कुंवर प्रसून ऐसा शख्स था जिसके साथ बैठना, चलना और बोलना बहस को आमंत्रण देना था। उसके तेवर जुझारू थे, नजर पैनी थी और नजरिया आमजन की तरफदारी का था। वह जरुर उबड़ खाबड़, लापरवाह जैसा दिखता था लेकिन उसका व्यक्तित्व बहुआयामी था। वह अपने पिता गब्बर सिंह की तरह साधारण से आसाधारण था। मुझे अपने जाजल प्रवास के दौरान उसे जानने समझने का मोका मिला। उसकी पत्रकारिता की शुरुआत मेरे देखते–देखते हुई थी। मैं जाजल स्कूल में अध्यापक था और वह प्रताप शिखर के साथ खाड़ी में ‘ युवक संघ ‘ की स्थापना करके वहां सामाजिक कार्यों की दागबेल डाल रहा था। एक बार मैंने आमपाटा गांव के मेर सिंह भंडारी के घर से लाए हुए कुछ पुराने कागज़ उसे सौंपे, उन कागज़ों में कुंजणी में बीसवीं सदी की शुरुआत में हुए जन आक्रोश से संबद्ध कुछ लिखित सामग्री मौजूद थी। मैंने भक्तदर्शन जी की पुस्तक ‘गढ़वाल की दिवंगत विभूतियां’ में राजा कीर्तिशाह के समय कुंजणी में हुए जन असंतोष का जिक्र पढ़ा था,लेकिन वह बहुत संक्षिप्त था और उसका विवरण तब तक विस्तार से कहीं उपलब्ध नहीं था। मैने कुंवर प्रसून से कहा, “मैं स्कूल में रहने के कारण यह काम नहीं कर सकता मेरे पास समय नहीं है लेकिन तुम गांव–गांव जाकर लोगों की स्मृतियों से उस जानकारी का उत्खनन कर सकते हो।” कुंवर प्रसून ने कुंजणी के गांव–गांव में जाकर लोगों से संपर्क किया। बुर्जुगों से सुनी पुरानी यादों की खोज की और उस जनअसंतोष की पूरी कहानी ‘युवक संघ’ की पत्रिका ‘हेंवालिका’ में प्रकशित की। कुंजणी के जन असंतोष की पूरी कहानी कुंवर प्रसून की मेहनत से सामने आई। इस रिपोर्ट के छपने के बाद कुंवर प्रसून ने पत्रकारिता में हंगामी तेवर के साथ अविस्मरणीय शुरुआत की। उसके बाद की कहानी तो सब जानते हैं। यह 1970 का दशक था। अस्कोट आराकोट यात्रा, शराबबंदी आंदोलन, चिपको आंदोलन, बांध विरोध आंदोलन में कुंवर प्रसून अपने जुझारू तेवर के साथ शामिल रहा। उससे पहले उसने ‘दोहरी शिक्षा’ के खिलाफ लखनऊ से देहरादून तक हंगामी जन आक्रोश यात्रा छात्र संघर्ष वाहिनी के बैनर तले की। पढ़ कर नौकरी नहीं की। उसने और प्रताप शिखर ने भी। इन दोनों ने अपने नाम के साथ शामिल जातिसूचक नाम हटाकर एक नई शुरुआत की। कुंवर प्रसून पहले कुंवर सिंह भंडारी था और प्रताप शिखर प्रताप सिंह पंवार।
उसे बहुत काम करना था, लेकिन जनता के लिए लड़ते हुए वह अपनी हिफाजत करना भूल गया था। बीमारी की तरफ से उसकी लापरवाही ने उसे हमसे छीन लिया। यही सोचते हुए गमगीन होकर उसको याद करता हूं। कुंवर प्रसून के साथ कविताओं पर भी बात होती थी। तब वह कुंवर प्रसून नहीं बना था और कविताएं कुंवर सिंह भंडारी के नाम से लिखता था। काश! आज वह अपनी कलम के तेवर के साथ हमारे साथ होता और आज के समय के जलते सवालों के जवाब मांग रहा होता।
उसने अपनी कविताओं के कुछ ‘रफ’ नोट्स मुझे दिए थे।
लेकिन फिर उन पर बात करना भूल गया था पर मैं भूला नहीं हूं कविताओं के उन रफ नोट्स से एक कविता यहां प्रस्तुत कर रहा हूं –
मेरी शव यात्रा
शहर के भले आदमी
हो गए एक,
मेरा शव दफ्तरों के आने से ले जाते हुए
चामखानों और काफीखानों के सामने
कंधे पर घुमाते,
सब्जी मंडी के भीड- भड़ाके से होकर
सर्राफा बाजार को पार करते हुए
फैक्टरियों, मिलों के पास से गुजरे।
मालूम कहाँ-कहाँ से होते हुए फिर-
ले आये चौबाटे पर,
बसें और कारें
उड़ती हुई आर-पार हो जाती हैं.
किताबें हाथों में थामे कुछ लड़कियाँ –
प्रश्नों के चेहरे घुमाये-
फुस्फुसाती हुई निकल जाती हैं।
रुदन-क्रंदन का नाम नहीं
‘राम-राम’ का एक शब्द भी –
किसी के मुहँ पर आता नहीं,
मेरा शव कन्चों पर ढोते देख-
कुछ लोग पूछने लगे :-
“कैसे मरा बेचारा ?
हार्टफेल हुआ या न्यमोनिया?
या सड़क पार करता ट्रक से कुचला ”
वो लोग बोले:-
” नौकरी की बीमारी से मरा है साले,
हार्टफेल होने तथा न्यमोनिया से
कहीं खतरनाक है।”
एक सफेद साहब
ले जाते हैं मुझे
शहर के बाहर किसी स्थान पर,
सजा लेते हैं बेकारी’ की चिता
‘चिन्ताओं’ की लगा देते हैं आग,
‘हँसी’ की पुष्पांजलि अर्पित करते हुए –
मेरी आत्मा को शान्ति चाहने की प्रार्थना भगवान से करते हैं।
जल कर भस्म हो गया हूँ,
विश्वास और शरीर अवशिष्ट हैं।
चलो, अमीर-बन्धु को
यही मंजूर था।