी चैनलों की बहस में गरमागरम बात करने वाले सम्बित पात्रा ने सोमवार की सुबह एक ट्वीट किया. इस ट्वीट में अंग्रेजी का एक शब्द है. साथ में दो फोटो हैं.
नासिरूद्दीन, वरिष्ठ पत्रकार
क्या है ताज़ा ट्वीट:
अंग्रेजी के बड़े अक्षरों में लिखा शब्द है- संस्कृत. देहरादून स्टेशन को बताने वाले लगे दो अलग-अलग साइन बोर्ड की तस्वीरें हैं. पहले साइन बोर्ड में तीन भाषाओं में देहरादून लिखा है- हिन्दी, अंग्रेज़ी और उर्दू. दूसरे साइन बोर्ड में भी तीन भाषाएँ हैं लेकिन उर्दू नहीं है. उर्दू में देहरादून की जगह ‘देहरादूनम’ लिखा है. इसे संस्कृत बताया जा रहा है.
यानी इसके मुताबिक ‘उर्दू’ हटाकर ‘संस्कृत’ कर दिया गया है. संस्कृत ने उर्दू को दरकिनार कर दिया है.
अब कुछ सवाल हैं:
सवाल है, भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता इस ट्वीट के ज़रिये क्या बताना चाहते हैं? अगर थोड़ी देर के लिए मान भी लिया जाए ऐसा हो गया है तो इस तरह का ट्वीट कर वे किसे क्या संदेश देना चाहते हैं? क्या उर्दू और संस्कृत के बीच कोई संघर्ष चल रहा है? और उर्दू की जगह संस्कृत होने से वह संघर्ष किसी मुकाम पर पहुँच गया है? क्या इसके ज़रिये किसी समूह के बारे में भी कुछ इशारा करने की कोशिश है?
उर्दू बनाम संस्कृत: क्या था मामला
इसकी सचाई पड़ताल करने के दौरान इसी साल की पाँच महीने पहले यानी फरवरी की कुछ खबरें मिलती हैं. इन खबरों से पता चलता है कि कुछ लोग लगातार माँग कर रहे हैं कि उत्तराखण्ड के स्टेशनों से उर्दू
नाम हटाये जाएँ. उसकी जगह संस्कृत में नाम लिखा जाए. इनका कहना है कि उत्तराखण्ड में उर्दू से ज्यादा संस्कृत जानने-बोलने वाले लोग हैं.इसी बीच, देहरादून स्टेशन को सजाने सँवारने का काम चल रहा था. जब सज-सँवर कर स्टेशन खुला तो उसमें उर्दू की जगह ‘देहरादूनम’ लिखा था. बताया गया कि यही संस्कृत में देहरादून का नाम है. इस पर विवाद शुरू हो गया. खबरों के मुताबिक रेलवे ने सफाई दी कि उर्दू में स्टेशन का नाम हटाने कोई फैसला नहीं किया गया है. अभी उर्दू में नाम रहेगा. ज़रूरत हुई तो संस्कृत भी जोड़ा जायेगा. संस्कृत में नाम कैसे लिखे जायेंगे, इसके लिए अफसरों को लिखा जा रहा है. फिर ‘देहरादूनम’ की जगह उर्दू में ‘देहरादून’ लिखा गया. इस तरह की रिपोर्टें उस दौर की मुख्यधारा की मीडिया जैसे- अमर उजाला, दैनिक जागरण, हिन्दुस्तान, आजतक की वेबसाइट पर देखी जा सकती हैं.
देहरादून स्टेशन का मौजूदा हाल:
सम्बित पात्रा के ताज़ा ट्वीट के बाद सोमवार को देहरादून में रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार अविकल थपलियाल ने स्टेशन का मुआयना किया. उन्होंने पाया कि स्टेशन पर जगह-जगह तीन भाषाओं – हिन्दी, अंग्रेज़ी और उर्दू में देहरादून लिखे हैं. यानी साइन बोर्ड पर उर्दू अभी बची है.
एक सवाल तब और है. जो बात पाँच महीने पहले शुरू होकर ख़त्म हो चुकी है, उसे पाँच महीने बाद ट्वीट के ज़रिये शुरू करने की ज़रूरत क्यों पड़ी? क्या यह जानबूझ कर किया गया है? या ट्वीट करने वाले को ताज़ा हालत की जानकारी नहीं है?
क्या यह ट्वीट लोगों में भाषाई एकता बढ़ाने के लिए है? या भाषा के नाम पर लोगों को दो विरोधी खेमों में बाँटने और लड़ाने की कोशिश है?
भ्रम के जाल को पसंद करते लोग:
ऐसे ढेर सारे सवालों का जवाब तो उन्हीं के पास होगा, जो इस तरह का ट्वीट करते हैं और इस ट्वीट को पसंद और अपने दोस्तों की रीट्वीट कर रहे हैं. शाम छह बजे तक इस भ्रामक ट्वीट को 83 हज़ार से ज़्यादा लोग पसंद और 15 हज़ार से ज़्यादा लोग रीट्वीट कर चुके हैं.एक ने टिप्पणी की है, ‘उर्दू की गंदी भाषा को हर जगह से हटाओ, सर….जय श्रीराम’. एक और की अंग्रेजी में टिप्पणी है, ‘बहुत बढ़िया… उर्दू भारतीय भाषा नहीं है… बल्कि यह तुर्कों द्वारा लायी गयी थी, जिन्हें हम मुग़ल कहते हैं. … सरकार का बहुत अच्छा कदम है. सिर्फ तुष्टीकरण के लिए उर्दू जैसी गंदगी हम जारी नहीं रख सकते हैं.’
दूसरी ओर, एक शख्स ने अंग्रेज़ी में कमेंट किया है: ‘मैं ऐसे एक भी श़ख्स के बारे में जानकारी पाने के लिए मरी जा रही हूँ, जो संस्कृत तो पढ़ सकता है लेकिन हिन्दी नहीं.’
उत्तराखण्ड में उर्दू:
सन 2011 की जनगणना के मुताबिक, उत्तराखण्ड में 386 लोग हैं, जिन्होंने अपनी मातृभाषा संस्कृत बतायी है. इनमें 282 पुरुष और 104 स्त्री हैं. दूसरी ओर, उर्दू को मातृभाषा बताने वाले चार लाख 25 हजार 752 लोग हैं. इनमें दो लाख 24 हज़ार पुरुष और दो लाख्र एक हज़ार 505 स्त्री हैं.
पूरे देश में संस्कृत को मात़ृभाषा बताने वाले 24 हजार 821 लोग हैं. इनमें 13 हज़ार 636 पुरुष हैं और 11 हज़ार 185 स्त्री. दूसरी ओर, उर्दू को मातृभाषा बताने वाले वाले 5 करोड़ 7 लाख 72 हजार 631 लोग हैं. इनमें दो करोड़ 61 लाख 80 हजार 481 पुरुष और दो करोड़ 45 लाख 92 हज़ार 150 स्त्री हैं.
समझने की बात है कि उर्दू और संस्कृत एक दूसरे की विरोधी भाषा नहीं हैं. दोनों विदेशी भाषा नहीं हैं. दोनों भारतीय भाषा हैं. इनकी जड़ें यहाँ की परम्परा और संस्कृति में हैं. भाषा किसी मज़हब का नहीं होता है. इसलिए दोनों किसी धर्म विशेष की भाषा भी नहीं हैं. हालाँकि चालाकी से किये गये ट्वीट के ज़रिये शायद यही सब बताने की कोशिश् है.
सवाल है, हम तर्क, सत्य, तथ्य पर भरोसा करेंगे या सुनी-सुनायी पर?
‘ अविकल उत्तराखंड’ से साभार