नवीन जोशी
शमशेर का होना उत्तराखण्ड में विश्वसनीय प्रतिरोधी स्वर का होना था। वह बाकी देश में उत्तराखण्ड की आंदोलनकारी चेतना का चेहरा भी था। उसने अपने छात्र जीवन से पहाड़ को जानने-समझने के यत्न किये और जो वहां की जनता के वास्तविक हित में हो सकता था, उसके लिए आवाज उठाई, भरसक लड़ाई की और अगली पीढ़ी को इस दिशा में प्रेरित भी किया।
लम्बी बीमारी के बावजूद वह अंतिम समय तक यथासम्भव आवश्यक हस्तक्षेप करता रहा। दरअसल, उसकी बीमारी उसकी निरन्तर भाग-दौड़, उससे उपजी लापरवाहियों, तनावों, चिंताओं के कारण थी। या, इन कारकों ने बीमारी को अनियंत्रित बनाये रखा, क्योंकि व्यसन कहते हैं जिन्हें, वे उसे कोई थे नहीं। बीमारी से घर में लगभग कैद हो जाने के बावजूद उस दिल-दिमाग में उत्तराखण्ड की चिन्ताएं रहती थीं। शरीर के कई हिस्से काफी घायल हो चुके थे। बेटों को अक्सर उसे लेकर एम्स, दिल्ली भागना पड़ता था। हर बार वह बेहतर होकर लौट आता। ढेर दवाइयों और इंसुलिन की नियमित डोज के बाद उसका ध्यान उत्तराखण्ड की उन समस्याओं पर जा टिकता था, जिनके लिए उसने लड़ाइयों में हिस्सा लिया, नेतृत्व किया लेकिन जो आज और भी विकराल रूप में सामने हैं। सेहत का हाल पूछने पर वह दो-तीन वाक्यों के बाद राज्य या देश के वर्तमान हालात पर बोलने लगता था।
अपनी पीढ़ी के दूसरे चंद आंदोलनकारी मित्रों की तरह उसकी भी बड़ी चिंता थी कि जनता की मूल समस्याओं के लिए लड़ने वालों की नयी पीढ़ी तैयार नहीं हो रही। जिस लड़ाई को वे यहां तक लाए उसे और आगे पहुँचना चाहिए था। राज्य के विभिन्न कोनों में छिटपुट लड़ाइयां जारी हैं लेकिन प्रभावकारी राजनैतिक हस्तक्षेप नहीं हो पा रहा। वह निराश होने वालों में कतई न था। युवा शक्ति और उत्तराखण्ड की संघर्षशील परम्परा पर उसे पूरा भरोसा था।
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उत्तराखण्ड की बेहतरी के लिए सक्रिय कई साथियों की तरह शमशेर से भी मेरी मुलाकात शेखरदा के माध्यम से हुई थी। शायद 1973 की सर्दियों के दिन थे। अल्मोड़ा डिग्री कॉलेज के छात्र संघ का प्रतिनिधिमण्डल मुख्यमंत्री से मिलने लखनऊ आया था। शेखरदा भी उनके साथ था। उसने परिचय करवाया- ये शमशेर सिंह बिष्ट हैं, अल्मोड़ा डिग्री कॉलेज छात्र संघ के अध्यक्ष। ये विनोद जोशी, महामंत्री। हरीश जोशी थे और एक-दो अन्य युवक, जिनकी अब याद नहीं। उस पहली मुलाकात की कुछ खास याद नहीं, सिवाय खद्दर के कुर्ते पर बंद गले का स्वेटर पहने शमशेर की पैनी आंखों के।
अगली कुछ मुलाकातें भी इसी तरह हुई। शमशेर का प्रतिनिधिमण्डलों में लखनऊ आना जारी रहा। 1973 के उत्तरार्द्ध में हेमवती नन्दन बहुगुणा प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गये थे। पहाड़ में वन आंदोलन के स्वर फूटने लगे थे। छात्र स्टार पेपर मिल को वनों का ठेका दिये जाने का विरोध कर रहे थे। शमशेर की आवाज इनमें सबसे आगे थी। उसका लखनऊ आना बढ़ गया था। आकाशवाणी का ‘उत्तरायण’ कार्यक्रम पहाड़ से आने वाले तरह-तरह के लोगों का अड्डा था। मेरा लगभग रोज ही वहां जाना होता। शमशेर भी लखनऊ आने पर जिज्ञासु जी से मिलने वहां आता। वहां मुलाकात न होती तो संदेश मिल जाता कि वे लोग कहां ठहरे हैं। पड़ोस में ही विधायक निवास था। वे पहाड़ के किसी विधायक के यहां ही ठहरते थे। मैं वहां पहुंच जाता। कभी वे मिल जाते, कभी सचिवालय के गलियारों में भटकते होते। मई 1975 में लखनऊ आये गिर्दा की एक चिट में दर्ज है- “शम्भू कैं चाण हुँ वीक कम्र में गयां। उ नि मिल। वीथें कये गिर्दा न्हें गो कै….” गिर्दा और शमशेर के बचपन के साथी शमशेर को शम्भू कहते थे। अगर ठीक याद है तो उस बार शमशेर लोग अल्मोड़ा की विधायक रमा जोशी के डेरे में ठहरे थे। गिर्दा मेरे लिए यह चिट आकाशवाणी में जिज्ञासु जी के पास छोड़ गया था।
वे मेरी पढ़ाई के दिन थे। तो भी दो-तीन बार मैं उनके साथ वन सचिव और मुख्य वन संरक्षक से मिलने गया। जिस धैर्य लेकिन दृढ़ता के साथ शमशेर इन अधिकारियों से बात करता, वह उसकी समझ को ही नहीं, उसकी नेतृत्व क्षमता भी दिखाता था। आवाज में जोर होता, निडरता होती और अपनी पैनी निगाहों से सामने वाले को देख कर वह बात करता। किसी बात पर गुस्सा आ जाता तो वह संयम नहीं खोता था लेकिन तर्क और तथ्यों से अपना रोष व्यक्त करने से चूकता नहीं था। तब उसके चेहरे की भंगिमा भी आक्रोश व्यक्त करती थी। इन मुलाकातों-बैठकों से पहाड़ की समस्याओं के बारे में मुझमें भी समझ आने लगी। उससे पहले पहाड़ मेरे लिए नराई का कारण ही ज्यादा थे।
शमशेर के प्रति तब सम्मान और बढ़ गया था जब सुना कि अल्मोड़ा डिग्री कॉलेज छात्र संघ के किसी कार्यक्रम का उद्घाटन एक सफाई कर्मचारी से कराया गया। जब पता चला कि छात्र संघ को स्टार पेपर से चंदे के रूप में मिली बड़ी रकम को वापस कराने के लिए शमशेर धरने पर बैठ गया, क्योंकि वह पेपर मिल चंदे से आंदोलनकारी छात्रों का मुँह बंद कराना चाहती थी, तब वह मेरे नायकों में शामिल हो गया। दिनमान में प्रकाशित पहली ‘अस्कोट-आराकोट यात्रा’ की विस्तृत रिपोर्ट पढ़ने के बाद शेखरदा, कुंवर प्रसून और प्रताप शिखर के साथ शमशेर से मुहब्बत हो गयी थी।
1977 में पत्रकारिता में आ जाने के बाद मेरा पहाड़ जाने पर नैनीताल और अल्मोड़ा रुकना अनिवार्य-सा हो गया। नैनीताल में पहले रोहिला लॉज और फिर ‘नैनीताल समाचार’ का दफ्तर अड्डा बनता, अल्मोड़ा में पल्टन बाजार वाला शमशेर का डेरा। किराये के उस कमरे के साथ मुहल्ले का सामूहिक ‘कमाऊ’ शौचालय था। मेरे सो कर उठने तक वह गंदगी से भर गया होता। उसे लेकर शमशेर हमेशा संकोच में पड़ जाता, लेकिन मैं आराम से उसी का इस्तेमाल करता। उसे हमेशा यह याद रहा। हाल-हाल तक किसी से परिचय कराते हुए वह यह प्रसंग बताना नहीं भूलता था। और तो और, अल्मोड़ा में मेरे उपन्यास ‘दावानल’ के लोकार्पण समारोह में भी उसने इसका जिक्र किया था।
शमशेर की उस कोठरी से जुड़ी कई यादें हैं। खासकर, ‘थैंक-यू मिस्टर ग्लाड’ के मंचन के दौरान और ‘नशा नहीं, रोजगार दो’ आंदोलन के समय की। रिहर्सल या मीटिंगों-प्रदर्शनों के बाद रात को वह डेरा बहसों- व्यसनों- गीतों- नारों से गुलजार हो उठता। उस दौर के निर्मल और षष्ठी की बहुत याद आती है। गिर्दा तो खैर मन-मस्तिष्क से उतरते ही कब हैं ? बेहिसाब अनिर्णीत बहसें, कुछ झगड़े, ढेर सारी मुहब्बतें और अगले दिन की योजनाएं। शमशेर सबके खाने और दूसरी व्यवस्थाएं करने में लगा रहता, बीच-बीच में गम्भीरता से अपनी राय देता। खासकर, जब गिर्दा पूछ लेता- ‘शम्भू, कैसा रहेगा ?’
शमशेर की सबसे बड़ी समस्या सुबह-सुबह उन खाली शीशियों को ठिकाने लगाने की होती जो हमने रात को चुपचाप किसी कोने में छुपा दी होतीं। उसे इससे नफरत थी। निर्मल और षष्ठी को वह डांट भी देता, लेकिन हम सब गिर्दा की आड़ ले लेते। शमशेर गिर्दा का बड़ा लिहाज करता था। उससे कुछ कह नहीं पाता था। ‘नशा नहीं, रोजगार दो’ आंदोलन के दिनों इसकी सख्त मनाही थी। तब भी गिर्दा कभी-कभी बेईमानी कर जाता। सुबह अपने झोले में छुपाकर शीशी ले जाते हुए शमशेर कहता- ‘कोई देख लेगा तो क्या कहेगा, यार!’
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यह वह दौर था, जब शमशेर लगभग हर घटना-दुर्घटना स्थल पर यथाशीघ्र पहुँच जाता था। वहां जरूरी हस्तक्षेप करने के अलावा वह उसकी रिपोर्ट तैयार करता और अखबारों को भेजता। हफ्ते-दस दिन में ‘स्वतंत्र भारत’ के पते पर मेरे नाम का एक लिफाफा आ ही जाता था, जिसमें शमशेर की भेजी रिपोर्ट होती या कोई प्रेस-विज्ञप्ति। ‘दावानल’ लिखने के दौरान मैंने अपनी पुरानी फाइलें खोलीं थीं तो शमशेर की भेजी दर्जनों रपटों की कार्बन-प्रतियां मिलीं। किसी में कहीं भूस्खलन की रपट थी तो कहीं बस दुर्घटना की और कहीं शराब पीकर हुई मौतों कीं। मामूली कैमरे से खीचीं तस्वीरें भी साथ नत्थी रहतीं। इस्तेमाल करने के बाद मैं उन्हें सम्भाल लेता था।
ऐसी ही एक रिपोर्ट बारात की एक बस के खाई में गिर जाने के बारे में थी। नशे में झूमते बारातियों ने ड्राइवर को भी पिला दी थी, जिस कारण दुर्घटना हुई थी। चरम त्रासदी यह थी कि दुर्घटना में मृत बारातियों का दाह संस्कार कर वापस लौटते शेष बारातियों ने फिर शराब पी और फिर उनकी गाड़ी खाई में गिर गयी थी। उसमें भी कुछ मौतें हुईं। शमशेर ने यह रिपोर्ट बड़ी व्यथा और गुस्से में लिखी थी।
एक आंदोलनकारी के साथ-साथ शमशेर का विकास एक समर्पित, जनमुखी पत्रकार के रूप में भी हुआ था। ‘नैनीताल समाचार’, ‘जंगल के दावेदार’ और ‘जनसत्ता’ में प्रकाशित उसकी अनेक रपटें प्रोफेशनल पत्रकारों के कान काटने वाली हैं। ऐन घटनास्थल तक तत्काल पहुँचने, अधिकारियों की बजाय जनता से मिलकर तथ्य बटोरने और उनकी समस्या का चेहरा करीब से देखने-महसूस करने से ही ऐसी पत्रकारिता सम्भव थी।
1978 की भागीरथी की भीषण बाढ़ से उत्तरकाशी और उस इलाके की भारी तबाही की खबर पाकर शमशेर और गिर्दा फौरन घटनास्थल को रवाना हुए थे। उस तबाही का मूल कारण पहाड़ टूटने से भागीरथी में बनी एक झील थी। भारी तबाही के बीच जहां रास्ता नहीं था, गिर्दा और शमशेर कई बार चैपाया बन कर उस झील तक पहुँचे थे। यह उन्हीं की रिपोर्ट थी जिसने बताया था कि ज्योति और डांग्ला के बीच पूरा ढोकरयानी पहाड़ टूट कर भागीरथी के प्रवाह को रोके हुए था। आधी झील पहले टूट कर तबाही मचा चुकी थी। डांगला की चोटी से जब वे उस झील को देख रहे थे तो वह दोबारा टूटने के लिए बौखला रही थी। दोनों अपनी जान की परवाह न कर नीचे भागे थे ताकि प्रशासन और जनता को सावधान किया जा सके। शमशेर बताता था कि एक जगह ऊपर से गिरते एक भारी पत्थर से गिर्दा कैसे बाल-बाल बचा था। सीखने के इच्छुक युवा पत्रकारों को ‘नैनीताल समाचार’ के पन्नों में उस तबाही का हाल जरूर पढ़ना चाहिए।
इससे एक साल पहले तवाघाट में भयानक भू-स्खलन से कई गांव दफ्न हो गये थे। नैनीताल- अल्मोड़ा से युवाओं की टीम दौड़ी-दौड़ी वहां पहुँची थीं। तबाही की यथार्थ रिपोर्टिंग तो हुई ही, उजड़े लोगों को बसाने का आंदोलन भी तत्काल शुरू हो गया था। शमशेर बराबर इसमें शामिल था। जुलूस और कई दिन धरना-प्रदर्शन के बाद पीड़ित गांवों के लोगों को तराई में बसाने में सफलता मिली थी। इस पूरे दौरान शमशेर वहीं डटा रहा था। मनाण से लेकर झिरौली तक, चांचरीधार से लेकर जनौटी- पालड़ी तक ऐसे कितने ही वाकये हैं जब पत्रकारिता और आंदोलन साथ-साथ चले।
दरअसल, शमशेर की पत्रकारिता उसके आंदोलनकारी को खाद-पानी देती थी। जनता से जुड़ने और उसके हितों के लिए संघर्ष करने की ललक उसकी पत्रकारिता को धार देती थी। दोनों रूप एक-दूसरे की भूमिका को सामान्य स्तर से ऊपर उठाते थे। कई बार आलोचना के लिए (कभी सराहना के लिए भी) कहा जाता था कि आंदोलनकारी और पत्रकार एक साथ कैसे हुआ जा सकता है ? सच यह है कि आंदोलकारी जिस जनमुखी, समर्पित पत्रकारिता की अपेक्षा करता है, व्यावसायिक पत्रकारिता में वह नहीं मिलती तो कई बार उसे स्वयं उस भूमिका में आना पड़ता है। उन्हें उस तटस्थ पत्रकारिता से कतई संतोष नहीं होता जो सिर्फ सही-गलत सूचना देने को ही अपनी जिम्मेदारी मानती है। शमशेर के साथ तो ऐसा था ही, उत्तराखण्ड के कुछ और मित्रों के लिए भी यह सच रहा है और जरूरी भी।
शमशेर में नेतृत्व क्षमता गजब की थी। आम तौर पर वह बहुत विनम्र और संयमी था, लेकिन जरूरत पड़ने पर किसी को भी और किसी भी स्थिति में ललकार सकता था। स्थानीय आंदोलनों में उसने कई बार जिला प्रशासन और पुलिस से डट कर मोर्चा लिया। आंदोलनों में वह जनता से शांतिपूर्ण भागीदारी की अपील करता था। अराजक या उग्र भीड़ को पहले अपील और फिर ललकार से नियंत्रित और शांत करा देता था। सभाओं में अगर उसे लगता कि बहुमत उचित या समयानुकूल नहीं है तो वह अपनी असहमति रखने में हिचकता नहीं था, बल्कि उसके विश्वास भरे हस्तक्षेप से अनेक बार पूरी सभा की राय बदल जाती थी। उसकी नेतृत्व क्षमता पहचान कर हेमवती नंदन बहुगुणा उसे कांग्रेस में ले जाना चाहते थे, किंतु उसकी मानसिक बनावट उसे उस राह जाने नहीं दे सकती थी।
देश भर में जगह-जगह चले जन-आंदोलनों से शमशेर का बराबर सम्पर्क रहा। कई संगठनों और आंदोलनों में उसने भागीदारी भी की। इण्डियन पीपुल्स फ्रण्ट में सक्रिय रहा तो बनवारी लाल शर्मा, अनुपम मिश्र, स्वामी अग्निवेश, आदि के साथ भी काम करता रहा। इस सक्रियता ने उससे यात्राएं भी खूब कराईं। उसके राष्ट्रीय सम्पर्कों का लाभ उत्तराखण्ड के आंदोलनों को भी मिला। उत्तराखण्ड की समस्याओं और जन-आंदोलनों के दमन की खबरें राष्ट्रीय स्तर पर पहुँचाने में ये सम्पर्क काम आये। उत्तराखण्ड से बाहर वह यहां की संघर्ष परम्परा की पहचान जैसा था।
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दो-तीन साल से शमशेर के साथ मुलाकातें कम हो गयी थीं। सेहत के कारण उसकी यात्राएं कम हो गयी थीं और मेरी भी। फोन पर बात होती रहती थीं। हाल के दिनों में मैं फोन करने में भी संकोच करता कि पता नहीं कितना कष्ट हो। शेखरदा या राजीव से हाल पूछ लेता था।
हमारी आखिरी मुलाकात नवम्बर 2017 में हुई थी। मैं और सतीश अपने गांव से लौट रहे थे। अल्मोड़ा कुछ देर रुके। पहले पी सी से मिले। फिर उसे लेकर शमशेर के घर गये। वह छत वाले कमरे के बाहर तखत पर बैठा था। कुछ दिन पहले दिल्ली में एम्स में दिखा कर लौटा था। तबीयत कुछ बेहतर थी। पास में एक टूटी और एक साबुत गुलेल रखी थी, बंदरों को भगाने के लिए।
मैं सत्ताईस साल बाद अपने गांव जा सकने से उत्साहित किंतु वहां के उजाड़ हाल से व्यथित था। शमशेर को बताया कि यार, अब वहां सिर्फ सात-आठ लोग बचे हैं।
-‘पूरे पहाड़ का यही हाल है, नवीन,’ उसने कहा था- ‘लोग अल्मोड़ा छोड़ कर जा रहे हैं। वह तो दूर का गांव हुआ। फिर हमेशा की तरह वह पहाड़ के हालात पर चिंता व्यक्त करते हुए राज्य सरकार के अजीबोगरीब फैसलों की चर्चा करने लगा था।
थोड़ी देर बैठ कर हम लौट आये थे। चलते समय उसने कहा था- ‘अज्जू की शादी है, नवीन (अब तारीख-महीना याद नहीं) आ जाना।’ घर में पुताई लगी हुई थी।
उसके बाद दो-तीन बार फोन पर हाल-चाल लिये थे। बीमारी ने उसे जल्दी हमसे छीन लिया। उत्तराखण्ड को उस जैसे जुझारू लोगों की आज बड़ी जरूरत है। हमें गिर्दा अभी चाहिए था। शमशेर चाहिए था। लड़ाइयां जारी हैं, विकट हो रही हैं और लड़ाका साथी एक-एक कर जा रहे हैं।
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पिछली नवम्बर की आखिरी मुलाकात में शमशेर और पीसी को बात करते देख मैं सोच में भी पड़ा था। लम्बे समय तक उत्तराखण्ड की बेहतरी के लिए कंधे से कंधा मिला लड़े ये दोनों ऊर्जावान और जुझारू साथी पिछले कुछ सालों से अलग हो गये थे। एक समय था जब दोनों साथ-साथ थे और उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी बड़ी ताकत बन गयी थी। उस समय वह चुनावी राजनीति में उतरती तो सम्भव था कि आज स्थितियां बहुत बदली होतीं। तब चुनाव में भाग लेने-न लेने पर विवाद हो गये। फिर वाहिनी में बिखराव शुरू हो गया। वैचारिक कारणों से भी टूट हुई।
पीसी और शमशेर में वैचारिक मतभेद कोई नहीं रहे। पद-प्रतिष्ठा का भी टकराव नहीं था। कुछ निजी बातें खटक गयीं या गलतफहमियां थीं। दोनों का एक ही मोर्चा था, एक जैसे मुद्दे, एक जैसी लड़ाई लेकिन साथ नहीं थे। राष्ट्रीय दलों की रुपया-बहाऊ चुनावी राजनीति का मुकाबला करने और जनता को बेहतर राजनैतिक विकल्प देने के लिए भी ये संसाधन-गरीब साथी अलग-अलग मैदान में उतरते रहे। यह देखना तकलीफदेह था, निजी स्तर पर भी और संघर्षशील ताकतों के बिखराव के कारण भी। पूरे उत्तराखण्ड में जनता के मुद्दों के लिए लड़ने वाले इस बिखराव का शिकार हैं। इसीलिए कोई असरदार राजनैतिक हस्तक्षेप नहीं हो पा रहा।
क्या शमशेर को यह मुद्दा परेशान करता था ? पता नहीं. पीसी से एक-दो बार इस पर बात हुई लेकिन शमशेर से मैं नहीं पूछ सका। अब वह चला गया है। उसकी लड़ाइयां बाकी हैं। बहुत सारे सवाल भी मुंह बाये खड़े हैं। कुछ लोग जूझ रहे हैं लेकिन उत्तराखण्ड की हालत बदतर होती जा रही हैं। शमशेर की स्मृति के बहाने ही सही, क्या अलग-अलग मोर्चा खोले साथी साझा शत्रु के खिलाफ अब भी एक होने की पहल करेंगे ?