विवेकानन्द माथने
आज पूरे देश में, पूरे विश्व में अनेक आंदोलन हो रहे है। सब यह मानते है कि आज जो कुछ चल रहा है वह ठीक नही है, उसमें अनेक दोष है। इसलिये पर्यावरण संरक्षण, मानवीय हितों का संरक्षण, चारित्र्य निर्माण आदि के लिये वे प्रयासरत है। इन सारे प्रयासों को देखने के बाद पता चलता है कि आज की परिस्थिति के गुण दोषों की चर्चा छोडकर व्यक्ति और समाज निर्माण का चित्रण कही नही किया गया। जो हुआ वह विषय को खंडित करके हुआ है। समग्र समाज, सृष्टि को पूर्णता में देखकर प्रयास नही हुआ। इसलिये कई परिवर्तनकारी आंदोलन वैचारिक दृष्टि से एक दूसरे के विरोध में भी खडे है।
कोई निसर्ग संरक्षण के लिये आदिवासियों को उससे अलग करने की बात करते है, तो कोई आदिवासियों का हित प्रमुख मानते है। कोई नाभिकीय विस्फोटो का समर्थन करके राष्ट्रभक्ति करना चाहता है, तो कोई उसका विरोध करके विश्वभक्ति करना चाहता है। कोई समाज को जाति धर्म में बांटनेवाले और कालेधन के आधारपर खडे चुनावी लोकतंत्र का पक्षधर है, तो कोई सत्ता को अस्पृष्य मानकर परिवर्तन की आशा रखते हुये राजनीति से दूर खडे है। कोई हिंदू, मुसलमान, ईसाई कट्टरपंथी बनकर अपने ही धर्म के विचारों के विपरित आचार का आग्रह रखते है, उसके लिये हिंसक मार्ग अपनाते है, तो दूसरी तरफ कोई विश्व एकात्मता के लिये मन ही मन में सर्वधर्म समभाव जप करते है। कोई अपनी स्वतंत्र अस्मिता के लिये खंड खंड बंटना चाहते है, तो कोई विनाशकारी मुख्य प्रवाह में सबको एकत्र करना चाहते है।
यह सारे विवाद इसलिये है कि हमारे सामने, समाज के सामने, ध्येय का चिंतन नही हो पाया है। यदि ऐसा वैश्विक ध्येय निश्चित हो जाता है, तो कई समस्याओं का सरलीकरण हो सकता है और फिर उसे सुलझाना सरल हो सकता है। मात्र यह ध्येय किसी रचनात्मक समूह में निश्चित करने से कार्य पूर्ण नही होता। यह सारे समाज का ध्येय बनकर प्रस्तुत होना चहिये। उसके लिये कुशलतापूर्वक प्रयास करने की जरुरत है। अगर ऐसा होता है तो उसके आधारपर हर व्यक्ति समूह अपनी समस्याओं का अंत स्वतंत्र प्रयास से कर सकता है।
यहां इसपर चर्चा से पहले कई संकल्पनाओं को समझना जरुरी है –
1. मानव समाज नित्य विकसित होता जा रहा है, समग्र विश्व राष्ट्रीय सीमाओं को लांघकर एकात्मता (समरसता) की ओर बढ रहा है।
2. वैविध्य के साथ व्यापकता में विलय (समरसता) आत्मा और प्रकृति का धर्म है।
3. आज की समस्याऐं वैश्विक रुप धारण कर चुकी है, इसलिये उसका हल भी वैश्विक चिंतन से ही अंकुरित होगा।
4. विज्ञान, सृष्टि और मनुष्य जाति के लिये वरदान साबित हो सकता है। मात्र वैज्ञानिक विकास की दिशा निर्धारण मानव, समाज और प्रकृति के बीच पारस्पारिक संबंधों को और सोहार्द बनाने की दिशा में होना चाहिये।
समूचे विश्व में जो परिवर्तनवादी विचार प्रवाह है, उनके बीच का संघर्ष और भेद, ध्येय के स्पष्टता के अभाव के ही कारण है। ध्येय की स्पष्टता का अर्थ, व्यक्ति और समाज को अंतत: क्या प्राप्त करना है, उसका आखरी मुकाम कौनसा है, यह स्पष्ट होना। एकबार यह तय हो जाये, सार्वजनिक हो जाये, तो व्यक्ति-व्यक्ति, समुह-समुह के बीच संघर्ष खत्म हो सकता है। और जैसे अपने सिर पर बर्तनों को एक के उपर एक रखकर सारा ध्यान संतुलन के लिये ही केंद्रित करते हुये ग्वालन जिस प्रकार चलना, बोलना, हसना… सारी बातें करती है, उसी प्रकार ध्येय घोषित होने से हमारा सारा कार्य उसके अनुरुप बनाने का प्रयास हो सकता है। उसी दिशा में हमारा विचार, चिंतन, मनन, कार्यक्रम और साधन निश्चित होने में मदद मिलती है।
इसके लिये कुछ उदाहरण दिये जा सकते है। आज भारतवर्ष में व्यापार व्यवस्था को लेकर दो प्रवाह कार्यरत है। एक, मुक्त व्यापार का समर्थन करने वाले और दूसरे, विरोध करनेवाले। यहां मुक्त अर्थ व्यवस्था का सीधा अर्थ है कि आज तक जो व्यवस्था किसी एक राष्ट्र की थी, अब वह अंतर्राष्ट्रीय होने जा रही है। अब व्यापार और उद्योग का नियंत्रण एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था द्वारा किया जायेगा। सभी देशों को विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू.टी.ओ.) के निर्देशानुसार अपनी व्यापार और उद्योग नीति में बदलाव लाना होगा, उसके अनुरुप नियम बनाने होंगे और उनका संरक्षण करना होगा। व्यापार और उद्योग के क्षेत्र में राष्ट्र का नियंत्रण, सीमा की बाध्यता से मुक्त व्यवस्था का ही नाम मुक्त अर्थ व्यवस्था है।
जो इसका समर्थन करते है, उन्हे अंतर्राष्ट्रीय पूंजीवाद मान्य है और जो विरोध करते है वे स्वदेशी के नाम पर राष्ट्रीय पूंजीवादी व्यवस्था को ही मान्य करते है। व्यवस्था में बदलाव की बात दोनों ही नही करते, जो राष्ट्रीय पूंजीवाद की मांग कर रहे है, वे मात्र स्वदेशी और विदेशी कंपनियों में ही भेद करना चाहते है। कंपनि व्यवस्था की मुनाफाखोरी और लूट में नही। जब कि विकल्प, स्वदेशी के विचार को अपनाना है। स्वदेशी, राष्ट्रीय पूंजीवाद से एकदम भिन्न वस्तु है। वह इसके विकल्प के रुप में खडे सर्वोदय दर्शन का अंग है।
पूंजीवादी व्यवस्था की मूल संकल्पना ही यह है कि कुछ लोगों के सर्वोच्च हित को देखकर कार्य करना और हो सके तो साथ साथ अन्य लोगों की आवश्यकता पूर्ति का प्रयास करना। स्पष्ट है कि पूंजीवादी व्यवस्था में सबका भला नही हो सकता। इसमें सबके अंत:स्थल में विराजमान ईश्वरीय तत्व और मानवीय गुनों का कोई स्थान नही है।
इसी प्रकार सांप्रदायिकता, आरक्षण, नाभिकीय विस्फोट आदि के कार्यक्रम चल रहे है, यह सभी प्रतिक्रियात्मक और भावना के आधारपर खडे किये पक्ष है। इन्हे ध्येय के साथ जोडा जाता, उसके आधारपर इनका मूल्यमापन किया जाता, तो आज की परिस्थिती में भी सत्याग्रह के नये, प्रभावी और सार्थक मार्ग मिल चुके होते। लेकिन अधिकांश आंदोलनों के उद्देश नकारात्मक बन चुके है। दुनिया तेजी से आगे बढती जा रही है, उसमें यह दोषपूर्ण है, यह मानवीय समाज के हितविरोधी है, यह कहा जा रहा है।लेकिन उसे नकारने के लिये क्या कार्यक्रम हो सकते है? उसका स्पष्ट दर्शन सामने नही है।
क्योंकि साध्य निश्चित करने का, उसके अनुरुप कार्यक्रम बनाने का और समग्र क्रियाकलापों को उस ओर बढाने का हमने प्रयास ही नही किया। इसलिये आंदोलनों की आवाज बचाओ – बचाओ की क्षीण ध्वनि मात्र बनकर रह गयी है। आज जो चल रहा है वह सामाजिक, आर्थिक व्यवस्था के दोषों के दु:खद परिणामों की प्रतिक्रिया मात्र है। यह एक संवेदनशील मन का, शुद्ध सात्विक मन का प्रतिबिंब होते हुये भी, स्पष्ट दर्शन के अभाव में योग्य मार्ग मिलना कठिण है। जिस मार्ग से ध्येय प्राप्ति होगी, उसी का सामर्थ्य और शक्ति बढाना, उसके लिये बुद्धि और युक्ति का उपयोग करना आवश्यक हो जाता है।
गांधीजी ने अपने जीवन में स्पष्ट उद्देश सामने रखते हुये तत्कालीन परिस्थितिनुरुप राजनैतिक गुलामी का विरोध किया और फलस्वरुप राष्ट्रने राजनैतिक स्वातंत्र प्राप्त किया। अब वैश्विक गुलामी का दुश्चक्र गतिमान हुआ है, उससे मुक्त होकर संपूर्ण व्यवस्था को व्यक्ति, समाज और प्रकृति के बीच सहचर्य निर्माण करते हुये आर्थिक, सामाजिक और मानसिक साम्य प्रदान करना है। इसी लक्ष के अनुरुप नयी व्यवस्था की खोज करने की जरुरत है।
क्योंकि विश्व के प्रत्येक गांव, नैसर्गिक और मानवीय संसाधन एवं मानवीय गुण विशेषताओं का नियंत्रण अंतर्राष्ट्रीय संस्था करने का केंद्रित प्रयास श्रमजीवी समाज को शोषण, लूट, सामाजिक कलह और मानसिक उत्पीड़न के सिवाय कुछ नही दे सकता। व्यक्ति और समाज आर्थिक और सामजिक साम्य के दृष्टिसे पूर्णता की ओर अग्रेसर हो, प्रत्येक व्यक्ति, परिवार, गांव परिपुष्ट हो यही हमारी अभिलाषा होनी चाहिये।
विनोबाजी के अनुसार हमारा ध्येय है, ‘परम साम्य’, ‘अभिध्येयं परम साम्यम्’। ‘आर्थिक, सामाजिक और मानसिक साम्य को प्राप्त करते करते परम साम्य को प्राप्त करना व्यक्ति और समाज का ध्येय है।’
आर्थिक साम्य – जो हरेक व्यवहार में मददगार होता है।
सामाजिक साम्य – जिसके आधारपर समाज में व्यवस्था रहती है।
मानसिक साम्य – जिससे मनुष्य के मन का नियंत्रण होता है।
उपरोक्त संकल्पनाओं को वर्तमान संदर्भ में परिभाषित करने के लिये व्यापक और गहरे संवाद की आवश्यकता है। इसके आरंभ के लिये निम्न लिखित व्याख्या प्रस्तुत है।
आर्थिक साम्य – मां अपने छोटे बडे बच्चों को उनकी आवश्यकतानुसार प्रेमभाव से आग्रहपूर्वक खिलाती है, जिसकी जो आवश्यकता है, वह उसे प्राप्त कर संतुष्ट हो जाता है। जिससे हरेक की जरुरत पूरी होती है वह आर्थिक साम्य यहां अपेक्षित है। छोटे बच्चों की खाने पीने के साथ साथ पढाई लिखाई की या अन्य जरुरतें पूरी करना, बडे बच्चों को स्वावलंबी बनाने के लिये उनकी आवश्यकताऐं पूरी करना, यह जो पारिवारिक प्रेम से उत्पन्न विचार है। उसका व्यापक दर्शन समाज में होना ही आर्थिक साम्य है।
हर व्यक्ति के पास उत्पादन के साधन एकसमान हो, वे एक सा ही काम करते रहे, यह इसमें अपेक्षित नही है या ऐसे ही स्थुल साम्य भी अपेक्षित नही। हर व्यक्ति को अन्न, वस्त्र, निवारा, शुद्ध पानी और हवा की पूर्ति सहजता से हो मात्र यही मनुष्य जीवन की भूख नही है। बल्कि जीवन के साफल्य की दृष्टि से उसे अपने गुणात्मक विकास के लिये, आत्मिक विकास के लिये आंतरिक प्रेरणा होती है। ऐसे गुणात्मक विकास के लिये, आत्मिक विकास के लिये आवश्यक आर्थिक समृद्धि उसे प्रदान करनेवाली आर्थिक व्यवस्था, आर्थिक साम्य अपेक्षित है।
जिस देश में 30 प्रतिशत से ज्यादा लोग एक समय का भोजन और प्राथमिक आवश्यकताऐं भी प्राप्त नही कर सकते, उस देश में समता पर आधारित समाज निर्माण जिस भारतीय संविधान का लक्ष है, उसी देश के संवैधानिक प्रमुख राष्ट्रपति, कार्यकारी प्रमुख प्रधानमंत्री और अन्य मंत्रियों को नगद और सुविधाऐं मिलाकर एक लाख रुपये से अधिक, गरीबी रेखा से नीचे गुजर बसर करनेवाले व्यक्ति की आय की अपेक्षा 100 से 200 गुना अधिक प्राप्ति होती है। यह प्रचंड आर्थिक और सामाजिक खाई समाप्त करके हर व्यक्ति को नैसर्गिक और मानवी संसाधनों के आधारपर स्वावलंबन की ओर ले जानेवाली व्यवस्था परम साम्य प्राप्त करने का मार्ग बनेगी।
व्यावहारिक रुपमें इसका विचार किया जाये, तो सबको एक निश्चित रक्कम समान रुप से मिलने की यह बात नही है। सर्वप्रथम सबका अभाव दूर होकर कम से कम और अधिक से अधिक आय की मर्यादा निश्चित करना, उसके लिये साधन और उससे प्राप्त उत्पादन का न्यायिक वितरण करने से आर्थिक साम्य स्थापीत होगा। विषमता की बढती गती को देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि आज की व्यवस्था की भीतर आर्थिक और सामाजिक साम्य पर आधारित व्यवस्था कदापि संभव नही। जब हम आर्थिक साम्य की बात करते है, तब विषमता का पोषण करनेवाली व्यवस्था को तोडना जरुरी हो जाता है और इसलिये उसके आधारपर प्रहार करना भी जरुरी हो जाता है।
विषमता के पोषण के अनेक कारण हो सकते है। उनमें मुख्यत: बैंक, शेअर बाजार आदि बिना श्रम के पैसों पर पैसा खडी करनेवाली व्यवस्था अमान्य करने की आवश्यकता है। जमीन, पानी, खनिज, जंगल आदि नैसर्गिक संसाधनों और मानवीय गुणविशेषताओं और कौशल का उपयोग सबके लिये होना जरुरी है। पूंजीवादी व्यवस्था में आर्थिक साम्य लाना कदापि संभव नही।
सामाजिक साम्य – हजारों सालों के मानव जाति के इतिहास में अनेक प्रयोग हुये। जिससे सामाजिक व्यवस्था को स्थाई रुप देने की कोशिश हुयी। आज समाज में कई समस्याऐं दिखाई देती है – जातीयता, सांप्रदायिकता, अस्पृश्यता, कौटूंबिक व्यवस्था का विघटन, श्रम प्रतिष्ठा का अभाव, भोग लोलुपता की दिशा में चल रही वैज्ञानिक खोजों के कारण निर्मित समस्याऐं, नशाखोरी, भूतदया का अभाव, भ्रष्टाचार, दहेजप्रथा…..आदि। इनके कारण भिन्न भिन्न हो सकते है, लेकिन यह सब सामाजिक व्यवस्था को बिगाडने का काम करते है। इन्हे दूर करना आवश्यक है। विभिन्न कार्य करनेवाले लोगों का सामाजिक मूल्य समान है इस मानवीय विचार को प्रतिष्ठित करना, सामाजिक साम्य में अंतर्निहित है।
‘प्राणी मात्र में ईश्वर का अंश है’ यह सत्य मनुष्य के दूराभाव को दूर करता है। इससे व्यक्तिगत अन्याय के प्रति सहिष्णु और सामाजिक अन्याय के प्रति सत्याग्रही बनने का रास्ता उसके सामने खुल जाता है। इसी मार्ग से समाज में प्रेम, सद्भाव का वातावरण निर्मित हो सकता है।
मानसिक साम्य – आर्थिक और सामाजिक साम्य लाने के लिये मानसिक साम्य आवश्यक है, मन का नियंत्रण जिसमें अपेक्षित है। उस मानसिक साम्य के आधारपर सत्य और असत्य का विवेक रखना संभव है। मन पर होनेवाले आघात या क्रिया के फलस्वरुप जवाब में प्रतिघात या प्रतिक्रिया बाहर आती है, जो कि विचार से उत्पन्न प्रतिक्रिया कृति में परिवर्तित होती है। इसलिये ऐसी प्रतिक्रिया को संयमित और संतुलित बनाने के लिये मन को नियंत्रित करना मानसिक साम्य के आधार पर ही संभव है।
आज की परिस्थिति में मनुष्य की चिंता और सारे कार्यकलाप भौतिक और भोगपूर्ण जीवन की प्राप्ति में आयी असुरक्षा की भावना के कारण है। ‘भौतिक जीवन ही सच्चा जीवन है’ यह मानकर भौतिक सुख प्राप्ति के लिये भागदौड शुरु है। उसके लिये मनको स्पर्धा में लगा दिया गया है। कामनापूर्ति के लिये आंतरिक आवाज को कैद कर दिया जाता है।
व्यापक जनहित सर्वव्यापी प्रेम से ही संभव है और सर्वव्यापी प्रेम यह मन की उच्च अवस्था है। जिसमें हिंसा का कोई स्थान नही है। मां जिस प्रकारसे बच्चों के कल्याण का विचार करती है, आवश्यकता पडनेपर उसके हित के लिये दंड देने का भी अधिकार रखती है, इसी प्रकार हमारी हरेक कृति प्रेम और सबके कल्याण के लिये होनी आवश्यक है।
आर्थिक साम्य, सामाजिक साम्य या मानसिक साम्य स्वतंत्र रुप में नही लागू किये जा सकते, यह सभी साथ साथ चलनेवाली प्रक्रिया है और परम साम्य को प्राप्त करने के लिये आर्थिक, सामाजिक और मानसिक साम्य का होना परम आवश्यक है। समाज को परम साम्य की दिशा में किये गये प्रयास चाहिये, उद्देशहिन पागल दौड नही।