शंकर सिंह भाटिया
भाजपा की इस समय तिहरी सरकार है। केंद्र, उत्तर प्रदेश तथा उत्तराखंड में भाजपा सत्ता में है। शर्मनाक मुजफ्फरनगर कांड समेत खटीमा, मसूरी और दूसरी जगहों पर उत्तराखंड आंदोलन के दौरान हुई घटनाओं की जांच सीबीआई कर चुकी है। जिसके पुख्ता प्रमाण सीबीआई के पास हैं। सीबीआई द्वारा जुटाए गए इन्हीं प्रमाणों के आधार पर इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक सटीक निर्णय सुनाया था। जिसे तत्कालीन केंद्र की संयुक्त मोर्चा सरकार के अलंबरदारों ने भोतरा कर दिया। उत्तराखंड आंदोलन में अमानवीयता की हद तक चले गए उत्तर प्रदेश पुलिस तथा प्रशासन के एक भी अधिकारी को सजा होने का मतलब था, उसके राजनीतिक संरक्षकों पर सीधी चोट होना। इसलिए इतना अन्याय होने के बाद भी एक भी दोषी को सजा नहीं हुई। अब यह भाजपा पर है कि यदि वह उत्तराखंडियों को न्याय दिलाना चाहती है तो इस जांच को पुनर्जीवित कर पीड़ितों को न्याय दिलाए। एक समुदाय विशेष को तारगेट कर उत्पीड़न की इंतिहा करने वाली यह घटना न केवल भारतीय राज्य व्यवस्था पर ही सवाल खड़ी करती है, बल्कि जिस भारतीय न्याय व्यवस्था की दुहाई दी जाती है, उस पर सबसे बड़ा प्रश्न चिन्ह है। इस घटना से ठीक दस साल पहले 1984 में हुए सिख दंगों को सिख कौम ने न केवल अब तक जिंदा रखा है, बल्कि उन दंगों के एक राजनीतिक संरक्षक कांग्रेस नेता सज्जन कुमार को आजीवन सजा दिलाकर ही दम लिया। उत्तराखंड आंदोलन में उत्पीड़न के साजिशकर्ता मुलायम सिंह तथा मायावती को उत्तराखंडी कौम ऐसी कोई सजा दिलवा पाएगी?
मुजफ्फरनगर कांड को घटित हुए पच्चीस साल हो गए हैं। शांति के दूत महात्मा गांधी और पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की जयंती के दिन दिल्ली जा रहे उत्तराखंड आंदोलनकारियों के साथ पुलिस ज्यादती हुई। सात आंदोलनकारियों की पुलिस की गोली से मौत और कम से कम आधा दर्जन से अधिक महिलाओं के साथ बलात्कार की सीबीआई जांच में पुष्टि हुई थी। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इस संवेदनशील मामले में उत्तर प्रदेश पुलिस प्रशासन के खिलाफ सख्त टिप्पणी ही नहीं की, बल्कि दोषियों को सजा दिलाने के लिए विशेष अदालत का गठन भी कर दिया था। लेकिन तत्कालीन संयुक्त मोर्चा की केंद्र सरकार में प्रभावशाली भूमिका में रहे इन कृत्यों के कर्ताधर्ताओं ने सीबीआई को अपनी अंगुली में नचाकर सभी दोषियों को तकनीकी रूप से बरी करा दिया। सीबाआई को निर्धारित समय सीमा में साक्ष्य रखने से रोक दिया और सीबीआई का वकील सिर्फ इधर-उधर की बात करते हुए समय बर्बाद करता रहा। कोर्ट ने मामले को कालातीत घोषित करते हुए जो निर्णय दिया था, उसमें यह टिप्पणी की थी।
उत्तराखंड आंदोलन में कुल 42 लोगों की हत्या करने का आरोप आंदोलनकारी संगठन लगाते हैं, बाकायदा उनके नाम पते बताते हैं। उत्तराखंड सरकार का गृह मंत्रालय 32 लोगों की मौत की पुष्टि करता है। महिलाओं से बलात्कार, आंदोलनकारियों का उत्पीड़न, गिरफ्तार आंदोलनकारियों की प्रताणना के आरोपों की पुष्टि होने के बाद भी एक भी दोषी को सजा नहीं हुई है। बल्कि न्यायालयों से एक के बाद एक सभी आरोपी बरी होते चले गए हैं। ऐसे अधिकारियों तक को वर्तमान सरकार में कैबिनेट मंत्रियों का संरक्षण प्राप्त है, जो मुजफ्फरनगर कांड के दौरान मुजफ्फरनगर के डीएम थे। तत्कालीन डीएम अनंत कुमार सिंह ने न केवल मुजफ्फरनगर कांड का बचाव किया था, बल्कि यहां तक कहा था कि यदि गन्ने के खेतों में महिला मिल जाएगी तो बलात्कार ही होगा। इसी अनंत कुमार सिंह को न्यायालय से गुपचुप बरी कराने के प्रयास हुए। केंद्र में मंत्री राजनाथ सिंह का अनंत कुमार सिंह को मिलता रहा समर्थन कई सवाल खड़े करता है।
इसी संयुक्त मोर्चा सरकार से लेकर विभिन्न केंद्र सरकारों पर लालू प्रसाद यादव के मामले को दबाने के आरोप लगते रहे, लेकिन भाजपा की सरकार के आते ही लालू को जेल जाना पड़ा है। मतलब कि चारा घोटाने की जो सीबीआई जांच भटक गई थी, पटरी पर आ गई। इस समय भाजपा की डबल इंजिन की नहीं उत्तर प्रदेश समेत त्रिपल इंजिन की सरकार कार्यरत है। उत्तराखंड के प्रति यदि भाजपा के राज्य के नेताओं तथा केंद्र के नेताओं के मन में थोड़ा भी संवेदना है तो सीबीआई जांच को पटरी पर ले आए। दोषियों को सजा दिलाए। अन्यथा यह सिर्फ दिखावा होगा।