समाचार डैस्क
हम अपने पाठकों को बताना चाह रहे हैं कि आज 10 मई 2022 को सायं 5 बजे कई संगठनों द्वारा आयोजित 40 दिवसीय सद्भावना यात्रा, नैनीताल पहुंच रही है । इस सद्भावना यात्रा को प्रारम्भ करते हुए इसमें शामिल इसके सभी सदस्य 8 मई को हल्द्वानी से रवाना हो कर दिनेशपुर पहुंचे । दिनेशपुर में प्रेरणाअंशु के कार्यक्रम में शिरकत करने के उपरांत यह यात्रा 9 मई को रामनगर पहुंची । आज यह यात्रा नैनीताल पहुंचेगी । ‘नैनीताल समाचार ‘ के कार्यालय में 5 बजे यात्रियों के उत्साहवर्धन हेतु एक कार्यक्रम आयोजित किया गया है। संयोगवश आज ही के दिन जाने माने शायर कैफ़ी आजमी की पुण्य तिथि भी है। 14 जनवरी 1919 को जन्मे कैफ़ी आजमी की मृत्यु 10 मई 2002 को मुम्बई में हुई थी । जोश मलीहाबादी, रघुपति सहाय ‘फिराक’, जिगर मुरादाबादी आदि के समकालीन रहे कैफ़ी आज़मी कई बेहतरीन फिल्मी गानों के लेखक भी रहे। आज भी उनकी गिनती भारतवर्ष के बेहतरीन प्रगतिशील शायरों में होती है ।
इन्हीं कैफ़ी साहब की एक रचना है ‘सांप ‘ जो इस तरह है –
साँप
ये साँप आज जो फन उठाए
मिरे रास्ते में खड़ा है
पड़ा था क़दम चाँद पर मेरा जिस दिन
उसी दिन इसे मार डाला था मैंने
उखाड़े थे सब दाँत कुचला था सर भी
मरोड़ी थी दुम तोड़ दी थी कमर भी
मगर चाँद से झुक के देखा जो मैंने
तो दुम इस की हिलने लगी थी
ये कुछ रेंगने भी लगा था
ये कुछ रेंगता कुछ घिसटता हुआ
पुराने शिवाले की जानिब चला
जहाँ दूध इस को पिलाया गया
पढ़े पंडितों ने कई मंतर ऐसे
ये कम-बख़्त फिर से जिलाया गया
शिवाले से निकला वो फुंकारता
रग-ए-अर्ज़ पर डंक सा मारता
बढ़ा मैं कि इक बार फिर सर कुचल दूँ
इसे भारी क़दमों से अपने मसल दूँ
क़रीब एक वीरान मस्जिद थी, मस्जिद में
ये जा छुपा
जहाँ इस को पेट्रोल से ग़ुस्ल दे कर
हसीन एक तावीज़ गर्दन में डाला गया
हुआ जितना सदियों में इंसाँ बुलंद
ये कुछ उस से ऊँचा उछाला गया
उछल के ये गिरजा की दहलीज़ पर जा गिरा
जहाँ इस को सोने की केचुल पहनाई गई
सलीब एक चाँदी की सीने पे उस के सजाई गई
दिया जिस ने दुनिया को पैग़ाम-ए-अम्न
उसी के हयात-आफ़रीं नाम पर
उसे जंग-बाज़ी सिखाई गई
बमों का गुलू-बंद गर्दन में डाला
और इस धज से मैदाँ में उस को निकाला
पड़ा उस का धरती पे साया
तो धरती की रफ़्तार रुकने लगी
अँधेरा अँधेरा ज़मीं से
फ़लक तक अँधेरा
जबीं चाँद तारों की झुकने लगी
हुई जब से साइंस ज़र की मुतीअ
जो था अलम का ए’तिबार उठ गया
और इस साँप को ज़िंदगी मिल गई
इसे हम ने ज़ह्हाक के भारी काँधे पे देखा था इक दिन
ये हिन्दू नहीं है मुसलमाँ नहीं
ये दोनों का मग़्ज़ और ख़ूँ चाटता है
बने जब ये हिन्दू मुसलमान इंसाँ
उसी दिन ये कम-बख़्त मर जाएगा