अतुल सती
असल बात यह नहीं है कि मुख्यमंत्री किसे बनाया जाता है, क्योंकि बने कोई भी करना उन्हें वही है जो पहले से हुआ है । क्योंकि सरकार चलाने वाली पार्टी तो वही है । उसकी नीतियां कार्यक्रम वही हैं । वैसे तो दूसरी पार्टी आने पर भी नीतियों में कोई बुनियादी अंतर तो नहीं ही होता । फिर भी । तो असल बात यह है कि वह उन्ही कार्यों को जो पहले से करते आए हैं कितनी सफाई से करता है । जनता की नजर में आए बगैर । मतलब बाहर जनता को कुछ दिखे और अंदर असल चलता रहे । मतलब नङ्गई हो तो पर दिखे नहीं ।
इस मोर्चे पर धामी साहब पिछले कार्यकाल में फेल रहे थे । तो लग रहा था कोई दूसरा पत्ता या मोहरा ट्राई किया जाएगा । परन्तु सारे मोहरे लकड़ी के और सारे पत्ते प्लास्टिक के ।
फालतू की रार से अच्छा इसे ही फेंक दो या बढ़ा दो जो हाथ में पहले से लिया ही हुआ था ।
जहां तक चुनाव हारने का ही सवाल है तो ये भी सोचा गया होगा कि ये हारना भी कोई हारना है ? जब हरीश रावत जी जैसे कद्दावर 15 हजार से हार कर भी और पूरी पार्टी का भट्टा बिठा कर भी बेदाग हो सकते हैं तो भाई ये बन्दा तो 7 हजार से ही हारा है । उनके आधे से भी कम । सो यह हार का तर्क तो पहले ही दांव में नहीं ही चलना था सो इस तर्क वालों को इस आधार पर विरोध करना उचित नहीं जान पड़ता ।
वैसे लोकतंत्र का तकाज़ा तो यही था कि चुने हुओं में से किसी को आगे बढ़ाया जाता । जिसे उसके क्षेत्र की जनता ने ही नकार दिया हो उसे पूरे राज्य पर थोपना तो गड़बड़ ही है । पर ऐसी नैतिक बातों का जमाना तो रहा नहीं सो ऐसी दकियानूस बातों को परे रख कर ही सोचना बनता है । पिछली बार का अनुभव था कि जब त्रिवेंद्र रावत जी पिक किये गए तभी अंदरखाने विरोध था । भिर्ष्टाचार जैसी ढेंचा जैसी बातें थीं हवा में । जो कई दिन तैरीं । और जब जब त्रिवेन्द्र दिदा कहीं अलझे ( ठोकर खाए ) तो अंदर के प्रतिद्वंद्वी सक्रिय हो गए । ले उठापटक अदलने बदलने की बातें । ले दिल्ली तक की दौड़ । और इसका नम्बर उसका नम्बर की अटकलें । और आखिर 5वां साल लगते न लगते बदलना ही पड़ा ।
इसलिए दो दिन पहले यहीं लिखा था कि हे भाजपा वालों चुनने (पिक करने में ) में भले एक आध महीना लगा लो पर .. ।
जैसा कि शुरू में ही कहा कि जब करना सबने शराब और खनन की उगाही ही है ।नई कोई दृष्टि है नहीं तब किसी को भी बनाओ । हां इसमें आधार यह सम्भव था कि जो यूं करे कि जल्दी बदनाम न हो । कुछ तो सफाई हो । सफाई के तो अंक बनते ही हैं । यह मानक तो होना ही चाहिए । अब ये क्या बात हुई कि 4 – 5 महीने के लिए आए और पकड़ लिए गए । तिमले गिरे न गिरे पर नङ्गे दिख तो गए । रेत के ट्रक छुड़ाने का काम क्या पहले न हुआ होगा ? पर सफाई से किये गए होंगे । खनन की ऐसी अबाध छूट पहले न थी ? थी ही पर बदनामी यूं इत्ते बड़े पैमाने पर इत्ते कम समय में न हुई थी । तो कुल जमा बात कि भाई कम से कम सफाया करने में हाथ की सफाई का खयाल तो रखना ही चाहिए था ।
अब जहां तक चुनाव का सवाल है तो इस राज्य में यह कोई नई बात नहीं है । ठेठ तिवारी जी से लेकर खंडूड़ी जी होते हुए बहुगुणा रावत जी लगा के से यह परम्परा बन ही गयी है ।
वैसे भी चुनाव को हम बोझ नहीं मानते यह तो जनकल्याण का मौका होता है शुद्ध रूप में । जनता का धन (जनता से लूछा हुआ ) जो कभी जनता के काम न आना था कुछ तो बाहर आता ही है । इसी चुनाव में जो आंकड़े अब तक सुने हैं उनको देख कर सुनकर तो यह समझा कि ऐसे चुनाव तो हर छठी छमाही हों तो जनता का गया धन कुछ तो वापस आए । कुछ तो किसी का तो भला हो ।
अब जो कयास लगाने वालों ने जितने नाम इस बीच गिनाए उन बेचारों के अरमान तो जगे ही होंगे । अब जब अरमान जगे होंगे तो अगले 5 साल वे कुछ न कुछ इन अरमानों की बेल को ऊपर चढ़ाने को अवरोधों के ठंगरे ( लकड़ी जिस पर बेल चढ़ाई जाय) लगाएंगे ही । और कोई बड़ा मामला बना तो जल्द ओ जल्द इसकी उसकी जिसकी लग सके कूड़ी घाम लगाने के प्रयास करते रहेंगे ही । बलूनी जी अग्रवाल जी कौशिक जी सतपाल जी से लेकर दसियों नाम इस बीच आ गए । इनके अरमान मंजिल तक पहुंचे न पहुंचे दूसरे के अरमानों को घाट पहुंचाने या वाट लगाने में ये क्या कोई कसर रखेंगे ?
इस बहाने जनता का मनोरंजन चलता ही रहेगा । क्योंकि जिस तरह लोगों ने दोबारा भाजपा को जिताया उससे तो यही लगा कि जनता ने कहा कि नुकसान जो हुआ सो हुआ पर मनोरंजन में कोई कमी न होने दी विचारों ने पूरे 5 साल । तो इन्होंने भी कहा यदि यही चाहिए तो लो मनोरंजन अनलिमिटेड पुनः जारी फार फूल फाइव इयर्स ।