केशव भट्ट
आप जब तक किसी से मिल उसके दर्दे दिल के सुख-दुख से वाकिफ ही नहीं होवोगे तो उसके बारे में सुने-सुनाए ख्यालातों पर कसिदा करना जायज कैसे हुवा. हरी वर्दी में जितना देश प्रेम झलकता है, उतना ही खाकी में भी है. एक सीमाओं पर शांति बनाए रखने के लिए जूझता है तो दूसरा आंतरिक सीमाओं पर शांति बनाए रखने के लिए दिन-रात मुस्तैद रहता है. वैसे पुलिसकर्मियों की जरूरत सबको होती है, बावजूद उसके उन्हें कभी ढंग से पसंद नहीं किया जाता. एक वक्त में, मैं भी खाकी से दूरी बनाए रखता था. उत्तराखंड राज्य बना तो यहीं के युवाओं की भर्ती होने के बाद वो जब ट्रैफिक समेत अन्य पोस्टों में आए तो उनसे बतियाने का बहुत मन करता था, तो मैं जबरदस्ती उनसे उनके गांव आदि के बारे में पूछ लेता. धीरे-धीरे अभिवादनों का दौर चला तो पता ही नहीं चला कि वो कब मित्र बनते चले गए. उनमें से कई कॉलेज के बिगडैल छोरों की तरह निकले तो कई सीधे-सरल संकोची स्वभाव वाले मिले.
बरोजगारी के बाद जब उन्हें नौकरी मिली तो खुद-ब-खुद उन्हें परिवार की जिम्मेदारी भी समझ में आने लगी. तब पांचेक हजार की तनख्वाह में अपने खर्चो को सीमित कर जब वो दोएक दिन की छुट्टी में घर जाकर तनख्वाह से बचाई गई चारेक हजार रूपया अपने बड़े-बुर्जुग के हाथों में रखते थे तो परिवार वालों को अपने बेटे-बेटी के अचानक ही बड़े हो जाने का सुखद एहसास होने वाला हुवा.
लेकिन! कुछेक प्रतिशत ऐसे भी थे जो घर से खर्चा मांगने में भी गुरेज नहीं करते थे. और कुछेकों ने तनख्वाह को हाथ लगाना पाप मान अपना खर्चा बाहर से निकालने का गलत रास्ता पकड़ लिया. ये बातें अकसर सुनने में आ ही जाती थी या फिर कभी किसी पर विभागीय कार्यवाही होने पर खाकी को डर-गलत नजर से देख-महसूस करने वाले समाज का नजरिया आज भी खाकी के प्रति कुछेकों की वेजा हरकतों की वजह से कमोबेश यही है.
बहरहाल! साल 2005 था जब मैं आर्थिक रूप से काफी परेशान था कि ट्रैफिक का एक सिपाही मित्र मुझे जबरन अपनी पूरी तनख्वाह ही, यह कह थमा के चला गया कि, ‘दद्दू..पिछले माह के पांच सौ बचे हैं न उससे काम चल जाएगा.. वैसे भी खाना तो मैस में ही हुवा और कमरे का किराया बाद में दे दूंगा.. आप अभी अपना काम चलाओ..’ मैं निरूत्तर सा रह गया. कुछेक महिनों बाद मैंने उसे पैंसा यह कह वापस लौटाया कि, अब मेरी स्थिति ठीक है जब जरूरत होगी तो कह दूंगा ना.. बुमश्किल मैं उसे आश्वस्त कर पाया. आज भी जब वो पल याद करता हूं तो खाकी के पीछे एक संवेदनशील दिल को धड़कते महसूस करता हूं.
बैल्ट फोर्स से जुड़े जवान हर हमेशा अपनी ड्यूटी में तैनात रहते हैं. यहां तक की त्यौहार भी अकसर वो अपने सांथियों के सांथ ही मनाते रहे हैं न कि परिवार के सांथ. और इसके बदले में उन्हें प्रशंसा कम निंदा ही ज्यादा मिलती है. लिजलिजी राजनीति उन्हें ये सब करने पर मजबूर करती आई है. लेकिन कुछ चट्टान की तरह अड़े रहते हैं और कुछेक टूट-बिखर कर राजनीति की लिजलिजे कीचड़ में धंसते चले जाते हैं.
उत्तराखंड बनने के बाद शुरूआती भर्ती हुए जवान जिनमें ज्यादातरों की पदोन्नती हो चुकी है, वो पहाड़ में मय परिवार के ऐसे रम गए हैं कि अब उन्हें यहां का सादा जीवन ही अच्छा लगने लगा है. जिला बनने के बाद बागेश्वर में अफसरानों का आना-जाना लगा रहा जिनमें से संजय श्रीवास्तव, करन सिंह नागनयाल, निविदिता कुकरेती, लोकेश्वर सिंह, प्रीति प्रियदर्शनी समेत कईयों को उनकी कार्यशैली की वजह से गाहे-बगाहे हर कोई याद करता रहता है. अभी जिले की कप्तान रचिता जुयाल हैं. उनकी ताबड़-तोड़ कार्यशैली के सांथ ही लॉकडाउन में उनकी पहल पर सभी थाने-कोतवाली में गरीबों, मजदूरों को खाने के लंगर खोल दिए जाने पर हर कोई इस तरह के मानवीय कामों की तारिफ करते रहा. लॉकडाउन के दौरान बीमार-असहायों को पुलिस वाहन से उनके घर तक पहुंचाना हो या ब्लड डोनेट करना हो, पुलिस के जवान से लेकर अधिकारी भी तत्पर रहे. कवरेज के दौरान ये सब हम भी महसूस करते रहे, कोतवाली के मैस में ही बहुगुणाजी, उप्रेतीजी समेत अन्य महिला स्टॉफ तो कई बार दिन में दो-दो बार खाना बना उन्हें खिलाने में जुटे रहे.
पुलिस लाईन में महिला पुलिसकर्मी समेत पुलिस वालों के परिवार मॉस्क बनाने में जुटे पड़े दिखे. शुरूआत में एक बजे तक के लॉकडाउन के बाद बाजार के सूनसान हो जाने पर घबराकर भूखे आवारा चौपाए भी चौराहों पर तैनात पुलिसकर्मियों को घेर कर बैठ जाते थे. जिनके लिए भी उन्होंने घर से टिफन में अलग से खाना लाना शुरू कर दिया. वहीं वैद्य परिवार के तिवारीजी भी दिन में दो बार तीनेक बड़े थर्मसों में चाय लेकर ड्यूटी वालों की सेवा में जुट गए और अभी तक भी वो इस काम में जुटे पड़े हैं.
देर-सबेर कोरोना तो खत्म हो जाएगा लेकिन लोगों के सांथ ही दिन-रात ड्यूटी में जुटे पड़े हर विभाग के कर्मचारी-अधिकारी, डॉक्टर, सफाई कर्मियों के समर्पण पर उन्हें सम्मानित भी किया जाने लगा है, आगे भी किया जाते रहेगा.
बहरहाल! पुरूष्कार-सम्मान से मेरा रिश्ता दो चुंबकों के उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों को आपस मिलाने की तरह ही है जो समान रूप से नहीं जुड़ते हैं.
मैं हमेशा से ही सम्मान करने के नाम पर दूर भागता रहा हूं. न जाने क्यों मैं अपने को तुच्छ मान ‘महान सम्मान’ से नवाजने के काबिल अपने को नहीं समझता हूं. लेकिन इस बार बागेश्वर की कप्तान रचिता जुयाल ने सदियों से चली आ रही, मंच में बुला किसी को सम्मान से नवाजने की प्रथा को किनारे कर, मीडिया समेत अन्यों को प्रशस्ति पत्र भिजवा कर नया तरीका ईजाद कर दिया, जिस पर मैं भी हॉं-ना कुछ नहीं कह पाया और मित्र पुलिस के जांबाज सिपाही अशोक कुमार ने मुझे एक लिफाफा दिया और वो अपने आगे के मिशन की ओर बड़ चले तो मैंने उसे खोला तो मैं मुस्कराए बिना न रह सका. आपकी कार्यशैली को धन्यवाद कप्तान साहेब. उम्मीद है कि आपकी तरह नई युवा अधिकारियों की पीढ़ी पहाड़ की परेशानियों को समझ समाज की उलझनों को कम करने में तत्पर रहेंगे..
वैसे.. संवेदनशील पुलिस कर्मी दुनियांभर में हैं जो दिन-रात जनसेवा में लगे रहते हैं. और उनके कामों पर उन्हें दुनियां से अनगिनत सलाम मिलते रहते हैं..