समाचार डेस्क
पिछ्ले कई बारों की तरह एक बार फिर बिन बताए बत्ती गुल है । यह ऊर्जा संकट अचानक आ गया, ऐसा दर्शाया जा रहा है पर अचानक हुआ कुछ नहीं है । यह अदूरदर्शिता , कुप्रबन्धन और राजनीति का मिला जुला परिणाम है ।
आंकड़ों में यदि झांकें तो वो कुछ इस प्रकार है –
(1 )सन् 2001 में उपभोक्ता – 8 लाख / सन् 2022 यानी अब उपभोक्ता 27.2 लाख
(2)सन्2001 में विद्युत मांग – 1466 मेगावाट / सन्2022 यानी अब मांग – 7967 मेगावाट
(3) उत्पादन सन् 2001 में- 798मेगावाट /सन् 2022 यानी अब उत्पादन 1356 मेगावाट ।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि जहां विद्युत भार यदि 443 प्रतिशत है तो उसके विरुद्ध उत्पादन केवल 35 प्रतिशत है ।
इस बिजली पर राजनीति की जो करंट दौड़ी वह इस प्रकार है – उत्तर प्रदेश पुनर्गठन एक्ट कहता है कि – परिसंपत्तियां जो जहां हैं उस पर राज्य का अधिकार होगा । पर टिहरी बांध के कुल विद्युत उत्पादन के 25 फीसदी हिस्से का आनन्द आज भी उत्तर प्रदेश उठा रहा है। उत्तराखंड के हित में इस मामले को, सुभाष कुमार (तत्कालीन विद्युत नियामक आयोग के अध्यक्ष ) ने सन् 2011-12 में सर्वोच्च न्यायालय में इस संबंध में एक याचिका भी दायर की तथा सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश को नोटिस भी जारी किया । परन्तु उत्तर प्रदेश सरकार किसी भी तारीख में हाजिर नहीं हुई और जब यह मामला उत्तराखंड के पक्ष में जा सकता था तो उत्तराखंड सरकार ने कोई रुचि इस मामले में नहीं दिखलाई। सर्वोच्च न्यायालय में ठोस पहल न लिए जाने के कारण उत्तराखंड आज भी टिहरी बांध के 25 प्रतिशत उत्पादन से वंचित है। अन्य विद्युत उत्पादक परियोजनाओं का हाल भी टिहरी बांध परियोजना के उत्पाद से बहुत अधिक भिन्न नहीं है। 400 मेगावाट उत्पादन वाली विष्णु प्रयाग परियोजना का 12 फीसदी हिस्सा उत्तराखंड को मिलता है पर उसके बचे हुए 88 प्रतिशत पर खरीद का हक उत्तर प्रदेश को प्राप्त है और यह समझौता 2002 की नारायण दत्त तिवारी सरकार द्वारा किया गया है। श्रीनगर परियोजना (330 मेगावाट) पर भी लगभग यही समझौता हुआ है । इन सभी परियोजनाओं में भूमि, विस्थापन का खर्च आदि तो राज्य सरकार ने उठाया है पर 88 प्रतिशत विद्युत खरीददारी का अधिकार उ० प्र० के पास सुरक्षित हैं।
एक अन्य राज्य हिमांचल के साथ हुए समझौते के अनुसार प्रति परियोजना उत्पादन का 25 प्रतिशत हिमांचल को देना होगा। ऐसी एक नहीं बल्कि पांच परियोजनाएं हैं और हिमांचल के पास अपनी आवश्यक्ता से अधिक बिजली पहले से ही मौजूद है।
हिमांचल और जम्मू कश्मीर प्रति घन लीटर के हिसाब से विद्युत उत्पादक कम्पनियों से जल कर लेती हैं जबकि उत्तराखंड मुफ्त जल उपलब्ध कराता है । जिस कारण उत्तराखंड को हजारों करोड़ का प्रतिवर्ष नुक्सान होता है।
इस वेन्टीलेटर में पड़ी स्थिति में जो थोड़ा बहुत आक्सीजन का काम कर सकती थी वह थी गैस द्वारा उत्पन्न की जाने वाली विद्युत , जिसका उत्पादन कुमांऊ में मै ० श्रावन्ती एनर्जी, अल्फा गामा आदि कम्पनियां कर रही थीं और यह उत्पादन लगभग 10 एम यू . था। काशीपुर के अतिरिक्त हरिद्वार और देहरादून में भी यह उत्पादन होता था जो कि लगभग 35 एम. यू . था । इस उर्जा उत्पादन के लिए इन कम्पनियों को सब्सिडी में गैस उपलब्ध कराई जाती थी । गैस उपलब्ध न होने के कारण पिछले 2-3 माह से यह विद्युत उत्पादन भी ठप है।
वर्तमान में उर्जा विभाग माननीय मुख्य मंत्री के पास है और उर्जा निगम द्वारा 15 से 16 करोड़ रुपए की खरीद के बावजूद विद्युत आपूर्ति नहीं हो पा रही है । विद्युत कटौती अघोषित तो है ही साथ ही इसका समय भी तय नहीं है । आम जन तो परेशान है ही पर कोविड से आई आपदा के बाद इस विद्युत आपदा ने कारखाना मालिकों की भी कमर तोड़ दी है। टिहरी बांध परियोजना पर 600 करोड़ रूपए खर्च कर अभी तक उत्तर प्रदेश अनुमानित 17 हजार करोड़ रु. कमा चुका है पर कैसी विडम्बना है कि कि कई – कई नदियों का उद्गम उत्तराखंड एक – एक वाट जल विद्युत लिए तरस रहा है ।