अखिल मित्तल
‘राग दिल्ली’ से साभार
राजेन्द्र भट्ट की पुस्तक का यह शीर्षक सुखद लगा। यह विश्व प्रसिद्ध आह्वान गीत ‘वी शैल ओवरकम’ की पंक्तियों से प्रेरित है। हिन्दी के प्रतिष्ठित कवि गिरिजाकुमार माथुर द्वारा किए सरस-ओजस्वी रूपांतर ‘हम होंगे कामयाब’ ने हमारी और हमारे बाद की पीढ़ियों को प्रेरित किया है। इस गीत ने विश्वभर में मार्टिन लूथर किंग सरीखे उन क्रान्तिवीरों को साहस और संकल्प दिया जिन्होंने अपनी क़ौम के साथ सदियों से जारी अन्याय और शोषण से मुक्ति पाने का बीड़ा उठाया था। ‘हम होंगे कामयाब’ कविता में शांति, भाईचारे और निर्भय-समरस समाज की कामयाबी के लिए ‘पूरा विश्वास’ व्यक्त किया गया है। कविता की वही पंक्ति इस पुस्तक का शीर्षक है।
फिर भी यह जिज्ञासा तो रही कि बेहतर दौर के प्रति विश्वास को इस पुस्तक में कैसे पिरोया गया है। इस जिज्ञासा को शान्त करने के लिए पुस्तक को आद्योपान्त पढ़ा।
यह पुस्तक भारत में राष्ट्रीय नवजागरण की अलख जगाने वाली स्त्रियों की परम्पराओं से आगे निकलने वाली मेधा, संघर्ष और आत्मविश्वास की दास्तान है। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से लेकर नव-स्वतंत्र देश के प्रारम्भिक दशकों तक यह काल-खंड स्वतंत्रता आंदोलन के समांतर, महिलाओं और विभिन्न वंचित वर्गों में सामाजिक नव-चेतना के जागरण और अपनी पहचान स्थापित करने का काल-खंड भी है। ये प्रसंग, रूढ़ियों और घिसे-पिटे दायरों-मान्यताओं में बांध कर त्याग और बलिदान की देवी के रूप में स्थापित करने वाले समाज में, उसके विपरीत जाकर खुद पर विश्वास करने वाली, प्रतिभा-सम्पन्न महिलाओं द्वारा, अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने के संघर्ष से भी परिचित-प्रेरित करते हैं।
लेखक का कहना है कि वह आम तौर पर उपलब्ध, इकहरे दायरे में जीवनियाँ लिखने की बजाय, युग के पूरे सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनैतिक संदर्भ में इन महिलाओं के बारे में किशोर-किशोरियों से संवाद करना चाहते हैं। इसी शैली से गुजरते हुए हम जीवनियों के साथ-साथ, समकालीन समाज-संस्कृति के अनेक समृद्ध करने वाले पक्षों-अनुभवों को जानते-समझते हैं जो हमने पाठ्य-पुस्तकों वाली जीवनियों में नहीं देखे। ऐसे कुछ प्रसंगों का यहाँ उल्लेख किया जा रहा है जो पाठकों को अधिक उदार और अपने समाज के अधिक समग्र ज्ञान से समृद्ध बना सकेंगे।
मसलन, शुक्र ग्रह के तीन क्रेटर यानी गड्ढों का नामकरण भारत की तीन ओजस्वी स्त्रियों के नाम पर किया गया है – स्त्री रोग विशेषज्ञ जेरुशा झिराड के नाम पर झिराड क्रेटर, डॉक्टरी की डिग्री पाने वाली पहली भारतीय महिला आनन्दी बाई जोशी के नाम पर जोशी क्रेटर और मेधावी पण्डिता रमाबाई के नाम पर मेधावी क्रेटर। इन तीनों में, नई जमीन बनाने वाली दो महिलाओं – आनंदीबाई और रमाबाई के जीवन और संघर्षों के इस संग्रह में प्रेरक विवरण हैं।
इसी तरह, नई दिल्ली के आयुर्विज्ञान संस्थान की स्थापना राजकुमारी अमृत कौर की परिकल्पना की देन है जो भारत की प्रथम स्वास्थ्य-मंत्री, गांधी जी की निष्ठावान शिष्या और स्त्री-समता मुहिम की प्रमुख विभूति रहीं।
इस पुस्तक में, प्रखर सामाजिक क्रांतिकारी पति ज्योतिबा फुले के साथ, उनकी उतनी ही तेजस्विनी पत्नी सावित्रीबाई की गाथा भी है जिन्होंने 19वीं शताब्दी में बिना दहेज और पुरोहित के, अपनी भाषा में विवाह-विधि वाले सत्यशोधक विवाह का क्रान्तिकारी विचार दिया।
ब्रिटिश शोषण और दमन के ख़िलाफ़ विद्रोह की अलख जगाने वाली साधारण कनीज़ से ‘इफ्तकार उन निसा’ बनी निर्भीक बेग़म हज़रत महल की गाथा भी आप इन पन्नों पर पढ़ सकते हैं।
अपने अकाट्य तर्कों से नमक सत्याग्रह से स्त्रियों को बाहर रखने का निर्णय बदलने पर महात्मा गाँधी को बाध्य करने वाली एक 27 वर्षीय युवती कमला देवी के बहुआयामी जीवन और उपलब्धियां भी आपको प्रेरित करेंगी। कला, संस्कृति, नृत्य, नाटक और हस्तशिल्प के संरक्षण एवं उत्थान से जुड़ी अनेक संस्थाओं की स्थापना के पीछे भी इन्हीं कमलादेवी चट्टोपाध्याय की सोच थी।
किताब से गुजरते हुए हम जानते हैं कि जलियाँवाला बाग़ जघन्य हत्याकाण्ड ने केवल 11 वर्ष के सरदार भगत सिंह को ही नहीं, अम्बाला की दस वर्षीय बालिका सुचेता को भी विदेशी दासता को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए उद्वेलित किया जो बाद में प्रखर स्वतन्त्रता-सेनानी सुचेता कृपलानी बनीं।
इसी तरह, स्वाधीनता संघर्ष के दिनों में रजवाड़ों की अंग्रेज़-परस्त सोच और प्रजा शोषक नीतियों के विरुद्ध प्रजा मण्डलों में जनता को संगठित करने में ओड़िशा की मालती चौधरी की प्रमुख भूमिका रही। उन पर लेख, हमें ब्रिटिश शासन के दौर में रजवाड़ों की प्रजा के, अक्सर कम महत्व दिए गए पक्ष से अवगत कराता है।
सजग सन्यासिन दीपा नौटियाल उर्फ़ टिंचरी देवी का प्रसंग भी इतना ही प्रेरक है जिन्होंने भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की राह रोक कर अपने सुदूर पहाड़ी गाँव में जल अभाव की समस्या का निराकरण करवाया। संकल्प की धनी, इस अपढ़ महिला ने अपने समाज को नशा-मुक्त करने की भी जोरदार मुहिम चलाई।
मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा में ‘ऑल मैन आर क्रिएटेड इक्वल’ वाक्यांश को बदल कर ‘ऑल ह्यूमन आर क्रिएटेड इक्वल’ करवाने का श्रेय एक भारतीय स्त्री हंसाबेन मेहता को है जो भारत की संविधान सभा की सदस्य भी थी।
भारत के संविधान की रचना में 15 स्त्रियों का महत्त्वपूर्ण योगदान है जो संविधान सभा की सदस्य रहीं। यह पुस्तक उन महिलाओं के मेधावी और संघर्षशील व्यक्तित्व और संविधान सभा में उनके मेधावी-तेजस्वी योगदान से भी परिचित कराती है।
यह पुस्तक उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक देश के विभिन्न भागों की ऐसी अनेक स्त्रियों से भी परिचय कराती है जिनकी नाम हम में से बहुतों ने शायद सुने ही नहीं हैं – यदि सुनें भी हैं तो बहुत सरसरी तौर पर।
यह तर्क दिया जा सकता है कि गूगल और इंटरनेट के इस युग में ऐसी सारी जानकारी पाने के लिए ऐसी पुस्तक की भला क्या आवश्यकता है।
आवश्यकता इसलिए है कि इतिहास की घटनाओं और व्यक्तियों को वर्षों के कालक्रम की चौहद्दी से बाहर निकालकर उनके सम्पूर्ण परिवेश और पृष्ठभूमि के साथ ही पूरी तरह समझा जा सकता है। लेखक ने यह कोशिश इस पुस्तक में की है।
बेग़म हज़रत महल का ज़िक्र आने पर 18 वीं शताब्दी में गंगा-यमुना दोआब की भौगोलिक एवं सांस्कृतिक ज़मीन को पूरी तरह कुरेदा गया है। सरोजिनी नायडू के जीवन को समझाने के लिए उनके परिवार के सदस्यों के योगदान और उनके पूरे युग का वर्णन बताता है कि उनके व्यक्तित्व को गढ़ने में परिवेश की क्या भूमिका रही। लक्ष्मी सहगल के प्रसंग में आप न केवल आज़ाद हिन्द फौज के बनने की परिस्थितियों, नेताजी सुभाष बोस के संघर्ष और यूरोप से लेकर दक्षिण-पूर्व एशिया में भारत के मुक्ति-संघर्ष की लहरों और नायक-नायिकाओं से भी परिचित होते हैं। साथ ही, लक्ष्मी सहगल के साथ-साथ उनकी बहुमुखी प्रतिभाशाली नृत्यांगना बहन और विजनरी वैज्ञानिक विक्रम साराभाई की पत्नी मृणालिनी साराभाई से भी परिचित होते हैं। यही नहीं, इन बहनों की माँ और संविधान सभा की सदस्य अममू स्वामीनाथन से भी हमारा परिचय होता है।
लेखक इन सब प्रसंगों को व्यक्ति-केन्द्रित न रख कर, इनके जरिए तत्कालीन सांस्कृतिक-वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य और जाति-धर्म के नाम पर चला रही शोषक कुप्रथाओं से भी दो-चार कराते हैं। इसी तरह, सावित्री देवी फुले, आनन्दीबाई जोशी, दक्ष्यायनी वेलायुधन, सरोजिनी नायडू, मालती चौधरी, पण्डिता रमाबाई और टिंचरी देवी से लेकर लीला रॉय और कमलादेवी चट्टोपाध्याय तक सभी के जीवन-वृत्तांत में उनके पति, पिता, समाज के योगदान, यहाँ तक की उदासीनता और विरोध को भी दर्ज किया गया है। युग की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों का तथ्यपरक उल्लेख पाठकों के सामने एक सम्पूर्ण चित्र उकेरता है और इकहरी नहीं, बल्कि गहरी समझ विकसित करता है। इन विभूतियों में, मादाम भीकाईजी कामा का न होने की चूक खलती है।
राष्ट्रीय नवजागरण की लगभग 25 नायिकाओं से परिचित कराने के साथ-साथ पुस्तक में भारतीय संविधान में स्वतन्त्रता, समता और न्याय के सिद्धान्तों को अपनाये जाने की ऐतिहासिक एवं सामाजिक पृष्ठभूमि, और इसमें तत्कालीन युग-दृष्टा नेताओं के साथ इन अद्भुत-अग्रणी महिलाओं के योगदान को गहराई से समझाने की कोशिश की गयी है।
भारत के संविधान को समर्पित तीन अध्यायों में संविधान सभा की सदस्य 15 स्त्रियों के परिचय के साथ उनमें से प्रत्येक की संवेदनशील दृष्टि के योगदान का विस्तृत वर्णन है।
पुस्तक की भाषा और शैली, देश के इतिहास और राष्ट्र एवं समाज के निर्माण में सजग स्त्रियों के योगदान को, देश की नई पीढ़ी को रटे-रटाये ढंग के बजाय, सम्पूर्ण परिप्रेक्ष्य में समझाने की कोशिश करती है।
‘पूरा है विश्वास’ को पढ़ कर सचमुच यह विश्वास जागता है कि इसमें वर्णित स्त्रियों का व्यक्तित्व एवं योगदान, हमें पढ़ाए और रटाए गये अन्य नायकों से किसी भी तरह कमतर नहीं है। भावी पीढ़ियाँ इन व्यक्तित्वों को समग्रता से समझ कर सचमुच प्रेरित हो सकती हैं। लेखक की आकांक्षा है कि यह पुस्तक, सजग शिक्षकों-शिक्षिकाओं की मदद से, हमारी किशोरियों के मन में, बिना किसी कमजोरी और शंका के देश-समाज की नायिका होने का विश्वास जगा सके और हमारे किशोरों के मन में भी किशोरियों-महिलाओं के प्रति (पूजा नहीं),समता-समान का भाव जगा सके।
असल में तो ऐसी पुस्तक देश भर के विद्यालयों में कम से कम पाठ्येतर सामग्री का अंग होनी चाहिए। प्रत्येक विद्यालय के पुस्तकालय में इसकी उपस्थिति आवश्यक है। भारत सरकार के प्रकाशन विभाग से प्रकाशित यह पुस्तक कितनी सहज उपलब्ध होगी, कहना मुश्क़िल है।
वैसे बताया गया है कि यह पुस्तक सूचना भवन, लोधी रोड, नयी दिल्ली (जंगपुरा मैट्रो स्टेशन के पास) में स्थित प्रकाशन विभाग के बिक्री केन्द्र से खरीदी जा सकती है। ऑनलाइन खरीदने के इच्छुक पाठक www.publicationdivision.nic.in पर BOOKS वर्ग में Children’s Literature श्रेणी के अन्तर्गत शीर्षक तलाश कर ऑर्डर कर सकते हैं।
अमेज़न जैसे बाज़ार मंचों पर इसे तलाश करने की कोशिश व्यर्थ रही। 345 रू. का मूल्य भी पुस्तक को आम पाठक तक पहुँचने में रुकावट ही बनेगा। फिर भी आशा करनी चाहिए कि नई पीढ़ी को राष्ट्रीय नवजागरण में देश की आधी आबादी के योगदान के प्रामाणिक वर्णन से परिचित कराने का यह प्रयास व्यर्थ नहीं जायेगा।