योगेश भट्ट
‘जनता द्वारा’, ‘जनता के लिए’, ‘जनता की सरकार’, लोकतंत्र की परिभाषा में सरकार की यह प्रचलित अवधारणा है । सरकार को लेकर इस अवधारणा पर उत्तराखंड में आज बड़ा सवाल है । राज्य के सुदूर सीमांत जिले पिथौरागढ़ के महाविद्यालय में किताब और शिक्षक के लिए छात्र और उनके अभिभावक महीने भर से आंदोलनरत हैं । तकरीबन एक दशक तक आपातकालीन स्वास्थ्य सेवा 108 में सेवाएं देने के बाद सेवा से बाहर हो चुके सैकड़ों बेराजगार राजधानी में सड़कों पर हैं । रोजगार की बहाली न होने की स्थिति में वह इच्छा मृत्यु की मांग कर रहे हैं । पहाड़ की राजधानी पहाड़ (गैरसैण) में होने की मांग करने पर मुकदमे झेल रहे आंदोलनकारी जेल में हैं, मुकदमे वापस करने को लेकर आंदोलनकारी सड़कों पर हैं ।
इसके अलावा एक और आंदोलन भी है जो ‘सुलग’ तो रहा है मगर अभी बाहर नहीं निकल पा रहा है, वह है सरकारी मेडिकल कालेजों में फीस पाचं गुना बढ़ जाना । आंदोलन तो उत्तराखंड की नियति है, राज्य भर में चल रहे आंदोलनों की यूं तो फेहरिस्त लंबी है। शायद ही कोई ऐसा सरकारी महकमा, विश्वविद्यालय, संस्थान, कचहरी और कलेक्ट्रेट हो जिसमें में कोई न कोई आंदोलन चल या सुलग न रहा हो । मगर सिर्फ इन आंदोलनों का ही जिक्र इसलिए क्योंकि यह उस सरकार की अवधारणा पर सवाल हैं, जिसे प्रचंड बहुमत वाली डबल इंजन की सरकार कहा जाता है । निसंदेह सरकार जनता के लिए ही होती है लेकिन प्रदेश में चल रहे इन आंदोलनों को देखकर ऐसा कतई नहीं लगता । सरकार जनता की और जनता के द्वारा होती तो यकीनन यह आंदोलन न चल रहे होते ।
चलिए पिथौरागढ़ के ‘शिक्षक पुस्तक ’ आंदोलन से शुरू करते हैं । पिथौरागढ़ महाविद्यालय के छात्र अर्से से अपने यहां नयी पुस्तकों और शिक्षकों की मांग कर रहे हैं । सरकार को भेजे पत्रों और ज्ञापनों पर बात नहीं बनीं तो छात्रों ने आंदोलन का रास्ता पकड़ा । आंदोलन का तरीका भी ऐसा कि इस सरकार छात्रों के दर्द को महसूस कर सके । महाविद्यालय के छात्र ‘उम्मीद है इसलिए चुप हैं…’ स्लोगन के साथ पिथौरागढ़ की सड़कों पर मौन प्रदर्शन पर हैं । छात्रों की मांग जायज और संवेदनशील होंगी कि अभिभावक भी छात्रों के साथ सड़क पर हैं । खास बात यह है कि लंबे समय के बाद यह सुनायी दे रहा है कि महाविद्यालय के छात्र किताबों की मांग कर रहे हैं । छात्रों की इस मांग को भविष्य के लिहाज से देखा जाए तो यह अच्छा संकेत है । सोशल मीडिया पर छात्रों के इस आंदोलन को जिस तरह समर्थन मिल रहा है, उसे देखते हुए इस आंदोलन से बड़ी क्रांति के आगाज की उम्मीद की जाने लगी है ।
सरकार के स्तर पर भी इसे सकरात्मक तरीके से लिए जाने की जरूरत थी । इस आंदोलन की संवदनशीलता को देखते हुए राष्ट्रीय ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय मीडिया भी इसे ताकत दे रहा है, मगर दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि उत्तराखंड की सरकार बेपरवाह है । सवाल यह उठता है कि आखिर आंदोलनरत छात्र ऐसी कौन सी मांग कर बैठे हैं, जो उच्च शिक्षा विभाग या सरकार के बूते की बात नहीं है ? ऐसा तो कुछ भी नहीं मांग रहे छात्र जिसमें कि कोई कानूनी या प्रशासनिक अड़चन हो । सरकार से वहीं मांग तो कर रहे जिसके लिए सरकार होती है । फर्क यही है, सरकार जनता की होती तो छात्रों की मांग की गंभीरता को समझती । मगर यहां तो सरकार छात्रों के एक सीधे सरल आंदोलन में ‘साजिश’ तलाश रही है, ‘सियासत’ ढूंढ रही है, छात्रों की एक जायज मांग को आंकड़ों में उड़ा रही है । सच्चाई यह है कि महाविद्यालय में छात्रों की संख्या लगभग सात हजार और उन्हें पढ़ाने के लिए शिक्षक पूरे सौ भी नहीं है । मानक के मुताबिक सात हजार छात्रों को पढाने के लिए ढाई सौ से अधिक शिक्षक जरूरी हैं, मगर यहां तो पद ही मात्र 120 मंजूर हैं । उसमें भी स्थायी शिक्षकों की संख्या मात्र सत्तर के करीब बतायी जाती है ।
अब आइये पुस्तकालय पर, यह सही है कि पुस्ताकालय में एक लाख दस हजार किताबे हैं । मगर सवाल यह है कि उनमें काम की किताबें कितनी हैं ? जिस पुस्तकालय की किताबों में 1989 में गिरा दी गयी बर्लिन की दीवार अभी भी खड़ी हो, जिन पुस्तकों में देश की जनसंख्या अभी नब्बे करोड़ ही हो । अंदाजा लगाइये कि वह पुस्तकें मौजूदा छात्रों के लिए कितनी उपयोगी होंगी । नब्बे के दशक की किताबोँ से अगर आज का पाठयक्रम पढ़ने पढ़ाने की बात हो रही है तो क्या यह छात्रों के साथ अन्याय नहीं है ।
दो दशकों में पाठयक्रम में ही नहीं पढ़ने पढ़ाने और परीक्षाओं का पैटर्न भी बदल चुका है । ऐसे में अगर छात्र मौजूदा पैटर्न की पुस्तकों की मांग कर रहे हैं तो इसमें गलत क्या है और साजिश क्या है ? कोई पूछे इस सरकार से कि छात्र महाविद्यालय के लिए शिक्षक और किताबें न मांगे तो आखिर क्या मांगे ? महाविद्यालय सिर्फ ऊंचे राष्ट्रध्वज और शौर्य दीवारों से ही तो नहीं चलते । विडंबना देखिए कि एक ओर देश की संसद में विदेशी छात्रों को भारत आकर उच्च शिक्षा पाने के लिए आकर्षित किये जाने की बात हो रही है, दूसरी ओर उसी देश के एक राज्य में शिक्षक और किताबों की मांग को लेकर चल रहे छात्र आंदोलन को सरकार सियासी करार दे रही होती है ।
मुद्दा यह है कि जनता की और जनता के द्वारा सरकार होती तो क्या ऐसा होता ? शायद कभी नहीं । जनता की सरकार होती तो कमियों और संसाधनों के अभाव को स्वीकारती, छात्रों की मांगों को गंभीरता से लेती, संसाधन और सुविधाएं जुटाती । जनता की सरकार जनता के माध्यम से समस्या का स्थायी समाधान ढूंढती, क्योंकि यह सवाल सिर्फ पिथौरागढ़ का नहीं बल्कि राज्य के हर सरकारी महाविद्यालय का है । जरूरी संसाधनों की व्यवस्था कहीं भी संतोषजनक नहीं है, हालात हर जगह पिथौरागढ़ महाविद्यालय जैसे ही हैं । बहरहाल, छात्रों के इस आंदोलन की परिणिति क्या होगी यह तो नहीं कहा जा सकता। हां, सरकार ने यह जरूर साबित कर दिया है कि उसे जनता की कोई परवाह नहीं ।
अब बात करते हैं आपातकालीन सेवा 108 में एक दशक तक सेवा देने के बावजूद बाहर हो चुके कर्मचारियों के आंदोलन की । तीन महीने से अपने हक के लिए देहरादून की सड़कों पर संघर्ष कर रहे इन कर्मचारियों को सरकार उनका हक तो नहीं दिला पा रही है । हक दिलाने के बजाय उन्हें अब जेल भेजा रहा है । मसला यह है कि आंदोलनरत तकरीबन 700 कर्मचारी दस साल से प्रदेश की आपातकालीन सेवा 108 में अपनी सेवाएं दे रहे थे। इस साल की शुरूआत में सरकारी सेवा 108 के संचालन का ठेका एक नयी कंपनी ने लिया है, चर्चा है कि यह कंपनी भाजपा एक बड़े नेता की है ।
ठेका लेते ही इस कंपनी ने पुराने कर्मचारियों को पहले के वेतन पर सेवा में रखने से इंकार कर दिया, नतीजा दस साल से काम कर रहे कर्मचारी बेरोजगार हो गए । कंपनी का कहना है कि उसने कम दरों पर ठेका लिया है इसलिए वह पूर्व की भांति कर्मचारियों को वेतन देने की स्थिति में नहीं है । दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि एक झटके में सड़क पर आ गए इन कर्मचारियों और भुखमरी की कगार पर पहुंच चुके उनके परिवारों के प्रति सरकार की भी कोई सहानुभूति नहीं है । इन कर्मचारियों के मसले पर सरकार साफ हाथ खड़े कर चुकी है । हाल यह है कि सरकार में कोई सुनवाई न होने की स्थिति में वह राष्ट्रपति से इच्छा मुत्यु तक की मांग कर रहे हैं ।
सवाल उठता है कि रोजी रोटी के संकट से जूझ रहे 108 के पूर्व कर्मचारियों का दोष आखिर क्या है ? क्या नाजायज मांग कर रहे हैं वह ? क्या यह कहना गलत है कि उनकी सेवाएं पहले की तरह ली जाती रहें । अपने जीवन के दस अहम साल सरकार की एक आपातकालीन सेवा को देने के बावजूद उन्हें अपने भविष्य की सुरक्षा का हक क्यों नहीं ? यह सुरक्षा उन्हें सरकार नहीं देगी तो कौन देगा ? यह जिम्मा अगर सरकार का नही तो किसका है ?
आश्चर्य है कि इन सवालों पर जिनको जवाब देना है वो गायब हैं । जो जिम्मेदार हैं वह बच रहे हैं । आखिर सरकार का काम समाधान देना नहीं तो फिर क्या है ? सोचिये सरकार जनता की और जनता के द्वारा होती तो क्या यह होता, शायद कभी नहीं ? जनता की सरकार होती तो नया ठेका करते वक्त इन सैकड़ों कर्मचारियों और उनके परिवारों का भविष्य भी ध्यान में रखा जाता । काश ऐसा हो पाता, यहां तो हालात यह है कि इस तरह के संकट के मुहाने पर हजारों परिवार हैं । सरकार के लिए काम करते हुए असुरक्षा के साये में जीने वालों की संख्या हजारों में है । तमाम महकमों में उपनल के जरिये लगे बीस हजार से अधिक कर्मचारियों, दो हजार के करीब शिक्षा मित्रों, अतिथि शिक्षकों, सैकड़ों इंजीनियरों और सरकार की विभिन्न परियोजनाओं में वर्षों से काम कर रहे कर्मचारियों का कोई भविष्य नहीं है । जनता की सरकार होती तो क्या राज्य में हजारों परिवार भविष्य की असुरक्षा के डर के साथ जीने को मजबूर होते ? हर जगह से सवाल घूमकर वही कि आखिर किसकी जिम्मेदारी है उन्हें सुरक्षा प्रदान करना ?
चलिये आगे बढ़ते हैं, एक नजर उन आंदोलनकारियों की जो गैरसैण को राजधानी बनाने की मांग कर कर रहे हैं । ऐसा आखिर क्या खतरा है सरकार को जो कि उन पर मुकदमे दर्ज किये गए ? और क्या गुनाह उनका है सरकार से इन मुकदमों को वापस करने की मांग कर रहे हैं ? गैरसैण पूरी तरह राज्य की आत्मा से जुड़ी राजनैतिक मांग है और राजनैतिक आंदोलनों के मुकदमे सरकारें हमेशा से वापस लेती रही है । राज्य बनने के बाद से ही अब तक इस तरह के सैकड़ों मुकदमे वापस हुए हैं तो फिर गैरसैण राजधानी आंदोलन के मुकदमों के साथ भेदभाव क्यों ? क्या इसलिए कि यह मुकदमे भाजपा या कांग्रेस के नेतृत्व वाले किसी प्रदर्शन या आंदोलन के दौरान के नहीं थे । कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि अपने ही राज्य में अपनी ही सरकार एक स्थायी राजधानी मांगने पर मुकदमे दर्ज करती है, आंदोलनकारियों को जेल जाना पड़ता है । ऐसे में फिर वही सवाल कि ‘जनता की’ सरकार होती तो क्या ऐसा होता ? शायद नहीं…
अंत में सरकार के एक विरोधाभास फैसले की बात भी । एक ओर सरकार प्रदेश में आर्थिक रूप से पिछड़ों को आरक्षण की व्यवस्था करती है, दूसरी ओर हल्द्वानी और देहरादून के मेडिकल कालेज में बांड व्यवस्था खत्म कर फीस पचास हजार सालाना से बढ़ाकर चार लाख रुपए सालाना कर देती है । सरकार से कोई यह पूछे कि अपने राज्य के मेडिकल कालेज में उन प्रतिभाशाली छात्रों के साथ यह फीस बढोतरी अन्याय है या नहीं ? कहां जाएगा राज्य का गरीब छात्र, कैसे राज्य का गरीब प्रतिभावान छात्र डाक्टर बनने का सपना देखेगा ? सरकार की नीति देखिए कि तीन सरकारी मेडिकल कालेज श्रीनगर, दून और हल्द्वानी में बांड व्यस्था सिर्फ दून और हल्द्वानी में खत्म की गयी है । इसका एक मतलब तो यह भी निकलता है कि गरीब छात्र दून और हलद्वानी के मेडिकल कालेजों में दाखिला ही न ले पाए । कितना दुर्भाग्पूर्ण है कि सरकार खुलेआम यह भेदभाव करती है, कहीं कोई सुनवाई नहीं होती । झक मारकर राज्य के छात्रों को हक के लिए उच्च् न्यायालय की शरण में जाना पड़ा है । यहां भी अंत में सवाल वही कि ‘जनता की’ सरकार होती तो क्या ऐसी नौबत आती ?
जरा सोचिये, क्या वाकई सरकार इतनी मजबूर है कि महाविद्यालयों में शिक्षक और पुस्तक नहीं दिला सकती ? इतनी कमजोर है कि सालों से सरकार को सेवा दे रहे कर्मचारियों का भविष्य सुरक्षित नहीं कर सकती ? इतनी बेबस है कि गरीब के प्रतिभावान बच्चों को डाक्टर बनने का सपना पूरा नहीं कर सकती ? इतनी बेखबर है कि राजधानी की मांग कर रहे आंदोलनकारियों के मुकदमे वापस नहीं ले सकती ? नहीं, कतई नहीं जो सरकार औली के बर्फीले ढलानों पर विवादित गुप्ता बंधुओं शादी की इजाजत देने, भागीरथी और अलकनंदा के संगम देवप्रयाग में शराब की बाटलिंग कराने, पौड़ी में भांग की खेती का लाइसेंस देने, नगर निकायों की सीमाओं का विस्तार करने, भू कानून में संसोधन कर पहाड़ में जमीनों की खरीद फरोख्त की खुली छूट देने और, गैरसैण में जमीनों की खरीद फरोख्त पर से रोक हटाने जैसे फैसले ले सकती है वह मजबूर या बेबस कतई नहीं हो सकती ।
इस सरकार ने तो बार बार यह साबित किया है कि सरकार चाहे तो क्या नहीं कर सकती । याद कीजिये उच्चतम न्यायालय ने राजमार्गों से शराब की दुकानें हटाने को कहा तो सरकार ने तब क्या किया ? सरकार ने दुकानें तो नहीं हटायी सड्क को ही राजमार्ग से बाहर कर दिया । ऐसा ही राजधानी में अतिक्रमण हटाने के मसले पर मसले पर भी हुआ, जिसे हटाना चाहा हटाया और जिसे बचाना चाहा उसे नही हटाया ।
अपनों पर राज्य के संसाधन लुटाने के लिए सरकार किसी भी हद तक जा सकती है । उसके लिए सरकार को न संसाधनों की कमी होती है और नियम कानून की आड़े आते हैं । सरकार को हर दिक्कत सिर्फ जनता के लिए आती है । पता नहीं सरकार, सरकार के सलाहकार, सरकार का तंत्र और उसके अफसर महसूस कर रहे हैं या नहीं कि ‘सरकार’ जनता से कट चुकी है । सरकार के खिलाफ जनआक्रोश बढ़ता जा रहा है, युवाओं में असंतोष फैल रहा है । हर ओर से यह सवाल उठने लगा है कि आखिर ‘डबल इंजन’ की सरकार है किसकी ? संभलने के लिए अब बहुत वक्त नहीं है ‘सरकार’, संभल सकते हो तो संभलिए…