प्रदेश में कृषि भूमि वैसे ही 13 प्रतिशत से कम है और अगर शासन-प्रशासन का यही रवैया रहा तो बची खुची जमीन भी भू माफियाओं और धन्ना सेठों के हाथ में चली जायेंगी और काश्तकारों की उन जमीनों पर अन्न या फल के बजाय इमारतें उगनें लगेंगी।
गाँवों से हो रहे पलायन पर क्रन्दन कर रही त्रिवेन्द्र सिंह रावत सरकार ने एक झटके में 300 से अधिक राजस्व ग्रामों को नगर निकायों के हवाले कर संविधान के 73 वें संशोधन में निहित ग्राम स्वराज और ग्रामीण लोकतंत्र भी भावना को तो जोर का झटका धीरे से दे ही दिया, साथ ही जाने या अनजाने में नगरीय क्षेत्रों के आसपास की कृषि भूमि को हड़पने के लिये भू माफिया को खुला निमंत्रण भी दे दिया। प्रदेश में कृषि भूमि वैसे ही 13 प्रतिशत से कम है और अगर शासन-प्रशासन का यही रवैया रहा तो बची खुची जमीन भी भू माफियाओं और धन्ना सेठों के हाथ में चली जायेंगी और काश्तकारों की उन जमीनों पर अन्न या फल के बजाय इमारतें उगनें लगेंगी।
प्रदेश के गाँवों से बड़े पैमाने पर हो रहे पलायन के मामले में सर्वाधिक चिंता जताने के लिये पलायन आयोग का गठन करने तथा चकबंदी कानून बनाने जैसे विभिन्न उपाय करने वाली त्रिवेन्द्र सिंह रावत सरकार गाँव समाज और ग्राम स्वराज के प्रति कितनी संवेदनशील है, इसका नमूना उसने एक झटके में प्रदेश के 7.47 लाख की जनसंख्या वाले 301 राजस्व ग्रामों को 35 नगर निकायों के सुपुर्द कर दे दिया है। राज्य सरकार द्वारा शुरू किये गये शहरीकरण के विस्तार में लगभग 250 ग्राम पंचायतें अपना अस्तित्व खो रही हैं। इन ग्राम पंचायतों को अब तक नगरों के निकट होने का लाभ तो मिल ही रहा था, साथ ही इन्हें त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था का अंग होने का लाभ भी मिल रहा था। लेकिन अब इन्हें अतिरिक्त शहरी सहूलियतें मिलें या न मिलें मगर इन पर शहरी करों का बोझ अवश्य ही पड़ जायेगा और ग्राम समाज अपने विकास की योजनाएँ स्वयं बनाने के बजाय शहरी बाबुओं पर निर्भर हो जायेंगे। यही नहीं सरकार की नगर विस्तारवादी नीति ने तराई से लेकर पुरोला, जोशीमठ और पिथौरागढ़ तक ग्रामीणों की कई पीढ़ियों की आजीविका की साधन जमीन को हड़पने के लिये बाहरी और साधन सम्पन्न लोगों को खुली छूट भी दे दी है। राज्य सरकार के ताजा नोटिफिकेशन के अनुसार इन 301 राजस्व गावों की 44,209.2977 हैक्टेअर जमीन के नगरीय क्षेत्र में आने से यह जमीन उत्तराखण्ड के बहुप्रचारित भूमि कानून की बंदिशों से मुक्त होने के साथ ही इन गावों में बाहरी अकृषक लोगों को जमीनों की खरीद फरोख्त के लिये खुली छूट मिल गयी है। यह वही भूमि कानून है जिसके लिये पहले नारायण दत्त तिवारी सरकार और फिर भुवनचन्द्र खण्डूड़ी सरकार स्वयं अपनी पीठ थपथपाने से नहीं थकतीं थीं।
उत्तराखंड राज्य गठन के बाद जब देखा गया कि सीमित कृषि भूमि के क्रय विक्रय से सम्बंधित मामले बड़े पैमाने पर सामने आ रहे थे और इस खरीद फरोख्त का मुख्य उद्ेश्य मुनाफाखोरी है। कृषि भूमि को गैर कृषि उपयोग में लाये जाने के साथ ही प्रदेश का कृषक भूमिहीन होता जा रहा है तो सरकार पर हिमाचल प्रदेश लैंड टेनेंसी एवं रिफार्म ऐक्ट 1972 की तरह ऐसा भूकानून लाने के लिये दबाव बढ़ा, ताकि प्रदेश के मूल निवासियों की बेशकीमती जमीनों को बाहरी लोग हड़प न सकें। इस अनियंत्रित खरीद फरोख्त से प्रदेश की अन्तर्राष्ट्रीय सीमाओं को देखते हुये असामाजिक तत्वों द्वारा भी कृषि भूमि के उदार क्रय विक्रय की नीति का अनुचित लाभ उठाये जाने की संभावनायें भी बढ़ रहीं थीं। इसलिये तिवारी के नेतृत्व वाली पहली निर्वाचित सरकार ने राज्य के आर्थिक स्थायित्व तथा विकास के लिये सम्भावनाओं का माहौल बनाये जाने हेतु एक विधेयक लाने का विचार किया था।
विधेयक से पहल तिवारी सरकार ने 12 सितम्बर 2003 को उत्तरांचल (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950) (अनुकूलन एवं उपान्तरण आदेश, 2001) (संशोधन) अध्यादेश 2003 प्रख्यापित किया। जिसे बाद में अधिनियम का रूप देने के लिये विधानसभा में पेश किया गया। मगर भूमाफिया और ग्रामीणों की जमीनों पर गिद्धदृष्टि जमाये धन्नासेठों को वह बिल रास नहीं आया। बाहरी लोगों के भारी दबाव में तिवारी सरकार ने विजय बहुगुणा, जो कि स्वयं इलाहाबाद से आये थे, के नेतृत्व में एक समिति बना डाली, जिसे जनता का पक्ष सुनने के बाद विधेयक का ड्राफ्ट तैयार करना था। जो व्यक्ति इलाहाबाद से पल और बढ़ कर अधेड़ उम्र में उत्तराखण्ड आया हो और जाति के सिवा जिसके पास पहाडी होने का कोई लक्षण न हो उससे आप उम्मीद भी क्या कर सकते थे ? इसलिये जो उत्तरांचल (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950) (अनुकूलन एवं उपान्तरण आदेश, 2001) (संशोधन) विधेयक 2003 आया, उसमें जमीनों को हड़पने पर रोक सम्बन्धी उत्तराखण्ड आन्दोलन की मूल भावना निचोड़ कर लगभग बाहर कर दी गयी। इस विधेयक के अनुसार बने अधिनियम में नगर निगम, नगर परिषद, नगर पंचायत एवं छावनी क्षेत्रों को छोड़ कर बाकी समस्त प्रदेश में लागू कर दिया गया। जबकि सितम्बर 2003 में जो अध्यादेश जारी हुआ था वह सम्पूर्ण उत्तराखण्ड की कृषि भूमि पर लागू था। कुल मिला कर राज्यपाल द्वारा जारी किये गये पहले अध्यादेश में कुल 13 संशोधन करा कर बहुगुणा समिति द्वारा उसकी आत्मा ही मार दी गयी। उसमें गैर कृषि उपयोग वाली भूमि के विक्रय पर भी प्रतिबंध था। संशोधन के बाद इसकी जगह यह व्यवस्था की गयी कि 500 वर्ग मीटर तक बिना अनुमति के अकृषक भी जमीन खरीद सकता है। तिवारी सरकार द्वारा मूल अधिनियम में धारा 152 (क), 154 (3), 154 (4) (1) एवं 154 (4) (2) जोड़ कर यह बंदिश लगा यह व्यवस्था कर दी थी कि प्रदेश में कोई भी अकृषक या जो मूल अधिनियम की धारा 129 के तहत जमीन का खतेदार न हो वह 500 वर्ग मीटर तक बिना अनुमति के भी जमीन खरीद सकता है। बाद में भुवन चन्द्र खण्डूड़ी ने वाहवाही लूटने के लिये 500 वर्ग मीटर की सीमा को घटा कर 250 वर्ग मीटर कर दिया। लेकिन मूल अध्यादेश के प्रावधानों को खण्डूड़ी ने भी बहाल नहीं किया। खण्डूड़ी सरकार ने भूमि कानून का प्रचार तो बहुत किया मगर उसने भी संशोधित अधिनियम की धारा 2 में नगर निगम, नगर पंचायत, नगर परिषद और छावनी क्षेत्रों की सीमा के अन्तर्गत आने वाले क्षेत्रों को बंदिशों से मुक्त करने के साथ ही यह प्रावधान भी जारी रखा कि भविष्य में इन नगर निकायों में जो ग्रामीण क्षेत्र शामिल होंगे उन पर भी यह कानून लागू नहीं होगा।
अतः जो गलती तिवारी और खण्डूड़ी सरकारों ने जाने या अनजाने में की उस गलती का भूमाफिया और नव धनाढ्य लोगों को ग्रामीणों की बेशकीमती जमीनें हड़पने की खुली छूट त्रिवेन्द्र सरकार ने दे दी। अब न केवल कोटद्वार, बाजपुर, काशीपुर, सितारगंज, खटीमा, हल्द्वानी और विकानगर आदि नगरों के आसपास के गांवों की जमीनें भूमाफियाओं के शिकंजों में होंगी अपितु उत्तरकाशी के बड़कोट, चमोली के जोशीमठ और रुद्रप्रयाग जिले के ऊखीमठ और अगस्त्यमुनी तथा पिथौरागढ़ के आसपास के गाँवों की जमीनें भी खरीद फरोख्त की बंदिशों से मुक्त हो जायेंगी। इस गाँव हड़प नीति के तहत उत्तरकाशी नगर पालिका अपने निकट के 16 गाँव हड़प सकती है तो देहरादून नगर निगम अपने आसपास के 60 गावों की 12051.708 हेक्टेअर जमीन हड़प रहा है। देव प्रयाग जैसी नगर पालिका में 15, अल्मोड़ा नगर पालिका में 23, हल्द्वानी नगर निगम में 52, काशीपुर में 16 और डोइवाला 8 गांव निगले जा रहे हंै। इस हड़प नीति के कारण अब तक नोटिफाइ किये गये 301 गांव अपना नाम, संस्कृति और स्वतंत्र अस्तित्व गंवा कर संबंधित नगर के नाम से जाने जायेंगे।
अगर गाँवों में भी नगर जैसी सुविधाएँ उपलब्ध कराने के लिये ग्राम इकाइयों को नगर निकायों के हवाले किया जा रहा है तो बात खप सकती है। लेकिन जब धनाभाव, जनशक्ति के अभाव और कुव्यवस्थाओं के कारण प्रदेश के नगर निगम और अन्य निकाय ही नागरिक समस्याओं से जूझ रहे हों तो फिर इतने गाँवों का अस्तित्व मिटाने से क्या फायदा ? सामान्यतः चाहे नगर निगम हों या नगर पंचायत, सभी में व्यवस्था और अव्यवस्था साथ-साथ चलते हैं। बढ़ती जनसंख्या एवं घटती सुविधाओं के कारण शहरों की पहचान समस्या-स्थलों के रूप में होने लगी है। बिजली, पानी, सीवर, सड़क और परिवहन प्रणाली के अभाव में सामाजिक असंतोष पनप रहा है। चूँकि शहरों में बढ़ती आबादी को खपाने की क्षमता खत्म हो चुकी है, इसलिए अब ये आसपास के ग्रामीण इलाकों को निगलते जा रहे हैं। जनगणना के तय मानकों के अनुसार किसी गाँव को तब कस्बे का दर्जा दे दिया जाता है जब उसकी आबादी पाँच हजार से अधिक हो, जनसंख्या का घनत्व प्रति वर्ग किलोमीटर 400 से ज्यादा हो और उसकी 75 फीसदी से अधिक पुरुष आबादी कृषि कार्यों से इतर दूसरे काम करती हो। इन मानकों के हिसाब से उत्तराखण्ड सरकार द्वारा नगर निकायों के सुपुर्द किया गया कोई भी गाँव नगर बनने लायक नहीं है।
पंच परमेश्वर की भावना से ओतप्रोत पंचायती राज व्यवस्था इस देश में वैदिक काल से कायम रही है। समय की मांग के साथ इसमें बदलाव भी आते रहे हैं। स्वतंत्र भारत द्वारा संसदीय लोकतंत्र अपनाने के बाद भी देश में किसी न किसी रूप में पंचायतीराज जरूर कायम रहा, मगर सन् 1992 तक राज्यों में ग्राम पंचायतों का गठन संविधान के 40वें अनुच्छेद में निहित नीति निर्देशक तत्वों की भावना पर निर्भर था। मतलब यह कि पंचायतों का गठन और उनका चुनाव कराना राज्य सरकारों की सदेच्छा पर निर्भर था। लेकिन राजीव गांधी के जमाने में नब्बे के दशक में न केवल सत्ता के अपितु लोकतंत्रीय ढांचे और यहां तक कि नियोजन प्रक्रिया के विकेन्द्रीकरण की बात सोची गयी तो संविधान में 73वां संशोधन कर त्रिस्तरीय पंचायत व्यवस्था को विधानसभा और लोकसभा की तरह आवश्यक संवैधानिक संस्था कर दिया गया। इसके साथ ही संविधान की 7वीं अनुसूची (राज्य सूची) की प्रविष्टि 5 में ग्राम पंचायतों को षामिल करके इसके सम्बन्ध में क़ानून बनाने का अधिकार राज्य को दिया गया और संविधान में भाग 9 को पुनः जोड़कर तथा इस भाग में 16 नये अनुच्छेदों (243 से 243-ण तक) और संविधान में 11वीं अनुसूची जोड़कर पंचायत के गठन, पंचायत के सदस्यों के चुनाव, महिलाओं के लिए ण्क तिहाई आरक्षण तथा पंचायत के कार्यों के सम्बन्ध में व्यापक प्रावधान किये गये। कुल मिला कर देखा जाय तो ग्राम पंचायतों का अतिक्रमण महात्मा गांधी की ग्राम स्वराज की अवधारणा के विपरीत है।