कमलेश जोशी
जोशीमठ में जो कुछ आज हो रहा है वह किसी प्राकृतिक आपदा का नतीजा नहीं बल्कि मानवजनित आपदा है. भूगर्भ वैज्ञानिक, पर्यावरणविद वर्षों से कहते आ रहे हैं कि उत्तराखंड राज्य भूकंप के ज़ोन 5 में स्थित है जहाँ देर सबेर ही सही बड़े भूकंप की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता. उत्तराखंड के इतिहास को उठा लीजिये ऐसे विनाशकारी भूकंप समय-समय पर यहाँ आते रहे हैं. पिछले कुछ वर्षों में यदि आपने महसूस किया हो तो रिक्टर पैमाने पर 2-3 क्षमता के झटके उत्तराखंड व उसके आसपास के राज्यों में लगातार महसूस किये जाते रहे हैं. लेकिन हम सोशल मीडिया में भूकंप आने की पोस्ट मखौल के तौर पर ठेल देते हैं और कुछ लोग तो निराश हो रहे होते हैं कि उन्हें क्यों महसूस नहीं हुआ भूकंप. तुर्की और सीरिया से आ रही तस्वीरों से ही रूह काँप रही है तो सोचिये ऐसे भूकंप को आप महसूस करना चाहेंगे.
ख़ैर बात उत्तराखंड में हो रहे बैतरतीब विनाशकारी तथाकथित विकास की है जिसकी जद में आज जोशीमठ आया है कल शायद गोपेश्वर, नैनीताल, मसूरी और अन्य जगहें आएँगी और हम इसे प्रकृति का प्रकोप कह कर आँखें मूँद लेंगे. 2013 की आपदा को लेकर भी हमारा यही रवैया था. उसे भी हमने प्रकृति का क्रोध कह कर आँखें मूँद ली थी और कुछ नहीं सीखा जिसका परिणाम यह हुआ कि हमने रैणी और जोशीमठ जैसी आपदा को दस्तक देते देखा. प्रकृति का संरक्षण उसके प्राकृतिक स्वरूप से ही संभव है लेकिन हम पहाड़ों को काटकर 4-लेन सड़क बना रहे हैं और उसके बाद जब पहाड़ खिसक रहे हैं तो उन्हें दीवार बनाकर उन्हें संरक्षित करने की नाकाम कोशिशों में जुटे हुए हैं.
हमारे पड़ोसी राज्य नेपाल में 2015 में आए भयावह भूकंप से भी हमने सीख नहीं ली. अपनी काठमांडू यात्रा के दौरान मैंने उस आपदा के निशान देखे जो बेहद कष्टदायी थे. नेपाल की शान माना जाने वाला भक्तपुर कॉम्प्लेक्स बल्लियों के सहारे टिका हुआ था. तमाम मंदिरों व घरों में भयानक दरारें पड़ी हुई थी जिस वजह से इमारतों को दरकने से बचाने के लिए बल्लियों का सहारा लिया गया था. आज जोशीमठ के घरों की तस्वीरें देखता हूँ तो भक्तपुर का नज़ारा आँखों में तैरने लगता है. आपदा हमें तब तक महसूस नहीं होती जब तक बात हमारे अपने घर पर नहीं आ जाती. दूसरों पर आई आपदा पर हमें अफ़सोस तो होता है लेकिन उससे सबक़ लेकर अपने को बचाने की कोशिश हम कभी नहीं करते और उस आपदा को तारीख़ों में विस्मृत कर देते हैं.
उत्तराखंड को विकास की नितांत आवश्यकता है लेकिन हमारा विकास न तो सतत है और ना ही प्रकृति के अनुकूल. हमारा विकास राजस्व की कसौटी पर तौला जाता रहा है. जहाँ से राजस्व की संभावनाएँ ज़्यादा है वहाँ ट्रेन चला दो, चौड़ी सड़कें बना दो, 8-10 किलोमीटर की दूरी कम करने भर के लिए टनल खोद दो, बड़े-बड़े बाँध बना दो और जहाँ से राजस्व की संभावनाएँ न्यूनतम हैं वहाँ तक सड़क भी मत पहुँचाओ चाहे प्रसूताओं को चार कंधों पर ही अस्पताल क्यों न ले जाना पड़े. हमारे विकास में वह अंतिम व्यक्ति शामिल ही नहीं है जो हाशिये पर खड़ा है. हमारा विकास कॉरपोरेट के हाथ की कठपुतली बनकर रह गया है. पहाड़ों के विकास में न अस्पताल शामिल हैं, न स्कूल और ना ही रोजगार की संभावनाएँ. पहाड़ के विकास में शामिल है सिर्फ़ कॉरपोरेट का हित.
खोखले होते पहाड़ दो दिन होती बरसात में दरक जा रहे हैं सोचिये कि 5-6 की क्षमता का भूकंप आया तो पहाड़ों का क्या होगा? जोशीमठ जैसे गंतव्य का क्या होगा जो बल्लियों पर टिका है? सुरंगों से गुजरती ट्रेन का क्या होगा? 5 सितारा होटलों का क्या होगा? बड़े-बड़े बाँधों का क्या होगा? और सबसे बड़ी बात उस पहाड़ के बासिंदे का क्या होगा जिसे विकास का झुनझुना पकड़ा कर पहाड़ों की नीलामी की जा रही है.