गोविन्द पंत राजू
चमोली में ऋषि गंगा त्रासदी की शाम देश के सबसे तेज कहे जाने वाले खबरिया चैनल पर एक्सक्लूसिव बात करते हुए उत्तराखंड के मुख्यमंत्री को देश में बहुत लोगों ने सुना होगा। मुख्य मंत्री ने सबसे पहले चैनल का हार्दिक आभार व्यक्त किया कि चैनल ने अफवाहों को रोकने में बहुत बड़ी भूमिका अदा की। इसके बाद उन्होंने बताया कि आपदा के कारण ऋषि गंगा पावर प्रोजेक्ट पूरी तरह से तबाह हो गया और इसके कारण डेवलपर को बहुत क्षति हुई है। मुख्यमंत्री जनहानि पर और स्थानीय समाज को हुई क्षति पर तो दुःख प्रकट करना भूल गए मगर पावर प्रोजेक्ट के मालिकों के लिए उनकी संवेदनाएं भरपूर प्रकट हो रही थीं। फिर सड़कों के नुक्सान के सवाल में उन्होंने बताया कि सड़कों का ज्यादा नुक्सान नहीं हुआ है बस एक पुल टूटा है जिसे हमारी पी डब्ल्यू डी जल्द बना देगी और इस बारे में सेना से भी बात हो गयी है। मुख्यमंत्री शायद आपदा के सदमे में यह भूल गए थे कि उत्तराखंड राज्य के जन्म से भी पहले से उस सीमावर्ती इलाके में सड़कों की सारी जिम्मेदारी बार्डर रोड ऑर्गनाइजेशन संभालता है उनकी पी डब्ल्यू डी नहीं।मुख्य मंत्री ने एक ट्वीट के जरिये यह भी साफ़ जता दिया कि वो कहाँ खड़े हैं। उन्होंने अपने ट्वीट में कहा है कि ”मेरा आप सभी से अनुरोध है कि इस हादसे को विकास के खिलाफ प्रॉपेगैंडा न बनायें । ” इस मीन मेख को अन्यथा न लिया जाय यह तो सिर्फ यह दिखाती है कि हमारे राजनेताओं की जानकारियों और संवेदनाओं की दिशा और स्तर कैसा है। त्रिवेन्द्र सिंह अपवाद नहीं हैं और उत्तराखंड की भू भौतिकी तथा भूगर्भीय मिजाज को ताक पर रख कर किया जाने वाला हर तथाकथित विकास कार्य हमारे ऐसे ही राजनेताओं की ‘सोच ‘की देन है । उत्तराखंड का जल प्रबंधन और जल विद्युत परियोजनाएं हमेशा से ही सवालों के घेरे में रहीं हैं। उच्च हिमालयी क्षेत्र में नदियों पर बनी या बन रही तमाम परियोजनाओं में पारिस्थितिकी और पर्यावरण की अनदेखी की जाती रही है यह भी किसी से छिपा नहीं है। ऋषि गंगा आपदा के बाद यह सवाल एक बार फिर से उठ रहा है कि इसका जिम्मेदार कौन है ? तबाही का तात्कालिक कारण शुरू में ऋषि गंगा के ऊपरी क्षेत्र में किसी ग्लेशियर के फटने या किसी अस्थाई झील के फटने को माना जा रहा था लेकिन अब विशेषज्ञों का मानना है कि ये दोनों ही संभावनाएं गलत हैं। फिजिकल रिसर्च लेबोरेट्री अहमदाबाद के पूर्व वैज्ञानिक और हिमालयन जियोलॉजी के विशेषज्ञ डा. नवीन जुयाल जो कि 6 फरवरी तक एक अध्ययन के लिए रैणी के इलाके में ही थे बताते हैं कि, ”6 तारीख तक ऋषि गंगा के डिस्चार्ज में कोई कमी नहीं थी। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि उस समय ऊपर कोई अस्थाई झील बनी हो ” इस बात की पुष्टि देहरादून के अंतरिक्ष उपयोग केंद्र के निदेशक एम॰ पी ॰एस॰ बिष्ट भी करते हैं। बिष्ट के मुताबिक ,”सैटेलाइट से मिले आंकड़ों व चित्रों में 30 जनवरी तक ऋषि गंगा के जल ग्रहण क्षेत्र में किसी झील के बनने का कोई संकेत नहीं था। नवीन की टीम अभी भी ऋषि गंगा के जल ग्रहण क्षेत्र में तबाही के तात्कालिक कारणों की जाँच में जुटी है। नवीन मानते हैं कि ऋषिगंगा तबाही की वजह त्रिशूल पर्वत के त्रिशूली ग्लेशियर में हुआ मैल्ट आउट हो सकता है । सैटेलाइट आंकड़ों से इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि त्रिशूली ग्लेशियर में इस तरह की गतिविधियां पहले भी होती रहीं हैं। इस इलाके में 5 फरवरी तक भारी हिमपात हुआ था। 6 फरवरी को तेज धूप निकलने से गर्मी बहुत बढ़ गयी। सम्भवतः 7 फरवरी को भी ऊपरी इलाके में धूप तेज रही होगी। क्योंकि ऋषिगंगा के जल ग्रहण क्षेत्र में 5 -6 हजार मीटर से ऊँची कई चोटियां हैं इस कारण उन सभी में सूर्योदय सुबह काफी पहले हो जाता है। अतः यह संभव है कि सुबह सुबह की धूप ने मैल्ट आउट की प्रक्रिया को तेज कर दिया हो और ताजा गिरी बर्फ ने इसे विस्फोटक रूप दे दिया हो और अन्ततः यह ही आपदा का कारण बना हो। हादसे का वक्त यानि सुबह साढ़े नौ बजे का समय भी कुछ इसी तरह के संकेत दे रहा है। जुयाल बताते हैं कि ग्लेशियल क्षेत्र में स्लोप का एक्टिवेशन रेन फॉल से नहीं होता। स्लोप का एक्टिवेशन मेल्टिंग और आइस से होता है। और यह ग्लोबल वार्मिंग का एक इम्पेक्ट है।
जुयाल के मुताबिक़ यह एक लोकल फिनोमिना लगता है लेकिन इसका इम्पलीकेशन बहुत सीवियर है। यह घटनाएं अब बढ़ने ही वाली हैं ,कम होने वाली नहीं। इस बात को ध्यान में रखते हुए यहाँ पर कोई भी डेवलपमेंटल एक्टिविटी होती है तो आप ये मान कर मत चलिए कि यहां पर कुछ नहीं होगा।
उत्तराखंड हिमालय क्षेत्र में बांधों के निर्माण के विरुद्ध लड़ाई लगभग सत्तर साल से चल रही है। टिहरी बाँध पर विरोध की आवाज को कुचलने के लिए सरकारी स्तर पर हर संभव हथकंडे अपनाये गए। हिमालय की भूगर्भीय संवेदनशीलता और अस्थिरता को लेकर विशेषज्ञों की हर चेतावनी को अनसुना किया गया और यह सिलसिला आज तक भी बदस्तूर जारी है। 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद मन्दाकिनी घाटी में कई जल विद्युत् परियोजनाओं की जो दुर्गति हुई थी उसके बाद सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर जाने माने पर्यावरण विशेषज्ञ डा. रवि चोपड़ा की अध्यक्षता में बनी उच्चाधिकार प्राप्त समिति ने 2014 में अपनी सिफारिशों में साफ़ साफ़ कहा था कि उत्तराखंड हिमालयी क्षेत्र में समुद्र सतह से 2000 मीटर से ऊपर के पैराग्लेशियल क्षेत्र में किसी भी प्रकार की नदी परियोजनाओं को तत्काल बंद कर दिया जाना चाहिए। समिति ने इस उच्च हिमालयी इलाके की 24 में से 23 जलविद्युत परियोजनाओं को रद्द करने की सिफारिश की थी। लेकिन सब कुछ ठन्डे बस्ते में डाल दिया गया और हुआ वही जो सत्ता चाहती थी।
1974 में गौरा देवी और उनकी महिला सहयोगियों ने जिस रैणी गाँव से वन चेतना का चिपको रूपी जो अनूठा बिगुल फूंका था उसी रैणी गाँव में जब ऋषिगंगा परियोजना के लिए पेड़ों का सफाया किया जाने लगा तब स्थानीय जन प्रतिरोध को पूरी तरह अनसुना कर दिया गया। 2019 में रैणी के निवासियों के प्रतिनिधि के रूप में कुंदन सिंह ने एक जनहित याचिका उत्तराखंड हाईकोर्ट में दायर की थी। इस याचिका में नंदादेवी बायोस्फेयर रिजर्व में स्थित रैणी में सुरंग निर्माण के लिए पत्थर तोड़ने और डायनामाइट के अंधाधुंध इस्तेमाल पर आपत्ति जताई गयी थी। कोर्ट ने राज्य सरकार को एक समिति बना कर जांच करने और अगले आदेश तक पत्थर तोड़ने पर रोक लगा दी थी। लेकिन इसके बाद यह मामला भी ठन्डे बस्ते में चला गया। यह भी हैरान करने वाली बात है कि जल विद्युत् परियोजना के लिए जिस ऋषि गंगा नदी को चुना गया वह हिमालयी क्षेत्र की सबसे तीव्र ढलान वाली और सबसे तेज बहाव वाली नदियों में से एक मानी जाती है। रैणी से करीब 5 किलोमीटर ऊपर इसमें मिलने वाली त्रिशूली गाड़ इसको और खतरनाक बनाती है। वाडिया इंस्टीटूट ऑफ हिमालियन जियोलॉजी के मुताबिक ऋषि गंगा के जल ग्रहण क्षेत्र में छोटे बड़े 25 से ज्यादा ग्लेशियर मौजूद हैं।
ऋषि गंगा , नंदा देवी शिखर समूह के इलाके के ग्लेशियरों के पानी का निकासी तंत्र है और नंदा देवी सेंचुरी से दुनिया के सबसे खतरनाक और अभेद्य ऋषि गॉर्ज के जरिये बाहरी दुनिया में अवतरित होती है । नंदा देवी सेंचुरी 19700 फिट से लेकर 24600 फिट तक ऊंचाई वाली चोटियों से घिरा हुआ है। इस इलाके की जैव विविधता और वन्यता को संरक्षित रखने के लिए 1982 में नंदा देवी नैशनल पार्क की स्थापना हुई थी। 1988 में इसे यूनेस्को वर्ल्ड हैरिटेज साईट घोषित किया गया और 2005 से इसे विस्तार देकर नंदा देवी एंड वैली आफ फ्लावर्स नैशनल पार्क बना दिया गया। एक ओर नंदा देवी सेंचुरी क्षेत्र में आज भी मानव प्रवेश प्रतिबंधित है मगर दूसरी ओर ऋषि गंगा जैसी अति संवेदनशील नदी में सारे नियम कानूनों को ताक पर रख कर जल विद्युत् परियोजना को मंजूरी दी गई। हालांकि ऋषिगंगा परियोजना को शुरू से ही प्रकृति की चेतावनियां मिलती रहीं। इस परियोजना को 2016 में आयी बाढ़ के कारण भी बहुत क्षति हुई थी और इस पर काम कर रही लुधियाना की ऋषिगंगा पावर कम्पनी उस समय दिवालिया हो गयी थी। 2018 में यह प्रोजेक्ट कुंदन ग्रुप को मिल गया कुछ महीने पहले ही इस 13 . 22 मेगावाट की परियोजना से उत्पादन शुरू हुआ था और अब तो सब कुछ ही ख़त्म हो चुका है,लेकिन लगता नहीं है कि हमारे नीति नियंता इससे भी कोई सबक सीख सकेंगे। थोड़ी देर के लिए मान भी लें कि हमारे तथाकथित विकास से प्रकृति और पर्यावरण को रत्ती भर भी नुक्सान नहीं होता। फिर भी हालिया इतिहास को तो हम झुठला नहीं सकते। 1978 की उत्तरकाशी बाढ़ ,फिर तवाघाट हादसा ,कर्मी हादसा,1991 का उत्तरकाशी भूकंप ,1998 की मालपा त्रासदी और उखीमठ आपदा , 1999 का चमोली भूकंप ,2013 की केदारनाथ त्रासदी 2017 का मालपा हादसा और 2021 की ऋषिगंगा -धौलीगंगा तबाही जैसी आपदाएं हक़ीक़त हैं और इनके लिए कारण चाहे जो भी गिनाये जाएँ इतना तो माना ही जा सकता है कि यह सारी घटनाएं हमारे उच्च हिमालयी क्षेत्र में हो रहीं हैं।
मुख्यमंत्री को भले ही यह आशंका सता रही हो कि ऋषिगंगा आपदा से ‘ विकास ‘ विरोधियों को फिर एक मौका मिल जायेगा मगर उन्हें यह भी समझना पड़ेगा कि ग्लोबल वार्मिंग एक सत्य है और हिमालयी क्षेत्र में प्रकृति और मौसम के मिजाज पर इसका बहुत प्रतिकूल असर पड़ रहा है।इंटरनेशनल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज द्वारा तैयार ‘स्पेशल रिपोर्ट ऑन ओसन्स एंड क्रायोस्फेयर इन चेंजिग क्लाइमेट ‘में कहा गया है कि हिन्दुकुश हिमालय क्षेत्र में ग्लोबल वार्मिंग के चलते तापमान तेजी से बढ़ रहे हैं। अगर शेष विश्व में तापमान वृद्धि 1. 5 के आसपास रहती है इस क्षेत्र में यह 1. 8 से लेकर 2. 2 तक बढ़ सकती है। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फिनोमिना ग्लोबल वार्मिंग की ही देन है। ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फिनोमिना को केदारनाथ आपदा से लेकर नेपाल के हिमालयी क्षेत्र की अनेक प्राकृतिक आपदाओं का कारण माना गया है। इण्डिया मैट्रियोलॉजिकल डिपार्टमेंट ने भी माना है कि 2021 की जनवरी, पिछले 6 दशकों में सबसे ज्यादा गर्म रही है। इसलिए अब वक्त आ गया है कि विकास योजनाओं को दुनिया में मौसम और जलवायु में लगातार भहो र मन हीहे मन ही बदलावों के नजरिये से भी परखा जाए अन्यथा विकास के नाम पर मालामाल होने के स्वार्थ और जिद में ऋषि गंगा जैसे हादसों की पुनरावृत्ति होती रहेगी।