विनीता यशस्वी
सुबह जल्दी ही नींद खुल गयी। गाँव में सभी लोग, विशेषकर महिलायें, अपने रोजमर्रा के कामों में व्यस्त थे। कुछ महिलायें घरों को लीप रही थीं तो कुछ महिलायें जानवरों का दूध निकाल कर आ रही थीं। घरों के सामने कद्दू और मक्का सुखाने के लिये रखे गये थे। कुछ देर गांव में टहलने के बाद हम लोग आगे बढ़ने को तैयार हो गये। आज हमें चढ़ाई वाले रास्ते पर जाना था और काफी लम्बा रास्ता तय करना था।
रोशन हमें रास्ता दिखाने के लिये काफी दूर तक हमारे साथ आया। सुबह के समय मौसम अच्छा है और चलने में भी मजा आ रहा है। अब काली नदी हमसे दूर होने लगी है, क्योंकि अब हम ऊँचाई की ओर जा रहे हैं।
रास्ते में हमें फलों से लदे हुए जंगली आंवले के पेड़ दिखे। हमने कुछ आंवले तोड़े और भांगे के नमक के साथ खाये। हम लोग अब तक काफी ऊपर आ गये हैं। काली नदी दिखनी बंद हो गयी है। हमें अब जलतूरी गांव की ओर बढ़ना है। एक स्कूली लड़की दिखायी दी। हमने उससे आगे गांव का रास्ता पूछा। बातचीत के दौरान जब उसे मालूम पड़ा कि हम लोग पैदल यात्रा में निकले हैं तो उसे हमसे सहानुभति हुई। अपने घर में किसी को फोन कर उसने कहा- ‘‘शिबौ, ये लोग कितना पैदल चल गये हैं ? इनको घर में बैठा के चाय पिला देना।’’ उसने अपने घर का पता हमें बताया और अपने जानवरों को चराने के लिये जंगल चली गयी।
गांव के मंदिर में नवरात्रि की पूजा चल रही थी। कई लोग हमें मंदिर जाते दिखायी दिये। हम लड़की के बताये हुए पते पर चले गये। वहीं पर बैठ कर लोगों से बातें कीं। नवरात्रि की पूजा की व्यस्तता के बावजूद हमारे लिये चाय और बिस्कुट का इंतजाम कर दिया गया। एक दीपक चंद ने हमें बताया- इस गांव में 60 परिवार हैं। पलायन कम हुआ है। स्कूल और अस्पताल की समस्या यहां भी अन्यत्र की तरह हैं। दीपक बताते हैं कि हाल के सालों में मौसम बदला है और अब आम भी हो जाते हैं। परन्तु पानी की कमी है गांव में।
इन लोगों के साथ थोड़ा समय बिताने के बाद हम लोग ध्याण की ओर चले गये। अभी भी हमें और चढ़ाई चढ़नी है और मौसम गर्म होने लगा है। ध्याण तक की चढ़ाई हालांकि तीखी है, पर रास्ता जंगलों के बीच से है। इसलिये बहुत ज्यादा परेशानी नहीं हुई। हमें बताया गया है कि ध्याण में हमें टैक्सी मिल जायेगी।
हम लोगों ने अभी तक कुछ खाया नहीं है, इसलिये अब थोड़ा भूख भी लगने लगी है। मगर फिलहाल खाना मिलने की कोई भी उम्मीद नहीं है। ध्याण पहुंच कर हम सड़क के किनारे टैक्सी का इंतजार करने लगे। हमें ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा और जल्दी ही हमें जमतड़ी के लिये हमें एक टैक्सी हमें मिल गयी। सड़क नाममात्र के लिये है। इसमें डामर नहीं हुआ है और जो खुदी हुई सड़क है, वह भी अब खराब होने लगी है। इतने बड़े-बड़े गड्ढे कि टैक्सी का पूरा का पूरा संतुलन ही खो जाता है। रास्ते में हमें प्रख्यात लोकगायिका कबूतरी देवी का गांव क्वतीड़ भी दिखायी दिया। काफी बड़ा गांव है और देखने में खूबसूरत भी है।
टैक्सी ने हमें जमतड़ी में उतार दिया। अब हमें फिर से पैदल ही चलना है और हल्दू गांव तक पहुंचना है। भूख से हालत खराब होने लगी है। जमतड़ी में एक रेस्टोरेंट दिखा था, पर वह बंद था। अब दूर-दूर तक भी हमें कुछ खाने को मिलने की कोई उम्मीद नहीं थी।
हम पांच महिलाओं को इस तरह जाता देख गांव की एक महिला बोली- ‘‘तुम सब अकेली ही हो ? तुम सब घघरिया (महिलाओं के लिये प्रयोग किया जाने वाला शब्द) अकेले ही क्यों आ गयीं ? किसी मर्द को तो साथ में ले आतीं।’’ खैर उन्होंने हमें हल्दू गांव का रास्ता बता दिया। पतला संकरा सा रास्ता नीचे की ओर जा रहा है। इस रास्ते पर काली नदी अब फिर से साथ में आने लगी है।
थक कर हम लोग एक जगह सुस्ताने बैठ गये। कुछ ड्राई फ्रूट और एक नमकीन के पैकेट से ही भूख मिटाने की ठानी। पानी भी कम था। इसलिये हम पानी पीने में कंजूसी बरत रहे थे। इतना चल चुकने के बाद भी हमें यह अंदाजा नहीं था कि अभी कितना और जाना है। रास्ते में कोई दिखायी भी नहीं दिया, जिससे कुछ पूछ पाते। आगे चल कर रास्ता बेहद खराब हो गया। गोल-गोल पत्थरों पर चलने में बेहद फिसलन हो रही थी। बहुत सावधानी से कदम रखने पड़ रहे थे।
अंधेरा घिरने लगा था और हम किसी ठिकाने पर पहुँचने के लिये चिन्तित थे। नीचे एक गांव दिखायी दिया तो लगा कि शायद यही हल्दू है। हम लोग यही बातचीत करते हुए आगे बढ़ रहे थे कि ज्योति पत्थरों पर फिसल कर गिर गयी और उसके पैर में मोच आ गयी। अब हमारी चलने की रफ्तार भी धीमी हो गई। जैसे तैसे हम लोग गांव तक पहुंचे तो मालूम पड़ा कि यह सौरिया गांव है। हल्दू गांव 2 किमी. पीछे छूट गया है। मगर हम लोगों में से किसी की स्थिति और ज्यादा चलने की नहीं थी। इसलिये रात हमने सौरिया में ही काटी। गांव के लोगों ने हमारे रुकने और खाने का इंतजाम भी कर दिया।
सुबह हम सौरिया के ग्रामीणों से मिले। यहाँ कुल 90 परिवार हैं। नजदीकी बाजार पिथौरागढ़ ही है, इसलिये इन्हें हर छोटे-बड़े कामों के लिये पिथौरागढ़ की ओर ही जाना पड़ता है। स्कूल के बारे में एक हैरान कर देने वाली बात पता चली। बताया गया कि स्कूल का रास्ता चौमू देवता के मंदिर से होता हुआ जाता है। जब कोई महिला या लड़की माहवारी में होती है तो उसे इस रास्ते का इस्तेमाल नहीं करने दिया जाता। स्कूल पढ़ने वाली लड़की स्कूल नहीं जा सकती और अगर किसी महिला को कहीं जाना है तो उसे घूम कर दूसरे रास्ते से जाना पड़ेगा। इस अंधविश्वास ने ग्रामीणों को जकड़ रखा है कि यदि कोई चौमू देवता को अपवित्र करेगा तो देवता उसे सजा देंगे।
गांव में सिंचाई की सुविधा है। धान, मक्का आदि फसलें अपने खाने भर के लिये हो जाती हैं। पलायन कम हुआ है। सड़क के नाम पर बीजेपी और कांग्रेस की सिर्फ राजनीति ही चलती है। सड़क की सख्त जरूरत है इन लोगों को। एक ग्रामीण का कहना है कि अगर बांध बना और हम लोगों को यहां से जाना पड़ा तो भी सड़क तो चाहिये ही। सड़क के बगैर हम अपना इतना सामान और जानवर लेकर कैसे जायेंगे ? ये लोग कबूतरी देवी से परिचित हैं और बताते हैं कि वे ऋतुरैण गाने के लिये आया करती थीं और यहीं रहती थीं। उन्होंने कबूतरी देवी के गाने भी गा कर सुनाये।
यहां से हम भौर्या गांव की ओर बढ़े। नहर के किनारे-किनारे के रास्ते चलते हुए थकावट नहीं लग रही है। काली नदी नीचे ही बह रही है। भौर्या गांव में लोगों से बातचीत करने के दौरान कुछ स्कूली बच्चे भी आ गये। उनका कहना था कि शिक्षा की स्थिति बहुत खराब है। स्कूल हैं नहीं और जो हैं उनमें अच्छी पढ़ाई नहीं हो पाती। एक महिला के अनुसार अस्पताल और सड़क की उन्हें सख्त जरूरत है। एक साधारण सा टीका लगाने के लिये भी क्वीतड़ जाना पड़ता है। यहाँ के लोगों की भी यही शिकायत थी कि नेपाल के पिछड़े इलाकों में तक सड़क आ गयी है, मगर हमारे हाल जस के तस हैं।
मनरेगा से कोई लाभ नहीं मिल रहा है। मनरेगा का पैसा भी पिछले तीन सालों से अभी तक नहीं आया है, इसलिये उसमें काम नहीं होता। पहले रोज का पैसा मिल जाता था तो अच्छा था। पर अब चैक से पैसा आता है इसलिये मिलता ही नहीं है। ये लोग अपने खाने के लिये और थोड़ा-बहुत बेचने के लिये मछलियां पकड़ लाते हैं। मगर काली नदी में नहीं पकड़ते। ओखलागाड़ में पकड़ते हैं। पिथौरागढ़ में बहने वाली ठूली गाड़ यहां आकर ओखलागाड़ बन जाती है। ये लोग भी पूजा आदि के लिये नेपाल जाते रहते हैं। इनके देवता भी चौमू हैं, जिनके सामने नजरें झुका कर रहना पड़ता है। नहीं तो वे लग जाते हैं और तब झाड़ने के लिये धामी को बुलाना पड़ता है। सौरया गाँव की ही तरह लड़कियों और महिलाओं को माहवारी के दिनों में अलग रहना पड़ता है।
यहां से खड़ी चढ़ाई चढ़ते हुए और ओखला गाड़ को पार करते हुए हम रौतगड़ा गांव पहुंचे। रौतगड़ा को जाने वाला पुल अब टूटने को है। उसे जुगाड़ तकनीक से अभी तक इस्तेमाल लायक बना रखा है।
रौतगड़ा में हाइस्कूल है। आगे की पढ़ाई या तो बच्चे कर नहीं पाते या फिर उन्हें बाहर जाना पड़ता है। अस्पताल की यहां भी समस्या है। सड़क अब बनी तो है पर डामर नहीं हुआ है। ऐसे ही खुदी हुई सड़क में मैक्स टैक्सी दौड़ने लगी है।
रौतगड़ा में एक पहाड़ी रैस्टोरेंट में हम लोगों ने चाय पी और मैगी खायी। फिर पैदल-पैदल ही तड़ेमियां गांव की ओर निकल गये। तड़ेमियां के हालात भी बाकी गांवोंं जैसे हैं। माहवारी के वक्त महिलाओं और बच्चियों का चौमू के मंदिर में जाना वर्जित है। स्कूल और अस्पताल की समस्या है। यहां गहत के दाल की अच्छी फसल हो जाती है। लोग उसे बाजार में बेच लेते हैं। पर सब्जी और दूध बाजार में नहीं बेचते।
अब तक चोट के बावजूद जैसे तैसे हमारे साथ घिसट रही ज्योति तड़ेमियां से टैक्सी लेकर अपने मामा के घर चली गयी। हम बाकी चार लोग पंचेश्वर की ओर उतर गये। इस तीखी ढलान वाले रास्ते पर भी फिसलने वाले गोल पत्थर हैं, पर ज्यादा नहीं।
अचानक हम लोग पंचेश्वर मंदिर के सामने थे। पहले तो हम लोगों को यकीन ही नहीं हुआ। मगर मंदिर में नाम लिखे होने से भ्रम की गुंजाइश नहीं थी। पास ही सरयू और काली नदी का संगम था, जहाँ इन दिनों पानी कम होने के कारण रौखड़ सा बना था। अपनी यात्रा पूरी होने को हम लोगों ने कुछ समय तक सुकून से आराम करते हुए बिताया। नीचे नदी के पास जाकर उसमें पाँव भिगोते हुए कुछ देर खड़े रहे। मंदिर के बाबाजी से बातचीत की तो वे बांध के विरोधी निकले। उनका कहना था कि यहाँ बांध बन ही नहीं सकता। उनकी आस्था कि भगवान की शक्ति बांध नहीं बनने देगी।
हम लोगों का मन तो यहां बैठे रहने का हो रहा था। परन्तु आगे भी बढ़ना था और एक बार फिर रात को रहने का इंतजाम करना था। 2-3 किमी. का रास्ता तय कर हमने सरयू नदी पर बने पुल को पार किया और भकुण्डा गाँव पहुँच गये।
अपने रुकने के लिये एक होटल में कमरा किराये पर लेने के बाद हम टैक्सी से उस जगह पहुंचे जहां बांध बनने का काम चल रहा है। इस समय तक बिल्कुल अंधेरा हो चुका था। कुछ एक मजदूरों को छोड़ कर बाकी कुछ नजर नहीं आया। इन मजदूरों ने बताया कि फिलहाल यहां डायनामाइट लगा कर पहाड़ों को तोड़ने का काम चल रहा है। मजदूरों से थोड़ा-बहुत बातचीत कर हम लौट आये।
यहां हमें गांवों के महत्व का अहसास हुआ। न तो हमसे किसी ने रहने के लिये पूछा और न ही न ही किसी ने अपने घर में खाना खाने के लिये ही बुलाया। सड़क के होने के फायदे तो होते ही हैं, पर नुकसान यह है कि लोग अपनापन भूल जाते हैं। हर चीज को पैसों से जोड़ के देखने लगते हैं। खैर, खाना खा कर हम होटल के अपने कमरे में आ गये। कमरे के अंदर हमारी चारपाइयां चिपकी हुई थीं और एक लाइन में लगी हुई थीं। बिस्तरों से भी बास भी आ रही थी। पर एक रात काटनी है, सोच कर हम लोग जैसे-तैसे लेट गये।
अगली सुबह हम लोग अंधेरे में ही उठ कर लोग तैयार हो गये। हमने अमरुवासेरा तक जाना था। मौसम अच्छा था और इतनी सुबह चलने में मजा भी आ रहा था। अब सरयू नदी हम लोगों के साथ चल रही थी। सबसे पहले पत्थ्यूणा गांव आया, जहाँ हम प्रकाश चंद के परिवार से मिले। इन्होंने बताया कि हमारे पूर्वज मूलतः धनगड़ी गांव के हैं और पुश्तों पहले यहां आ गये थे। इनके देवता कैलपाल हैं। इन दिनों ये लोग भी नवरात्रि में व्यस्त थे। बांध बनने से बहुत ज्यादा खुश तो नहीं थे, मगर मनमाफिक मुआवजा मिलने पर इन्हें विस्थापित होने पर कोई एतराज भी नहीं था। अलबत्ता मोदी सरकार से वे थोड़ा नाराज लगे कि मोदी जी ने वायदे तो बहुत किये पर काम कुछ नहीं किया। इस गांव में भी इंटरमीडिएट तक ही विद्यालय है, इसलिये आगे की पढ़ाई नहीं हो पाती। अस्पताल भी एक बड़ी समस्या है।
आगे सड़क का नाम नहीं है। पगडंडी जैसे रास्ते से होते हुए ही हम आगे बढ़े। गांव जो नजर आ भी रहे थे, काफी दूरी पर थे। उन तक जाना हमारे लिये संभव नहीं था। पगडंडी वाले रास्ते पर चलते हुए ही हम लोग सिमलौदा, नैतिर और नेत्र सालान होते हुए अन्ततः अगरूवासेरा तक पहुंचे। अमरूवासेरा में हमारा टैक्सी वाला आ गया और फिर हम लोगों की नैनीताल की वापसी यात्रा शुरू हो गई।
पंचेश्वर बांध के बहाने हमें इन इलाके के लोगों से रूबरू होने और उनकी समस्याओं को नजदीक से जानने का मौका मिला। यह पता चला कि इन लोगों की अपेक्षायें बहुत बड़ी नहीं हैं। इनकी छोटी-छोटी समस्याओं का समाधान कर दिया जाये तो ये अपने जीवन से संतुष्ट हैं। इन सभी का कहना है कि उन्हें विकास चाहिये और एक अच्छी जिन्दगी चाहिये। कुछ लोग प्रस्तावित पंचेश्वर बांध के लिये अपने घर और जमीन छोड़कर नहीं जाना चाहते हैं। मगर बहुत से लोग ऐसे भी हैं, जिन्हें उम्मीद है कि दूसरी जगह जायेंगे तो वहां जिन्दगी शायद ज्यादा अच्छी होगी। यहां की तरह कठिनाइयों से भरी नहीं होगी।
घुमक्कड़ी और फोटोग्राफी की शौकीन विनीता यशस्वी नैनीताल समाचार की वैब पत्रिका ‘www.nainitalsamachar.org’ की वैब सम्पादक हैं।