बच्ची सिंह बिष्ट
”तुम तो हिकमत के बादशाह थे लुकमान,
हैरत है फिर भी इश्क़ लाइलाज रह गया”
1996-97 के दरम्यान जब हमारे दस साथी मणिपुर में कस्तूरबा सेवा केंद्र थोबाल जाने के लिए निकले थे। इत्तफाकन मैं और मेरी पत्नी समेत उत्तर प्रदेश के सभी साथी जाने से चूक गए। साथियों का अपहरण रास्ते से ही किसी उग्रवादी संगठन द्वारा कर लिया गया था। तीन दिनों तक लगातार उनको स्थान बदल-बदल कर कहीं कहीं लेकर जाते। खोपड़ी में बंदूक होती और एक ही बात पूछते तुम कौन हो और यहां क्यों आए हो…
वे कहते हम अपने को अलग करना चाहते हैं। हिम्मती साथी देवाशीष जो बंगाल से था, जवाब देता, हम गांधी विचार के लोग हैं, व्यक्ति की मुक्ति का समर्थन करते हैं। अचानक उनके कमांडर को गहरी चोट लग गई। लगातर आर्मी उस गुट के लोगों को खोज रही थी। वे भागते रहते और इनको भी साथ दौड़ाते रहते। जीवन और मौत का संघर्ष करने वाले हमारे साथी गांधी विचार की ताकत, जिसे हम अहिंसा कहते हैं और भय मुक्ति कहते हैं, उसी ताकत से अपनी हिम्मत बनाए रख सके।
घायल कमांडर को बहुत तकलीफ थी। मेघावती ने उसकी प्रेम से मरहम पट्टी की और कहा कि यह मेहमान हैं कोई दुश्मन खेमे या आर्मी के सूचना देने वाले लोग नहीं हैं। तीन दिनों बाद या अधिक समय बाद, सभी को बेशर्त रिहाई मिली और लोग भी ऐसे कि शिविर करके ही वापस वनवासी सेवा आश्रम पहुंचे..
मणिपुरी जीवन की अपनी दिक्कतें और अपनी भावनाएं हैं। तब इंटरनेट का जमाना नहीं था। बहुत मुश्किल स्थितियां थीं। एक तरफ मणिपुरी युवा खेल और कला में बेहतर कर रहे थे, दूसरी तरफ नशा करके तिल तिल जीवन को गलाने की साजिश का शिकार भी हो चुके थे। उनका सशस्त्र विद्रोह अब गुटीय संघर्ष और कमाई का जरिया बनता जा रहा था।
हमारे गांधी विचार के साथियों के साथ वे कुछ लोग संपर्क में रहे और प्रभावित भी हुए। उनके आदर्श सुभाष चंद्र बोस हैं। शायद गांधी जी को मणिपुर जाने का अवसर ही नहीं मिला। एक ऐसा प्रदेश जिसको सुना प्राकृतिक सौंदर्य से नवाजा गया है और वहां के युवाओं को हिम्मत, भावना के साथ ही शानदार कलाकारी की विरासत भी मिली है। वे इतने भावुक और प्यारे थे कि जब करीब सोलह साल बाद मैं राजघाट में अपने सत्रह साल के बेटे के साथ मेघावती और पदमा से मिला तो मेघा ने मुझे गले लगा लिया।तब बेटा किशोर था। उसने पूछा पापा यह कौन हैं, तब मेघा ने कहा बेटा मैं बचपन में तुझे अपनी पीठ पर बांधकर जू जू जू गाती थी… तू हमारा प्रिय बेटा था।
फिर जब बेटा इंजीनियरिंग करने गया तो उसने त्रिपुरा दपज को चुना। चार साल तक नार्थ ईस्ट में रहने के दौरान उसने अनुभव किया कि देश के अन्य राज्यों के लोगों को यह महसूस करना चाहिए कि पूरे नॉर्थ ईस्ट के लोग और उनका जीवन भावुकता, स्थानीय और उपेक्षा का शिकार है। उनके साथ सरकार और समाज का व्यवहार समता और न्याय का होना चाहिए। निश्चित ही मेरीकॉम जैसी फिल्मों ने कुछ जानकारी बढ़ाई लेकिन अभी भी हिंदी भाषी लोग पूर्वोत्तर राज्यों के बारे में जानकारी ही कितनी रखते हैं।
गांधी विचार के प्रणेता संत विनोबा भावे जी ने अपनी पदयात्रा में उन लोगों के साथ संवाद किया और अपने मैत्री आश्रम स्थापित किए। जिनको सरकारों ने सहयोग ही नहीं किया। अन्यथा जातीय हिंसा, नशा और विद्रोह से जूझते पूर्वोत्तर भारत की स्थिति आदर्श ग्राम स्वराज्य वाले प्रदेशों की होती। आज मणिपुर संकट में है। वे आपस में ही लड़ रहे हैं। गुटीय संघर्ष की शिकार वे महिलाएं हो रही हैं, जिनको भीड़ अपना आसान शिकार बना रही है। कभी मैतेई तो कभी कुकी समुदाय हावी हो रहा है। लेकिन वहां ऐसा कोई आह्वान मौजूद नहीं है जो शांति और सद्भाव के संदेश के साथ ही लोगों के बीच फैले वैमनस्य को समाप्त करने का काम करे।
सरकार गांधी जी की विरासत पर हमला कर रही है। गांधीजनों को अपमानित भी कर रही है। यदि उसकी नीयत सही होती तो शांति का संदेश देने के लिए वरिष्ठ गांधीजनों को सम्मान के साथ वहां भेजती। लेकिन गांधी विचार से वर्तमान सरकार की शत्रुता और वैमनस्य के बीच से अपनी सत्ता को स्थापित करने की कोशिश ने एक ऐसे राज्य को बर्बादी की कगार पर खड़ा कर डाला है, जिसकी आग अन्य राज्यों तक भी पहुंच सकती है।
हम जानते हैं मणिपुरी समाज भावुक और विद्रोही है।उनकी ऊर्जा और उनके स्वाभिमान को बचाकर राष्ट्र के हित में उपयोग किया जाना चाहिए था..
मुझे मेघावती, पद्मा बहन, बंकिम चंद्र शर्मा जैसे साथियों की चिंता भी है और जरूरत भी, क्योंकि वही लोग हैं जो समाज में फैली अशांति को कोई रास्ता दिखा सकते हैं। हर समस्या का समाधान बंदूक ही नहीं होती साहब…गांधी विचार आज भी दुनिया भर के अशांत स्थानों और पीड़ित लोगों की उम्मीद है। आप शायद महसूस करें और कुछ मजबूत कदम उठाएं। छोटी छोटी सामाजिक संस्थाओं को जिंदा रखिए और उनके लिए साधन दीजिए ताकि ग्राम स्वराज्य, शांति, सद्भाव, समता जैसे विचार फैलें…आग को आग से तो नहीं बुझाया जा सकता है…