प्रवीण भट्ट
पत्रकार, शिक्षक, समाजसेवी और घुमक्कड़ सुरेन्द्र पुण्डीर अब हमारे बीच नहीं रहे हैं। कुछ दिन पूर्व 21 अक्टूबर 2019 को 63 साल की उम्र में मसूरी स्थित आवास पर सुबह तड़के उनका निधन हो गया। ग्रीन माउंट कॉटेज, लंढौर, मसूरी के उसी घर में उन्होंने अंतिम सांस ली जहां उनके पिता ने कठिन संघर्ष करते हुए उनके चार भाइयों का लालन पालन किया था।
सुरेन्द्र पुण्डीर के पिता मूल रूप से टिहरी जनपद के बडियार गढ़ घाटी के निवासी थे लेकिन आजादी के बाद जिस काल में अंग्रेज मसूरी को छोड़कर अपने देश लौट रहे थे उसी समय उनके पिता बडियार गढ़ से निकलकर मसूरी आए थे। लेकिन सुरेन्द्र पुण्डीर खुद को बडियार गढ़ से अधिक जौनपुर का मानते रहे। इसका एक कारण तो यह रहा कि उनका मामकोट जौनपुर में ही था और दूसरा यह कि उन्होंने अपनी समाज से जुड़ी विविध सेवाएं भी जौनपुर क्षेत्र में ही की हैं। सुरेन्द्र पुण्डीर लगभग 50 वर्ष की उम्र में हिन्दी विषय के शिक्षक में सरकारी सेवा से जुड़े। राजकीय इंटर कॉलेज घुड़ाखोरी में शिक्षक रहने से पूर्व वे थत्यूड़ क्षेत्र के स्कूलों में भी नियुक्त रहे थे।
शिक्षक के रूप में भले ही उनका सेवाकाल लगभग दस वर्ष का ही रहा हो लेकिन इससे पूर्व टिहरी जनपद के अंजनिसैंण स्थित भुवनेश्वरी महिला आश्रम के संस्थापक स्वामी मनमथन के साथ जुड़कर उन्होंने समाज सेवा की आम जन के दर्द को करीब से महसूस किया। इसके बाद अध्यापक बन जाने से पूर्व वे मसूरी स्थित सिद्ध संस्था के साथ जुड़कर जौनपुर क्षेत्र में सिद्ध द्वारा चलाये जा रहे नई तालीम के विद्यालयों से संबंद्ध रहे। इसके साथ ही सिद्ध संस्था द्वारा जौनपुर क्षेत्र में कराए गए विभिन्न अध्ययनों व प्रशिक्षण कार्यक्रमों में उनकी अग्रणी भूमिका रही।
पहली बार सिद्ध संस्था द्वारा किए गए प्रयासों के बाद भी जौनपुर क्षेत्र के अंदरूनी भागों में शिक्षा की ज्योति जल सकी। इस महान कार्य में नींव के पत्थर के रूप में सुरेन्द्र पुण्डीर भी मजबूती से जुड़े रहे। सुरेन्द्र पुण्डीर के जीवन का एक पहलू यह भी रहा कि वे कुछ प्रथम पंक्ति के अखबारों से भी जुड़े रहे। बतौर पत्रकार अमर उजाला से जुड़कर उन्हें ख्याति मिली। वर्तमान में स्थिति यह है कि कुछ लोग उन्हें पत्रकार के रूप में याद कर रहे हैं। कुछ लोग उन्हें इतिहासकार के रूप में याद कर रहे हैं जबकि कुछ अन्य उन्हें शिक्षक व एनजीओ कर्मी के रूप में भी याद कर रहे हैं। उत्तराखंड राज्य आंदोलन 1990 के दशक में जब अपने चरम पर था तब सुरेन्द्र पुण्डीर अमर उजाला में कार्यरत थे। लेकिन साथ ही साथ उन्होंने पुस्तक लेखन की अपनी यात्रा को भी जारी रखा। इसी दौरान 1994 में हुए मसूरी गोलीकांड के बाद इस गोलीकांड और उत्तराखंड राज्य आंदोलन को फोकस कर लिखी गई पहली किताब भी उनकी कलम से ही निकली। 1996 में प्रकाशित इस किताब को नाम दिया गया मसूरी के शहीद। यह उत्तराखंड राज्य आंदोलन पर लिखी गई पहली किताब मानी जाती है। इसके बाद सुरेन्द्र पुण्डीर की कलम से एक के बाद किताबें निकली। जौनपुर का सामाजिक एवं राजनीतिक इतिहास, जौनपुर के तीज त्यौहार, मसूरी के शहीद, जौनपुर के लोक देवता, गॉड्स ऑफ जौनपुर, जौनपुर की लोककथाएं उनकी प्रमुख किताबें हैं। इसके अलावा अपने अंतिम दिनों में पुण्डीर जी यमुना घाटी के लोकगीत और उत्तराखंड के जनान्दोलनों के नायक नाम से दो किताबों को अंतिम रूप देने में लगे हुए थे।
सुरेन्द्र पुण्डीर का जन्म 4 जुलाई सन् 1956 को मसूरी में ही हुआ था। उन्होंने बचपन से ही मसूरी में बचे रह गए अंग्रेजों और अंग्रेजियत की सेवा में लगे जौनपुर के लोगों को देखा था।
उनके दर्द को महसूस किया था। यही आगे चलकर जौनपुर की सेवा करने का उनका आधार भी बना। मूलतः जौनपुर की ही उनकी मांताजी अभी जीवित हैं लेकिन उनकी स्मृति लगभग समाप्त हो चुकी है। केवल जौनपुर के लोगों की ही नहीं बल्कि अनेक संस्थाओं के साथ जुड़कर सुरेन्द्र पुण्डीर ने समाज की बहुत सेवा की है। वे सिद्ध मसूरी, भुवनेश्वरी महिला आश्रम अंजलिसैंण, समय साक्ष्य देहरादून, पहाड़ नैनीताल, घाद देहरादून के साथ ही हिन्दी अकादमी देहरादून, महादेवी सृजन पीठ नैनीताल के साथ ही संवेदना साहित्यिक संस्था के साथ ही प्रत्यक्ष रूप से जुड़े हुए थे। वे नियमित रूप से मसूरी टाइम्स, नैनीताल समाचार, युगवाणी, लोकगंगा, उत्तरा आदि पत्रिकाओं में लिखते रहे। हाल के वर्षां में उत्तरा पत्रिका में छपी उनकी कविताएं चर्चित रही थीं।
सुरेन्द्र पुण्डीर के निधन पर समय साक्ष्य की रानू बिष्ट ने कहा कि उनके बीच से एक मजबूत सतंभ आज चला गया है। उन्होंने कहा कि पुण्डीर जी सदैव एक सहयोगी और मार्गदर्श की भूमिका में रहे। लोकगंगा के संपादक योगेन्द्र धस्माना ने कहा कि सुरेन्द्र पुण्डीर लोकगंगा के सच्चे दोस्त थे। वे पूरे मन से लोकगंगा के लिए समर्पित रहते थे। सुरेन्द्र पुण्डीर के तीन भाइयों के परिवार मसूरी में ही रहते हैं। जिनमें विजेन्द्र सिंह पुण्डीर पत्रकार हैं तथा धनेन्द्र सिंह पुण्डीर अधिवक्ता हैं। उनके एक भाई पूर्व में ही दिवंगत हो चुके हैं। उनकी एक बेटी है जो इस समय स्नातक की पढ़ाई कर रही है। एक लोकसंस्कृतिकर्मी, लेखक व समाजसेवी के रूप में अपनी जो विरासत सुरेन्द्र पुण्डीर अपने पीछे छोड़ गए हैं। उसे आगे बड़ाना किसी भी युवा के लिए आसान नहीं होगा। इसके लिए उसे सुरेन्द्र पुण्डीर की तरह ही लोक का प्रेमी बनना होगा।