विनोद पाण्डे
किसी जमाने में अपने ठाठ-बाट के लिए जाना जाने वाला शहर नैनीताल पिछले कुछ समय से एक सस्ते पर्यटन स्थल के रूप में ढल गया है। भले यहां पर कुछेक बेहतरीन होटल भी हों, परन्तु अधिकांश होटल-लाॅज आदि अब ‘सस्ते’ की श्रेणी में आने लगे हैं। इसका कारण नैनीताल की स्थिति है। मैदानों के बहुत करीब होने और देश में वाहन क्रांति होने के कारण पर्यटकों का एक नया वर्ग पैदा हो चुका है। अब ‘हर कोई’ नैनीताल आने की इच्छा और क्षमता रखने लगा है। नैनीताल की गर्मी तो बेहतरीन है ही, यहां की बरसात, यहां तक कि जाड़ा भी खुशगवार होते हैं। पचास साल पुराने मापदंडों के हिसाब से भले ही यह नगर पर्याप्त गन्दा हो गया हो, मगर यहाँ की साफ-सफाई उत्तर भारत के आम शहरी इलाकों की तुलना में अभी भी बेहतर है। बेशक मैदान का निवासी यहां आकर जन्नत जैसा सुकून महसूस करता है। कोरोना काल की कहानी कुछ और भी विचित्र है। एक साल से अधिक समय से अपने घरों में कैद आदमी जरा सा मौका मिलते ही ऐसी जन्नत का लुत्फ उठाना क्यों नहीं चाहेगा ? लाॅक डाउन में मामूली छूट मिलने पर भी पर्यटक स्थलों में पर्यटन विकास के नाम पर कोरोना प्रोटोकाॅल अराजकता के स्तर तक शिथिल हो जाते हैं। लाॅक डाउन की छूट बीच उपजे इस पर्यटन को प्रचारित करने के लिए पर्यटन उद्योग ने इसे ‘रिवेंज टूरिज्म’ यानी ‘प्रतिशोध का पर्यटन’ का नारा दिया है। इसमें छुपा हुआ संदेश है कि पिछले साल तुम जिस तरह घरों में बंद रहे उसका बदला लो। प्रकारान्तर से इसका अर्थ निकलता है, ‘‘हम तो जा रहे हैं मौज-मस्ती करने। तू हमारा क्या कर लेगा कोरोना!’’
मैदानी क्षेत्रों के पर्यटकों को यह भ्रम है कि नैनीताल की आबोहवा से कोरोना दूर भागता है। इससे उनका पर्यटन और मजेदार हो जाता है। पर ऐसा नहीं है कि नैनीताल में कोरोना नहीं फैला। यहां भी कई लोगों की जान कोरोना के कारण गई। कोरोना काल में किसी बड़े शहर में रोजी-रोटी जुटाने निकली भीड़ सड़कों पर दिखाई दे जाती है तो प्रशासन से लेकर अदालतों तक की भृकुटि तन जाती है। कई जगहों पर ऐसे लोग पुलिस की बर्बरता के शिकार भी होते हैं। मगर पर्यटन के नाम पर सब कुछ जायज हो जाता है। उसकी बदइंतजामी से सभी नजरें फेर लेते हैं।
यह भ्रम है कि पर्यटन एक अक्षय पात्र है जिससे असीमित रोजगार पैदा होता है। वास्तविकता यह है कि ये एक ऐसा रोजगार है जिसके लिए भले ही सरकार को कुछ मेहनत या निवेश नहीं करनी पड़ती है और करों के रूप उसे कुछ राजस्व मिल जाता है पर अनियंत्रित पर्यटन के नुकसान बहुत हैं। स्थानीय पर्यावरण और संस्कृति को पर्यटन नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। पर्यटन से जुड़े कामगार किस तरह रहते हैं, उनके स्वास्थ्य आदि की परिस्थितियों पर अभी तक भारत में अध्ययन नहीं हुए हैं। अतः जानना कठिन है कि पर्यटन से रोजगार किस कीमत पर पैदा होता है। मगर अराजक छूटों का ही परिणाम है कि अब स्थान-स्थान पर पर्यटन लाॅबी बहुत मजबूत हो चुकी है। इसका एक उदाहरण हैं कि इस दबाव से नैनीताल से हाईकोर्ट का हटना लगभग तय माना जा रहा है, क्योंकि अदालत ने समय-समय पर अनियंत्रित पर्यटन पर लगाम कसने का प्रयास किया है।
लाॅक डाउन के बाद जो पर्यटकों की जो भीड़ उत्तराखंड के पर्यटक स्थलों में उमड़ी है उसे नियंत्रित करने के लिए राज्य व जिलों की सीमाओं पर आरटी-पीसीआर जैसी जांचों की अनिवार्यता है। परन्तु इन नियमों का पालन पुलिस के द्वारा कराया जाता है और पुलिस के भ्रष्टाचार को कौन नहीं जानता ? जहां तक आरटी-पीसीआर का प्रश्न है हरिद्वार कुंभ में इस जांच के फर्जी प्रमाण पत्रों की सच्चाई सामने आ ही गयी है। उससे इस तरह की जांचों के लिए बनाये कागजातों की सार्थकता पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाते हैं। ऐसा नहीं हैं कि इस जांच के लिए अगर एक पंजीकरण की प्रक्रिया अपनायी जाय तो इस पर नियंत्रण न लग सके। उदाहरणार्थ कि जांच रिपोर्ट की प्रति सीमा पर की चैकी में जमा कर ली जाये और वहां से उसे एक अनुमति पत्र जारी हो जाये। फिर आरटी-पीसीआर की रिपोर्टों की विश्वसनीयता की जांच करा ली जाये। इस तरह इन रिपोर्टाें की धोखाधड़ी को रोका जा सकता है। मगर पर्यटन लाॅबी के आगे सरकार लाचार नजर आती है।
पर्यटन से होने वाली आमदनी और रोजगार के बारे में हुए अध्ययनों में पाया गया है कि मुख्यधारा के पर्यटन से उपजी आय के वितरण में बहुत विसंगति है। इसका एक बड़ा हिस्सा बाहर चला जाता है, क्योंकि अधिकांश संसाधन और सामग्री की आपूर्ति बाहर से होती है, इसे ‘लीकेज’ कहा जाता है। इसके बाद एक बहुत बड़ा हिस्सा एक व्यक्ति या संस्था जिसे आप मुख्य सेवा प्रदाता कहते हैं के हिस्से में चला जाता है। बाकी कर्मचारियों के हिस्से में आमतौर पर न्यूनतम मजदूरी से भी कम जाता है। अधिकांश मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा की हालत भी बहुत बुरी होती है। इसलिए सपाट रूप से यह मान लेना कि पर्यटन से रोजगार पैदा होता है, गलत है। इससे एक बहुत ही छोटे खास तबके को ही फायदा होता है। वह बात दूसरी है देश में अशिक्षा और बेरोजगारी होने के कारण न्यूनतम मजदूरी से भी कम और अमानवीय परिस्थितियों में काम करने के लिए श्रमिक उपलब्ध हो जाते हैं। इन तमाम कमियांे के बावजूद पर्यटन एक बिगड़ैल पर लाड़ला और दुलारा बच्चा बनता जा रहा है।
कोरोना काल में सामाजिक पक्ष और पर्यावरण संरक्षण से इतर अनियंत्रित भीड़ का अर्थ बहुत गंभीर हो जाता है। कोरोना की परिस्थितियां तोड़ने के लिए सरकार लाॅक डाउन, दुकानों के खुलने का समय सीमित करना व कफ्र्यू जैसे नियंत्रण लगा रही है, ताकि भीड़ पैदा न हो। वैज्ञानिक और चिकित्सा विशेषज्ञ कोरोना से बचाव के लिए टीके के बाद भी सामाजिक दूरी बनाने और मास्क पहनने की आदत डालने पर जोर दे रहे हैं। क्यांेकि अभी कोई रामबाण टीका नहीं बन पाया है और कोरोना वायरस के रूप बदलने की क्षमता ने वैज्ञानिकों और चिकित्सकों को हैरान किया है। इस वायरस से बचाव स्वनियंत्रण से ही हो सकता है। पर्यटन ऐसी परिस्थिति बना देता है कि किसी शहर में वहाँ की सामान्य भीड़ के अलावा बाहर से एक बड़ी भीड़ प्रवेश कर जाती है, जिसका कोई पता ठिकाना नहीं है और जो कि केवल अपने मनोरंजन के लिए शहर में आती है। तो समझा जा सकता है कि ‘कोविड एप्रोप्रियेट बिहेबियर’ के वहाँ क्या हाल होते होंगे। संक्षेप में, स्थानीय जनता को आदेश दिया जा रहा है कि घर से बाहर बहुत जरूरी होने पर ही निकलो, मगर पर्यटकों से कहा जा रहा कि जी भर के घूमो। इस विरोधाभास भरी लापरवाही से कहीं इस शहर के लोगों और यहां आने वाले पर्यटकों में भी वायरस का आदान-प्रदान न हो जाय और कोरोना की अगली लहरों के दौर में कोई भारी नुकसान न हो जाये। समय रहते ही नैनीताल या किसी शहर विशेष में ही नहीं, पूरे पर्वतीय इलाके में पर्यटन को नियंत्रित कर दिया जाना चाहिये। हरिद्वार के कुंभ में आस्था के नाम पर जमा हुई भीड़ के बारे में देश-विदेश में चर्चा हुई थी। उस मामले का राजनीतिकरण तक हुआ। मगर इस मौज-मस्ती वाली भीड़ पर हर तरफ पसरा हुआ सन्नाटा हैरान कर रहा है। लाॅक डाउन में जबरन झेली हुई ‘कैद’ का ‘प्रतिशोध’ मासूम पहाड़ों में कोरोना फैला कर तो नहीं किया जाना चाहिये।