यह कोरोना वायरस का मौसम है। वसंत नहीं कोरोना ऋतु है। पर घबराने का कोई कारण नहीं। सावधानी बरतनी है। मानवता ने बहुत बार ऐसे संकट झेले है। यह खाली वायरस ही नहीं है पूंजीवाद का संकट भी है। जिस तरह की लूट देश और दुनिया में चली थी उसमें औसत आदमी और प्रकृति सिर्फ लुटने को अभिशप्त थी। आखिर कही तो प्रतिकार होना था। प्रकृति की अपनी द्वन्दात्मकता होती है। अंततः वह किसी नए या पुराने के नए संस्करण वाले अंदाज़ में प्रकट हो जाती है।
कोरोना वायरस अपनी प्रकृति में सांप्रदायिक नहीं है , जाति वादी नहीं है , नश्लवादी नहीं है। यह कॉर्पोरेट लुटेरा भी नहीं है। इसने मनुष्यों यानि होमो शेपिएन्स को छोड़ कर किसी जीव या वनस्पति की जान लेना शुरू नहीं किया। यह पक्षपाती नहीं है। यह सच है कि आज की व्यवस्था के मिजाज के कारण गरीबों को ज्यादा कीमत चुकानी होगी पर लूटने वाले भी नहीं बक्शे जायेंगे।
आज ईश्वर और धर्म से ही नहीं विभिन्न राजनैतिक-आर्थिक व्यवस्थाओं से भी मोह भंग हुआ है। बल्कि कहना चाहिए कि अधिक मानवीय और अन्य जीव प्रजातियों का पक्ष लेने वाली व्यवस्था का निर्माण होना चाहिए। मौजूदा जनतंत्र से आगे जाने की अनिवार्य जरुरत है। भारतीय और अमेरिकन जनतन्त्रों की पूरी पोल खुल गई है। शक्तिशाली और एक पार्टी की तानाशाही वाला चीन भी बड़ी सीमा तक ठहर गया है। इटली और स्पेन की तो बात ही क्या।
अब आम लोगों को धर्म और राजनीति तथा अर्थनीति के बेईमानों को बेनकाब करना चाहिए। इसके लिए उनको नए बुद्धिजीवी , साहित्यकार, पत्रकार , फ़िल्मकार, समाज विज्ञानी, विज्ञानी, दार्शनिक और आंदोलनकारी चाहिए। ताकि अधिक बेहतर लोग इससे उभर कर आयें और हर क्षेत्र में छा जायें। धर्म, राजनीति और कॉर्पोरेट्स के मानव विरोधी रोल के कारण यह स्थिति आई है।
कृपया एक लेखक की हैशियत से अपने औज़ार इस्तेमाल करैं। अपनी जड़ों तक पहुचें और जन गण को पहुचायें। हर रचनाकार हमको स्वप्नदर्शी बनाता है, अधिक मानवीय होने की चेतना देता है और कठिन समय में भी उम्मीदों से भर देता है।
आप सब भी ऐसा कर सकते हैं।
शुभकामना,
कोरोना समय में और अधिक प्यार के साथ;
आप बोर होने से पहले डिलीट कर सकते हैं।
आपका
शेखर पाठक