योगेश भटृ
वाह सरकार वाह, क्या दांव खेला है ! इधर बजट पेश किया और लगे हाथ गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित कर दिया। इसे कहते हैं सियासत। एक ओर राजधानी के मुद्दे पर नयी बहस, तो दूसरी ओर समर्थन और विरोध के बीच बधाईयों और जलसों का सिलसिला। एक ही झटके में सारे मुद्दे गायब हो गए और बजट से जुड़ा हर सवाल भी हाशिये पर पहुंच गया। अब न सरकार की नाकामियों पर चर्चा है और न मुख्यमंत्री के बदलने की बातें। दुखद है तो यह कि गैरसैंण राजधानी का मुद्दा सियासत की बिसात पर एक बार फिर से ‘मोहरा’ बना। जबकि सही मायने में तो इस दांव ने स्थायी राजधानी के मुद्दे को ही बहुत पीछे धकेल दिया है।
विडंबना देखिए, सवालों से घिरी सरकार बेशर्मी के साथ खुशी मना रही है। न जाने सरकार के किस साहस की बात हो रही है? आठ साल से जहां हर गर्मी में सरकार मजमा जुटा रही है उसे ग्रीष्मकालीन राजधानी का नाम देने में कैसा साहस? सच तो यह है कि सरकार में दम राजधानी बनाने का तो क्या एक जिला बनाने तक नहीं है। साहस तो तब होता अगर सरकार गैरसैंण को स्थायी राजधानी घोषित करती। आठ साल में तीन मुख्यमंत्री आए, गैरसैंण के नाम पर तीनों ने खेला मगर कोई यह साहस नहीं दिखा पाया कि गैरसैंण को पहले जिले के रूप में अलग प्रशासनिक इकाई ही बना दिया जाए।
साफ समझ में आ रहा है कि सरकार छल कर रही है, मगर सियासत के आगे सब बेबस हैं। पता है कि गैरसैंण के नाम सिर्फ ढोंग हो रहा है, मगर सरकार के फैसले पर झूमना मजबूरी है। अब तो दो दशक का अनुभव हो चला है, राष्ट्रीय दलों की सरकारें कभी भी गैरसैंण के पक्ष में रही ही नहीं। उन्होंने तो इस मुद्दे पर सिर्फ खेला है। खेला न होता तो बीस साल बाद भी उत्तराखंड बिना राजधानी वाला राज्य नहीं होता।
हिमालयी राज्यों की श्रृंखला में कोई भी राज्य ऐसा नहीं है जो अस्थाई राजधानी से चल रहा हो या जिसकी राजधानी पर्वतीय क्षेत्र में न हो। उत्तराखंड के साथ और उसके बाद बने राज्यों की ओर नजर घुमाइये तब पता चलता है कि उत्तराखंड के साथ सियासतदांओं और नौकरशाहों ने क्या क्रूरता की है। कहीं सुना है कि राज्य की राजधानी तय करने के लिए राजधानी चयन आयोग बनाया गया हो? सालों तक करोड़ों रुपया खर्च करने के बाद आयोग ने रिपोर्ट दी तो आखिर नतीजा क्या रहा, सिफर। स्थायी राजधानी के नाम के हजारों करोड़ रुपए नेता, अफसर और ठेकेदारों ने ठिकाने लगा दिये। अस्थायी राजधानी में स्थायी राजभवन, मुख्यमंत्री आवास से लेकर तमाम बड़ी-बड़ी बिल्डिंगें खड़ी कर दी गयी मगर राज्य की राजधानी कहां होगी यह आज तक तय नहीं कर पाये।
सरकारें तो राज्य में बारी-बारी भाजपा और कांग्रेस दोनो की रही हैं, दोनो ही छल भी करती रही हैं। याद कीजिये, भाजपा की जो सरकार आज ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित करने को अपना साहसिक कदम बता रही थी, वही सरकार विपक्ष में रहते हुए सदन में गैरसैंण को स्थायी राजधानी की मांग कर रही थी। मदन कौशिक आज मंत्री हैं लेकिन उस वक्त विपक्ष के विधायक के नाते सदन में वे बकायदा प्रस्ताव लेकर आए। आज जो कांग्रेस सवाल उठा रही है और गैरसैंण को स्थायी राजधानी घोषित करने की मांग कर रही है, वह जब सरकार में थी तो क्या कर रही थी ? हो सकता है कांग्रेस के कुछ नेताओं की मंशा गैरसैंण को राजधानी बनाने की रही हो लेकिन कांग्रेस की मंशा कभी नहीं रही।
कांग्रेस ने तो सबसे पहले गैरसैंण की अवधारणा पर चोट की राजधानी के अध्याय में भराड़ीसैंण का नाम जोड़कर। कांग्रेस श्रेय लेने की कोशिश भले ही करे लेकिन राजधानी के मुद्दे पर वह कभी स्पष्ट नहीं रही, सिर्फ भावनाओं से खेलती रही। कांग्रेस के पास तो बड़ा मौका था गैरसैंण को राजधानी घोषित करने का लेकिन सच्चाई यह है कि उसकी मंशा भी इसे सिर्फ ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने की ही थी। सच्चाई यह है कि कांग्रेस के जो नेता आज सवाल उठा रहे हैं, वह खुद गैरसैंण राजधानी के पक्ष में नहीं थे। सनद रहे यह वही कांग्रेस है जो अपने शासनकाल में एक ओर भराड़ीसैंण में पत्थर लगावा रही थी और दूसरी ओर देहरादून के रायपुर इलाके में नया विधानसभा भवन बनाने की तैयारी में थी।
बहरहाल नादान हैं वो, जो इसे आधी जीत और जनभावनाओं का सम्मान बताकर होली-दिवाली मना रहे हैं। जिन्हें आज तक राजधानी का ही नहीं पता वो क्या जाने कि ग्रीष्मकालीन राजधानी क्या होती है? ग्रीष्मकालीन राजधानी तो उस राज्य की होती है जिसकी कोई स्थायी राजधानी हो। जब स्थायी राजधानी ही नहीं तो ग्रीष्मकालीन राजधानी कैसी? सरकार में वाकई साहस है तो यह कहकर दिखाए कि उत्तराखंड की स्थायी राजधानी देहरादून है। कभी नहीं कर पाएगी सरकार ऐसा, दरअसल सरकार राजधानी के मुद्दे पर सिर्फ भटकाना चाहती है और वही कर भी रही है।
सच्चाई तो यह है कि स्थायी राजधानी का मुद्दा अब बहुत पीछे चला गया है। सरकार की इस घोषणा के बाद यह भी साफ हो गया है कि राजधानी के नाम पर व्यवस्था आने वाले दिनों में देहरादून और गैरसैंण के बीच झूलती रहेगी। पूरे प्रकरण में यह चिंता जायज लगती है कि उत्तराखंड जैसा छोटा राज्य क्या दो अस्थायी राजधानियों का बोझ उठा पाएगा ? मौजूदा हालात तो यह हैं कि हर माह तकरीबन छह सौ करोड़ रुपये सरकार को कर्ज उठाना पड़ता है। ऐशो आराम के आदी हो चुके राज्य के नेताओं और अफसरों के लिए गैरसैंण में व्यवस्थाएं जुटाने और हर साल उनके ‘रैले’ को देहरादून से गैरसैंण और गैरसैंण से देहरादून ले जाने में सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च होंगे, उनकी व्यवस्था आखिर कहां से होगी ? राज्य के पास कर्ज का ब्याज भरने और तनख्वाह बांटने तक के पैसे तो हैं नहीं, तमाम घोषणाएं और वादे अधूरे हैं और बात की जा रही दो राजधानी चलाने की।
सही मायने में तो सवाल एक, दो या तीन राजधानियों का नहीं बल्कि ‘मंशा’ का है। आंध्र प्रदेश तो तीन राजधानियां बनाने जा रहा है। पिछले दिनों वहां के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी ने घोषणा की कि दक्षिण अफ्रीका की तरह प्रदेश की तीन राजधानियां होंगी। राज्य की विधायी राजधानी अमरावती, प्रशासनिक राजधानी विशाखापत्तनम और न्यायिक राजधानी कर्नूल में होगी। इस घोषणा के बाद अमरावती में विरोध प्रदर्शन हुए तो विशाखापत्तनम और कर्नूल में जश्न का महौल था। सरकार के फैसले पर दो मत वहां भी हैं, यह चिंता वहां भी है कि जब एक राजधानी बनाने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं हैं तो तीन राजधानियां क्यों ? मगर वहां सरकार की मंशा पर कोई सवाल नहीं था। अमरावती राजधानी की भी सरकार ने पहले घोषणा की और फिर उसका मास्टर प्लान तैयार किया।
तीन राजधानियों का निर्णय भी वहां राज्य की आर्थिक और राजनैतिक परिस्थतियों के साथ ही ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के मद्देनजर लिया गया। विशाखापत्तनम तो पहले से खासा विकसित शहर है, वहां जनता की न कोई मांग थी और न किसी तरह का दबाव, फिर भी सरकार ने वहां प्रशासनिक राजधानी स्थापित करने का निर्णय लिया। वास्तविकता क्या है, यह तो कहा नहीं जा सकता लेकिन बताते हैं इसके पीछे एक कारण यह भी है कि अमरावती क्षेत्र में जमीनों की कीमतों में भारी वृद्धि हुई, बड़े पैमाने पर अवैध लाभ कमाया गया। मतलब साफ है कि आंध्र प्रदेश में सरकार के निर्णय के पीछे मंशा नेक नजर आती है।
राजधानी तो उत्तराखंड में भी तीन ही होने जा रही हैं, देहरादून, गैरसैंण और हल्द्वानी। देहरादून और गैरसैंण तो सामने हैं ही, हल्द्वानी को लेकर सुगबुगाहट है कि वहां हाईकोर्ट शिफ्ट होने जा रहा है। मतलब हल्द्वानी न्यायिक राजधानी। मगर फर्क यह है कि यहां सरकार की मंशा नेक नहीं है। गैरसैंण के संदर्भ में की गयी घोषणा के बारे में यह कहा जाना भी कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि सरकार ने इसकी किसी को भनक नहीं लगने दी। घोषणा को मास्टर स्ट्रोक बताना और विपक्ष को चारों खाने चित्त करने वाला बताने से अंदाजा लगाया जा सकता है कि सरकार के लिए यह सियासत का मुद्दा है या जनभावनाओं के सम्मान का। मंशा सही होती तो गैरसैंण में जमीन की खरीद फरोख्त को नियंत्रित किया जाता। मगर यहां तो सब उल्टा है गैरसैंण में जमीन की खरीद फरोख्त पर लगी रोक भी हटा दी गयी है।
ग्रीष्मकालीन राजधानी का कोई मास्टर प्लान सरकार के पास फिलवक्त नहीं है और बिना मास्टर प्लान के यह एक सियासी स्टंट से ज्यादा कुछ नहीं। सरकार को लगता है कि इस फैसले का आगे कोई सियासी लाभ होने जा रहा है तो यह सरकार की गलतफहमी है। इस फैसले से सरकार को असल मुद्दों से ध्यान हटाने में फौरी राहत तो मिल सकती है, लेकिन किसी तरह का सियासी लाभ कतई नहीं।