राजीव लोचन साह
उत्तराखंड में शहरी निकायों के चुनाव हो रहे हैं। प्रदेश सरकारें इन निकायों को उपेक्षित रखती है। 74वें संविधान संशोधन कानून के लागू होने के बाद शहरी निकायों को उतनी ही ताकत मिल गई है, जितनी केन्द्र सरकार या प्रदेश सरकार को है। मगर उत्तराखंड में सरकार बार-बार इस सांवैधानिक व्यवस्था में अड़ंगा लगाती है और इनका कार्यकाल खत्म होने पर प्रशासक के रूप में कोई सरकारी अधिकारी उन पर बैठा देती है, ताकि इन संस्थाओं पर उसका सीधा नियंत्रण बना रहे। हर बार किसी को अदालत में जाकर गुहार लगानी पड़ती है, तब जाकर अदालत के आदेश से इन संस्थाओं के चुनाव हो पाते हैं। इस बार तो सरकार ने अदालत को भी खूब नचाया और जो चुनाव नवम्बर 2023 में हो जाने थे, वे जनवरी 2025 में हो रहे हैं। इन चुनावों को लेकर उम्मीदवारों का उत्साह देखने लायक होता है। तमाम स्त्री-पुरुष, युवा-वृद्ध पूरे जोर-शोर से इन चुनावों में भाग लेते हैं। क्योंकि ये लोकतंत्र की सबसे निचली पायदान के चुनाव हैं और मतदाता प्रत्याशियों को व्यक्तिगत रूप से जानते हैं, अतः उनकी रुचि भी इन चुनावों में काफी होती है। अतः इन चुनावों में मतदान का प्रतिशत भी लोकसभा या विधानसभा चुनावों से अधिक रहता है। मगर थोड़ी चिन्ता की बात यह है कि अधिकतर प्रत्याशियों को यह ठीक से मालूम नहीं होता कि जिन संस्थाओं में वे जा रहे हैं, उनके अधिकार क्या हैं। वे क्या कर सकती हैं और क्या नहीं कर सकतीं। उनके मतदाता भी उनको वोट इसलिये नहीं देते कि वे इस पद पर रहने के योग्य हैं, बल्कि इसलिये देते हैं कि वे उनकी जाति, धर्म, बिरादरी या मोहल्ले के हैं। लिहाजा जो कोई प्रत्याशी इन पदों पर जीत जाते हैं, वे वहाँ सरकार द्वारा बैठाये गये अधिशासी अधिकारियों की कठपुतली बन जाते हैं। एक बार इन लोगों को महसूस हो जाये कि उनकी वास्तविक ताकत क्या है और जनता के नुमाइन्दे होने के कारण वे किसी सरकारी अधिकारी से ऊपर हैं तो निश्चित रूप से समाज में क्रांतिकारी बदलाव आ जायेगा।