इन्द्रेश मैखुरी
“जो घाव लगे और जाने गयीं वे प्रतिरोध की राजनीति की कीमत थी”,1996 में इलाहबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति रवि एस.धवन की खंडपीठ ने अपने फैसले में लिखा.जिस सन्दर्भ में वे इस बात को लिख रहे थे,उस बात को आज 2 अक्टूबर 2020 को बीस साल हो गए हैं.आज से बीस वर्ष पहले 2 अक्तूबर 1994 को केंद्र में बैठी “मौनी बाबा” नरसिम्हा राव की सरकार से अलग राज्य की मांग करने दिल्ली जा रहे उत्तराखंड आन्दोलनकारियों को उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुलायम सिंह यादव सरकार के पुलिस प्रशासन ने मुजफ्फरनगर में तलाशी के बहाने रोका और फिर हत्या, लूटपाट,महिलाओं से अभद्रता और बलात्कार यानि जो कुछ भी गुंडे-बदमाश या कुंठित-विकृत मानसिकता के अपराधी कर सकते थे,वो सब देश की सर्वोच्च प्रशासनिक व पुलिस सेवा-आई.ए.एस. और आई.पी.एस. के अफसरों की अगवाई में किया गया.
आज छब्बीस बरस बाद भी उत्तराखंड को इन्तजार है कि इन हत्यारे,बलात्कारी अफसरों और अन्य कर्मियों को सजा मिले.चूँकि उत्तराखंड को आज भी मुजफ्फरनगर काण्ड के मामले में न्याय की दरकार है,इसलिए उस जघन्य काण्ड को मैं न्यायपालिका के कुछ फैसलों के नजरिये से याद करने की कोशिश करता हूँ.मुजफ्फरनगर काण्ड के खिलाफ यदि कोई सबसे सशक्त फैसला था तो वो 6 फ़रवरी 1996 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ती रवि एस.धवन और ए.बी.श्रीवास्तव की खंडपीठ ने दिया.273 पन्नों के इस फैसले में इन दोनों न्यायाधीशों ने इस प्रशासनिक अपराध के प्रति बेहद कठोर रुख अपनाया और पीड़ित उत्तराखंडी स्त्री-पुरुषों के प्रति इनका रवैया बेहद संवेदनशील था.दोनों न्यायाधीशों ने अलग-अलग फैसला भी लिखा और उनकी खंडपीठ ने संयुक्त निर्देश भी जारी किये.
जस्टिस रवि एस. धवन ने मुजफ्फरनगर काण्ड को राज्य का आतंकवाद करार दिया.जस्टिस ए.बी.श्रीवास्तव ने लिखा कि “महिलाओं का शीलभंग करना,बलात्कार करना,महिलाओं के गहने और अन्य सामान लूटना,वहशीपन की निशानी है जो कि आदिम पुरुषों में भी नहीं पायी जाती थी और यह देश के चेहरे पर एक स्थायी धब्बे की तरह रहेगा.”यह धब्बा आज भी धुला नहीं और पीड़ितों को न्याय की दरकार है,न्याय का इन्तजार है पर न्याय की उम्मीद नजर नहीं आती है.इलाहाबाद उच्च नयायालय ने ही इस काण्ड की सी.बी.आई.जांच का आदेश भी दिया.उक्त फैसले में सी.बी.आई. की कार्यप्रणाली की तीखी आलोचना की गयी है कि वह जानबूझ कर मामले को लटका रही है.अदालत ने लिखा कि सी.बी.आई. ने इस मामले में जिस तरह कार्यवाही की,उससे “समय और सबूत दोनों नष्ट” हो गए.आज छब्बीस साल बाद सी.बी.आई. की अदालतों में लंबित मुकदमों और एक-एक कर छूटते अभियुक्तों,तरक्की पाते और शान से रिटायरमेंट के बाद का जीवन गुजारते मुजफ्फरनगर काण्ड के दोषी अफसरों को देख कर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की बात सच होती प्रतीत हो रही है कि सी.बी.आई. की रूचि दोषी अफसरों को सजा दिलाने में नहीं है.इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उक्त फैसले में पुलिस की गोलीबारी में मरने वालों और बलात्कार की शिकार महिलाओं को 10 लाख रूपया मुआवजा देने का आदेश किया किया गया.साथ ही घायलों को 25 हज़ार,गंभीर रूप से घायलों को 2.5 लाख और अवैध रूप से बंदी बनाये जाने वालों को 50 हज़ार रुपये मुआवजा देने का आदेश दिया गया था.उत्तराखंड की तब की 60 लाख जनसँख्या के लिए अदालत ने आदेश किया था कि पांच साल तक एक रुपया,प्रति व्यक्ति,प्रति माह केंद्र और राज्य मिलकर जमा करें और इस राशि को उत्तराखंड के लोगों विशेषतौर पर महिलाओं के विकास के लिए खर्च किया जाए.अदालत ने इसे उत्तराखंडियों के घावों पर मरहम लगाने के छोटी विनम्र कोशिश कहा था.
1999 में 273 पन्नों के उक्त फैसले को मुजफ्फरनगर काण्ड के समय वहां के डी.एम.रहे अनंत कुमार सिंह की अपील पर सुप्रीम कोर्ट ने कुछ किन्तु-परन्तु लगा कर खारिज कर दिया.अनंत कुमार सिंह ने ही आन्दोलनकारियों पर गोली चलाने का आदेश दिया था और बाद में यह शर्मनाक बयान भी उन्ही का था कि “कोई महिला यदि रात के समय गन्ने के खेत में अकेली जायेगी तो उसके साथ ऐसा ही होगा”.ये अनंत कुमार सिंह ना केवल सपा,बसपा बल्कि कांग्रेस,भाजपा को भी अत्यधिक प्रिय रहे हैं.मुख्यमंत्री रहते हुए वर्तमान गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने अनंत कुमार सिंह के खिलाफ मुकदमा चलाने की इजाजत देने से इन्कार कर दिया और इन्हें प्रमोशन देकर अपना प्रमुख सचिव बनाया.केंद्र की पिछले कांग्रेस सरकार के दौरान अनंत कुमार सिंह केंद्र सरकार में सचिव पद पर आरूढ़ हो चुके थे.
अदालती फैसलों की श्रंखला में 2003 में अजब-गजब तो नैनीताल उच्च न्यायलय में हुआ. न्याय की मूर्ती एम.एम.घिल्डियाल और पी.सी.वर्मा ने मुजफ्फरनगर काण्ड के आरोपियों अनंत कुमार सिंह आदि को बरी कर दिया.इसके खिलाफ प्रदेश भर में तूफ़ान खड़ा हो गया.आन्दोलनकारियों ने हाई कोर्ट के घेराव का ऐलान कर दिया.1 सितम्बर 2003 को होने वाले इस घेराव के एक दिन पहले उक्त दोनों न्याय की मूर्तियों ने अपना फैसला यह कहते वापस ले लिया कि अदालत के संज्ञान में यह बात नहीं थी कि 1994 में एम.एम.घिल्डियाल उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति के वकील रहे थे और अब वे उसी मामले में फैसला सुना रहे हैं.यह विचित्र था क्यूंकि किसको मालूम नहीं था,यह तथ्य-स्वयं एम.एम.घिल्डियाल को?बहरहाल जनता के घेराव के दबाव में अदालत द्वारा अपना फैसला वापस लेने की यह अनूठी मिसाल है.
लेकिन इतने कानूनी दांवपेंच के बावजूद भी उत्तराखंड के सीने पर मुजफ्फरनगर काण्ड के घाव हरे हैं.उत्तराखंड में कांग्रेस-भाजपा के नेता सत्तासीन होने के लिए अपनी पार्टियों के भीतर सिर-फुट्टवल मचाये हुए हैं.लेकिन जिनकी शहादतों और कुर्बानियों के चलते वे सत्ता सुख भोगने के काबिल हुए,उनको न्याय दिलाना सत्ता के लिए मर मिटने वालों के एजेंडे में नहीं है.इलाहबाद उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में लिखा था कि “भारत के संविधान की यह अपेक्षा है कि हम एक लोकतान्त्रिक लोकतंत्र चलायें,एक जनवादी जनतंत्र चलायें ना कि पिलपिला लोकतंत्र(banana republic) या तानाशाही हुकूमत.”लेकिन उत्तराखंड ही क्यूँ देश के कई हिस्सों में न्याय,लोकतंत्र और संविधान का यह तकाजा पूरा होना बाकी है.
मुजफ्फरनगर काण्ड के दोषियों को छब्बीस वर्ष बाद भी सजा ना मिलना, अंग्रेजी नाटककार जॉन गाल्सवर्दी के इस प्रसिद्द कथन को ही सच सिद्ध करता है कि “न्याय देने में विलम्ब करना,न्याय देने से इनकार करना है(justice delayed is justice denied)”. खटीमा,मसूरी,मुजफ्फरनगर काण्ड आदि दमन कांडों के दोषियों को छब्बीस बरस बाद भी सजा ना मिल पाना,हमको न्याय देने से इनकार ही तो है.