देवेश जोशी
अच्छी फिल्म समीक्षा के लिए जरूरी है कि समीक्षक, खूब-सारी फिल्म देखता रहता हो। अपनी बात करूं तो सालों से कोई फिल्म देखी ही नहीं। ना थियेटर में और न ही किसी दूसरे माध्यम में। पिछली बार देखी फिल्मों को याद करूं तो वो एक जर्मन फिल्म थी और दूसरी ब्रिटिश। हाॅलीवुड मूवीज़ भी कह सकते हैं। दोनों विश्वयुद्ध से सम्बंधित थी और अपने किसी प्रोजेक्ट के होमवर्क को पुख्ता करने के लिए देखी थी।
बीता रविवार इसलिए भी एक इतिहास बन गया कि थियेटर में एक नहीं दो फिल्में देखी। पाताल ती और सुनपट। दोनों गढ़वाली शाॅर्ट फिल्में हैं और क्रमशः बुसान इंटनेशनल शाॅर्ट फिल्म फेस्टिवल और इंडियन नेशनल फिल्म फेस्टवल गोवा में चयनित और प्रदर्शित हो चुकी हैं। थियेटर था, हिमालयन कल्चरल सेंटर नींबूवाला, देहरादून। थियेटर में आईएमए के जेंटलमैन कैडेट्स की आर्ट एग्जीबिशन बोनस के रूप में देखने को मिली।
आर्ट फिल्मों को देखने के लिए धैर्य चाहिए होता है। थीम से परिचय भी और बिहाइंड द सीन देखने की दृष्टि भी। पाताल ती की बात करें तो निश्चित ही विषय या कथा व शिल्प चयन के लिए निर्देशक को दाद देनी पड़ेगी। फिल्म शाॅर्ट जरूर है पर निर्देशक ने कोई शाॅर्ट-कट नहीं लिया है। लोकेशन्स की बात की जाए तो वो आम यात्री के लिए ही अत्यंत दुर्गम हैं तो फिर फिल्म-यूनिट के लिए तो काम खतरनाक स्तर का ही हो जाता है। मुख्य लोकेशन तिब्बत-सीमांत का अंतिम भारतीय गाँव मलारी, कोषा के खड़े पर्वत-पहाड़ हैं। नगण्य संवाद हैं, फिर भी फिल्म मुखर है। कारण, युवा नायक आयुष की बोलती आँखें हैं और प्राकृतिक ध्वनियों का सटीक, खूबसूरत प्रयोग। कैमरामैन का कौशल भी सराहनीय है। वो जो दिखाना चाहते थे, उसे बखूबी पिक्चराइज़ कर पाये हैं।
फिल्म की विषयवस्तु एक भोटिया लोककथा पर आधारित है। इसमें एक मरणासन्न वृद्ध की पाताल ती पाने की तड़प को पूरा करने, उसका पोता अनजाने-अनदेखे गंतव्य की ओर निकल जाता है, दादी की खतरों-भरी-राह की चेतावनी के बावजूद। दर्शकों को सहज हि फिल्म नायक में सिंदबाद जहाजी का अक़्स दिखने लगता है। पाताल ती, भोटिया जनजाति के मिथकों में वर्णित पवित्र-जल है। पाताल ती का उनके लिए वही महत्व है जो गंगाजल का हिंदुओ के लिए, आब-ए-ज़मज़म का मुसलमानों के लिए और होली वाटर का क्रिश्चियन्स के लिए है।
आर्ट फिल्म और फीचर फिल्म में एक अंतर मुझे ये भी लगता है कि फीचर फिल्म जहाँ संस्कृति का जनरलाइजेशन करती दिखती है तो वहीं आर्ट फिल्म विशिष्ठता और विविधता पर फोकस करती है, उसे हाइलाइट करती है। पाताल ती की ही बात करें तो, इस फिल्म को देखने से पहले क्या कोई कल्पना कर सकता है कि गंगा के जलागम क्षेत्र में ऐसे भी रहवासी हैं जो जीवन की विदाई के क्षण, अपनी जिह्वा पर पाताल ती की नमी की अभिलाषा रखते होंगे।
फिल्म के किसी दर्शक ने सवाल उठाया था कि पाताल ती के लिए नायक शिखर की ओर क्यों जाता है, उसे तो गहरे उतरना चाहिए था। मिथकीय उत्तर ये कि मिथक-वर्णित जल के लिए कई बार चढ़ना-उतरना होता है। वो किसी भी मिथ में सीधी राह में नहीं मिलता। और विज्ञान-सम्मत उत्तर ये कि लोकेशन के प्रमुख मोटर मार्ग में तपोवन में हाॅट वाटर स्प्रिंग है, जिससे निकलता पानी, उत्तराखण्ड के किसी भी अन्य स्रोत से गर्म है। ये गर्म पानी धरती के गर्भ से निकलता है और इसे पाताल ती कहना पूर्णतया सार्थक है। फिल्म में दिखाये गये ताल-स्रोत में उठते बुलबुले भी इस बात को पुष्ट करते हैं कि पानी ताल की गहराई में स्थित किसी गहरे स्रोत से निकल रहा है।
बिहाइंड द सीन ये कि सीमांत के गाँव से युवा पीढ़ी गायब है। वहाँ गिनती के घरों में बूढ़े और बच्चे ही रह गये हैं। वहाँ हवा अभी इतनी साफ है कि आसमान असली नीले रंग में, नंगी आँखों से देखा जा सकता है। और ये भी कि शिखर पर रहने वाले लोग स्वाभाविक रूप से नीचे से ऊपर उठने वाली चीजों के प्रति सम्मान और श्रद्धा रखते हैं। पाताल ती के प्रति श्रद्धा का भी यही प्राकृतिक और स्वाभाविक कारण है। ऊँचे शिखरों पर आरोहण के लिए हौसला और जज़्बा चाहिए होता है जबकि गिराने के लिए महज गुरुत्व ही काफी है।
नायक के ज़िक्र के बगैर समीक्षा अधूरी रहेगी। उसके हिस्से कोई संवाद नहीं था फिर भी फिल्म और दर्शकों में संवादहीनता नहीं दिखती है। चौदहवर्षीय नायक, आयुष अपने भोले चेहरे और बोलती आँखों से, दर्शकों को सब कुछ समझा पाने में समर्थ है। दादा की अंतिम अभिलाषा-पूर्ति का उसका संकल्प, कठिन यात्रा की बाधाएँ और अंत में दादा की आत्मा को पाताल ती प्राप्त होने का संतोष।
गढ़वाली जैसी न्यून व्यवहारियों वाली भाषा में आर्ट फिल्म (शाॅर्ट) बनाने के लिए जुनून की जरूरत होती है। इस जुनून को दर्शक-दीर्घा का आँकड़ा ही परवान चढ़ा सकता है। जब संख्या कम हो तो समूह में एकत्र होकर इसे बड़ा होने का मनोबल प्राप्त किया जा सकता है। पृथक राज्य बनने के बावजूद, सांस्कृतिक पहचान की छटपटाहट से मुक्त होने के लिए क्या ये बात कम है कि हमारे इलाके की किसी विस्मृत लोककथा को देश-दुनिया ने रूपहले पर्दे पर देखा, समझा और सराहा।
बड़ी चुनौतियों का सामना उससे भी बड़े हौसले से करने वाले पाताल ती के निर्देशक संतोष रावत जो राॅ इमोशन्स को पकड़ने और प्रदर्शित करने में भी उतने ही सफल दिखे, जितने कथ्य-शिल्प के चयन में। प्रोड्यूसर Gajendra Rautela और कैमरामैन दिव्यांशु रौतेला पिता-पुत्र हैं। पिता के पास ट्रैकिंग का लम्बा अनुभव है, अध्ययन का व्यसन व सृजन का जज़्बा और इतिहास। पुत्र ने ये सब जींस से भी हासिल किया है और सान्निध्य व लगन से भी। छोटी उम्र में पकड़ी राह उन्हें बड़ी मंज़िल दिलाएगी। फिल्म में नायक, सहनायक/नायिका सहित पूरी यूनिट को बहुत-बहुत बधाई। उच्चतर मंज़िलों को हासिल करने के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ।
जो साथी इस बार नहीं देख पाये वो अगला मौका भूल कर भी न चूकें। शुरू में ही कहा था कि मैं फिल्में ही नहीं देखता तो उनकी समीक्षा क्या करूंगा। बहरहाल फिलम-चरचा ही समझ लीजिए।