देवेंद्र आर्य जी की इस कविता ने मुझे सन्न कर दिया है। कुछ सवाल गांधी वालों के सामने भी रखे हैं कवि ने। हम गांधी वालों को यह कविता जरूर पढ़नी चाहिए। और कुछ नहीं तो यही आजमा लें कि मन में कितनी सन्नाहट भरती है? भरती भी है या नहीं!!
संविधान के सीने पर बूटों से लिखी कविता
पढ़ पा रहे हो गाँधी!
वैसे भी उम्र हो गई है तुम्हारी
चश्मे की सफ़ाई तो हमने की मगर
अगरबत्ती दिखाने लायक़ तो तुम कभी के हो चुके थे
उससे भी पहले
जब नहीं बनी थी तुम्हारे शिष्य की उतनी ऊँची मूर्ति
जितने पूरे देश में स्कूल भी नहीं होंगे
पुस्तकालय तो छोड़ ही दो
अगरबत्ती दिखाने लायक़ तो तभी हो चुकी थी तुम्हारी दिलाई आज़ादी
जब तुम्हारे लायक़ लाल ने
तुम्हारे सीने में उतारी तीन गोलियों को श्वेत कबूतरों की तरह गगन में उड़ा दिया था और अपने होंठ गुलाबों से ढंक लिए थे
ये जो संविधान के सीने पर
रोशनी के बूटों से लिखी कविता है न गाँधी
है तो दशकों पुरानी
कभी नुकीले चाँद से लिखी गई
कभी तीन रंगों के खंजर से तो कभी ख़ाकी से
कभी कमल-नाल से
सीने में बसे पुतली बराबर तुम्हारे राम को
खींच कर तीन सौ फ़ीसदी बड़ा किया गया
कि तुम डेढ़ सौ साल बाद बौनों की तरह दिखो
तुम्हारी कितनी हिस्सेदारी है गांधी भक्तों
राम के ‘जय श्रीराम’ होने में
उसके लिए पैसे कहाँ से आते ?
सब तो तुम्हारी तरह अद्धी लपेटे विदेशी राष्ट्राध्यक्षों से मिल नहीं सकते
तो बढ़ानी पड़ी स्कूलों की फ़ीस
बेचने पड़े संसाधन
लिखना पड़ा नया अलिखित संविधान संगीनों से न्याय के सीने पर
पढ़ पा रहे हो गांधी
संविधान के सीने पर हुमची यह अंधी कविता ?
तुम तो पुराने देशद्रोही थे
तभी से जब देशद्रोह हिन्दू द्रोह में बदलने लगा था
जब हम देश से सरहद हो गये थे
सरहद से सरकस
सरकस से साज़िश होने में सत्तर साल लगे
संविधान के सीने पर बूटों से लिखी कविता
पढ़ पा रहे हो गाँधी!
दुनिया की सारी अच्छी कविताएँ
सीने पर ही क्यों लिखी गयी हैं बूटों से
One Comment
मनोज गुप्ता
सच को इतना सच लिखा दिया कवि ने लगता है सीना चाक कर दिया। नुकीले चांद से लिखी कविता देश के भाल पर काल के कपाल पर । तीन रंगों के खंजर सी चुभती कविता ।