वीरेन्द्र कुमार पैन्यूली
राज्य बनने के समय से ही शुरू हुई उत्तराखंड में आम जनप्रतिनिधियों व कई बार मंत्री गणांे की भी अधिकारियों द्वारा अपने को उपेक्षित किये जाने, उनकी न सुने जाने व प्रोटोकोल अवहेलना की शिकायतें आज तक भी बनी हुई है। खासकर चुनावों के नजदीक आते-आते तो यह टकराव का रूप ले लेती है और शिकायतों की सूची लम्बी होती जाती है। अधिकारियों द्वारा मांगी गई जानकारी व सूचनाआंे की समय से जानकारी न देना, परियोजना विशेष के नामपट पर अपना नाम न होना, आयोजनों में निमंत्रण न देना अथवा उनके होते हुए किसी समारोह में अधिकारी द्वारा उद्घाटन व अध्यक्षता कर प्रोटोकाल की अवहेलना करना जैसी शिकायतें नाक की लड़ाई बन जाती हैं।
इसी परिपे्रक्ष्य में 2020 के जाते-जाते तो उत्तराखंड में कुछ ऐसा भी हुआ है जो अन्य राज्यों में शायद ही हुआ हो। देहरादून में शीतकालीन विधान सभा सत्र के दूसरे दिन 22 दिसम्बर 2020 को विधान सभा उपाध्यक्ष रघुनाथ सिंह चैहान को ही सदन में अल्मोड़ा के जिलाधिकारी द्वारा उनके अपने ही विशेषाधिकार हनन के मामले को उठाने के लिए मजबूर होना पड़ा। फिर सदन में यह भी भाव व्यक्त किया गया कि अधिकारियों को लेकर सारे जन प्रतिनिधियों के लगभग ऐसे ही अनुभव हैं। कहां तो देश में सुना यह जाता रहा है कि विधायक अपने विशेषाधिकारों के संरक्षण के लिए सदनों के अध्यक्ष उपाध्यक्षों या पीठासीन अधिकारियों से अनुरोध करते हैं, कहां उत्तराखंड विधान सभा मे उपाध्यक्ष को ही गुहार लगानी पड़ रही है । इसके पूर्व उत्तराखंड की महिला एवं बाल विकास राज्य मंत्री रेखा आर्या ने अपने विभागीय अधिकारी आईएएस विभागीय निदेशक से एक टेण्डर के निर्गत करने या संभवतया अन्य मामलों में भी चलती हुई तनातनी के बीच अधिकारी द्वारा उनका फोन उठाना बंद किये जाने पर राज्य पुलिस से अधिकारी की किडनंिैपग होने की आशंका दर्ज कराने की घटना भी देश में अपने तरह की पहली घटना बन गई थी। इसके पहले शायद ही किसी मंत्री ने अपने किसी अधिकारी का पता लगाने के लिए पुलिस से सम्पर्क साधा हो । बाद में मालूम चला कि अधिकारी अपने घर में ही क्वारंनटीन में थे। वे आरोपों के डर से भूमिगत भी नही थे। अर्थात् वे घर में रहते हुए मंत्री जी का फोन नहीं उठा रहे थे ।
2020 में उत्तराखंड में घटित ये असामान्य घटनायें किसी भी प्रजातंत्रिक सरकार के लिए शर्मिंदगी का विषय होना चाहिए। खासकर उस राज्य के लिए जिसका जन्म आन्दोलन व बलिदानों से हुआ हो व जो राज्य आन्दोलनों की भूमि रहा हो। गढ़वाल विश्वविद्यालय भी जन आन्दोलन से बना। वन माफियाओं को भगाने के लिए चिपको जैसे अन्दोलन यहीं हुए। वनों के ठेकों, शराब के ठेकों, स्टोन क्रशरों के ठेकों के विरुद्ध अभूतपूर्व आन्दोलनों की भी यहां परिपाटी रही है। नशा नहीं रोजगार दो जैसे आन्दोलन हुए। परन्तु नये राज्य में सरकारों को इन जमीनी आन्दोलनों के आन्दोलनकारियों की ऊर्जा से सुशासन लाने या कार्यप्रणालियों में आमूलचूल परिवर्तन लाने के बजाये जाने-अनजाने अफसरशाही का दुरुपयोग कर उन्हे अप्रासंगिक व अशक्त बनाने के प्रयास किये।
आन्दोलनकारियों के सारे आदर्श राज्य के सपने धरे रह गये। इसकी स्वाभाविक परिणति यही होनी थी कि उत्तराखंड में अफसर आज मंत्रियों तक को भाव नहीं दे रहें हैं। आज अधिकारी किसी विधायक को एक मंत्री जी की उपस्थिति में व्यंगात्मक लहजे में कह देता है कि आपकी याददाश्त कमजोर है। इसके बाद उस अधिकारी का तो कुछ नहीं होता है किन्तु विधायक को ही बैठक से बहिर्गमन करना होता है। परन्तु समय बलवान है। फिर उन्ही मंत्री जी, जो उस घटना में मूक दर्शक थे देहरादून में बुलाई गई एक महत्वपूर्ण बैठक में बुलाये गये आला अधिकारियों के न पहुंचने की ऐसी परिणति झेलनी पड़ी कि बैठक को ही स्थगित करना पड़ गया। इस घटना का संदेश यही है कि जब पड़ोस में आग लगे तो तुम चुप रहे तो ये आग कभी तुम्हारे घर तक भी पहुंच जायेगी।
ऐसा ही रहस्य, यदि पंक्तियों के बीच पढ़ें तो राज्यमंत्री जी द्वारा अधिकारी की किडनैपिंग वाले मामले से भी बाद उजागर हुआ। जहां इस प्रकरण में कुछ भुक्तभोगी मंत्री अधिकारियों पर तत्काल कठोर कार्यवाही चाहते थे, वहीं मुख्यमंत्री ने आरोप-प्रत्यारोपों के बीच सही स्थिति पता लगाने का जिम्मा एक अतिरिक्त मुख्य सचिव को देने की राह चुनी। हो सकता है कि अधिकारी अपने कार्यालयी कार्यों व निणयों में गलत न दिखें किन्तु प्रोटोकौल निभाने में उनमें कमी तो दिखती ही है। यही नहीं, इसी प्रकरण में जब जोशोखरोश में कुछ स्वनामधन्य माननीयों ने यह कहना शुरू किया कि जब तक मंत्रियो को अधिकारियों की गुप्त आचरण आख्या या चरित्ऱ पंजिका लिखने का अधिकार न मिलेगा तब तक अधिकारी काबू में न आयेंगे। अर्थात् वे सचिवों की सीआर लिखने का अधिकार मांग रहे थे।
उन्हें जब बताया गया कि यह अधिकार तो पहले से ही जारी है तो परोक्ष रूप से यह भी सामने आया कि कुछ मंत्रियों को अपने सचिवों की सीआर रिपोर्ट लिखने का मौका ही नहीं मिला। ऐसे मंत्रियों से उनके विभागीय सचिव की रिपोर्ट लेने की आवश्यकता इसलिए भी नहीं पड़ी होगी, क्योंकि वे ही अधिकारी अन्य मंत्रियों के पास भी नियुक्त हैं। उनसे मिली रिपोर्ट ही अधिकारियों के संदर्भ में पर्याप्त मान ली गई। ऐसे कई मंत्रियों के साथ काम करने वाले सचिव मुख्यमंत्री के साथ काम करने वाले भी हो सकते हैं व वे उनकी गुड बुक्स में भी हो सकते हैं। कुछ के लिए कुछ गाॅडफादर भी हो सकते हैं।
मंत्रियों के अनुभव तो यह भी रहें हैं कि विभागीय मंत्रियों के संज्ञान में लाये बिना ही उनके विभाग में अधिकारी आदेश दे देते हैं व तबादले तक कर देते हैं। नारायण दत्त तिवाड़ी जैसे नेता, जो दो बार उत्तर प्रदेश्र के मुख्यमंत्री व अनेक बार केन्द्र में मंत्री रह चुके थे, को उत्तराखंड का मुख्यमंत्री रहते हुए यह स्वीकारना पड़ा था कि मंत्रियों की ही नहीं, स्वयं उनके आदेशों तथा कैबिनेट के फैसलों तक की भी अफसरशाही अवहेलना करती है। 2005 सितम्बर में तो इस पर सार्वजनिक रूप से क्रोध जतलाने के अलावा उन्होंने तत्कालीन मुख्य सचिव को यह चेताते हुए कड़ा पत्र भी लिखा था कि कैबिनेट के फैसलों को लागू करना अधिकारियों की जिम्मेदारी है। उससे पहले पहाड़ों में उनके हक का मिटटी का तेल न भेजे जाने के आरोपों को लेकर कांगे्रस विधायकों की संबधित सचिव से उनके कार्यालय में झड़प भी हुई थी। उस वक्त अधिकारी का आरोप था कि उनसे धक्कामुक्की की गई, जिससे उनके कक्ष की फाइलों व सामान को नुकसान पहुंचा था।
वास्तव में तो अधिकारी व सत्ताधारी नेतृत्व एक दूसरे को उपकृत करते रहें हैं। राजनेताओं के लिए सुविधायुक्त अटैचमेंट, कैम्प कार्यालय खोलने देना, सुगम दुर्गम नियुक्तियां भी अधिकारियों को मदद करने के तौर तरीके रहें हैं। सेवा निवृत्ति के बाद उच्च अधिकारियों को पुऩः सेवा में लेने की परम्परा, जो यहा गहरे जड़ें जमाई हुई हैं, वह भी अधिकारियों की मदद से ही हुईं। नेताओं को जन्मदिन की बधाई देने के लिए जो सरकारी सूचनापटों, जैसे सड़क संकेतकों पर पोस्टर बैनर लगा दिये जाते हैं, उनके नियम विरुद्ध होने पर भी या जनता के लिए जो असुविधायें या जोखिम वाले होने पर भी कार्यवाहियां यदि नहीं होती हैं, तो वह अधिकारियों का राजनेताओं के लिए सहयोग ही होता है। जनहित के नाम में नेताओं या मंत्रियों के विरुद्ध आपराधिक मामलों की वापसी की सिफाारिश भी बिना अफसरी कलम के नहीं हो सकती है। जमीनों के खरीदने-बेचने पर या जिसने जमीन खरीदी है, उसे कब्जा न मिलने जैसे मामलों में भी या स्टिंग आॅपरेशनों में भी जब मंत्रियों या मुख्यमंत्रियों या परिवारियों पर सवालिया निशान लगते हैं तो ऐसी कानूनी परेशानियों में ढाल भी अधिकारियों के कलमों से ही मिलती है। गैरकानूनी खनन के या माननीय समर्थित या प्रायोजित गैरसरकारी संस्थाओं पर मेहरबानी के मामले भी इसी क्रम में होते हैं।
अनुभव बतलाते हें कि अधिकारी जनप्रतिनिधियों में यथार्थ में कैमेस्ट्री भी महत्वपूर्ण होती है। अधिकारियों के साथ कैमेस्ट्री के कारण ही कुछ रूलबुक के अनुसार काम करने वाले अधिकारी भ्रष्ट या गलत सलत काम करवाने वाले नेताओं को नहीं पसन्द करते हैं। उसी तरह से भ्रष्ट अधिकारी हो सकते है उन पर नकेल रखने वाले नेताओं को न पसन्द करें। उत्तराखंड में ही ऐसे उदाहरण भी कम नहीं है कि केन्द्र से राज्य में आये नेता या राज्य से केन्द्र में गये नेता अपने साथ अपने मनपसन्द अधिकारियों को लाये या ले गये हों।
अधिकारियों में वह जमात भी होती है जो किसी फैसले से जनता के नुकसान का अंदेशा भांप उसको जितना हो सकता है, न लागू करवाने की कोशिश भी करते हैं। न्यायालय भी कह चुके हैं कि नियमविरुद्ध गलत आदेशों पर काम करना अधिकारियों की ड्यूटी का हिस्सा नहीं है। न भूलें कि मुजफ्फरनगर कांड में पुलिस व प्रशासनिक ज्यादतियों पर दिल्ली जाते प्रदर्शनकारी महिलाआंे व अन्य पर एक मुकदमे के निर्णय में 1996 में ही अधिकारियों की बार-बार की इन दलीलों पर कि वे अपनी डयूटी कर रहे थे, संदर्भित माननीय न्यायाधीशों का कहना यह भी था कि आपराधिक कार्रवाही करना किसी डूयटी का हिस्सा नहीं हो सकता है। ईमानदार अधिकारी तो इससे भी क्षुब्ध रहते हैं कि जब किसी विभागीय जांच की रिपोर्ट वे जमा करते हैं तो वे दबा दी जाती हैं । सच को सच कहने वाले अधिकारी भी कई बार परेशानियों में आ जाते हैं। सरकारी भ्रष्टाचार से त्रस्त व्हिसिल ब्लोवर का काम भी करते हैं।
तिवाड़ी सरकार के दौरान ही उत्तराखड की मानवाधिकारों व कानूनी विशेषज्ञता लिये हुई सामाजिक संस्था रूलक ने तब उत्तराखंड के अधिकारियों की कार्यकुशलता, जनता से उनके व्यवहार भ्रष्टाचार पर खासकर सचिव व उनसे ऊपर के स्तर का सर्वेक्षण व अध्ययन करवा 2004 में उसे एक पुस्तिका का रूप भी दिया था। पुस्तिका मुझे भी दी गई थी व अभी भी मेरे पास है। उस समय उनमे कुछ जो अधिकारी नीचे की पायदानों में विश्लेषणों में आये थे, वे राज्य में उच्चस्थ पदों तक पहुंचने में सफल रहे। यह चिंताजनक है। ऐसे अधिकारी ही राजनेताओं की गुड बुक में रहने के लिए चाहे जनता के लिए भले ही कड़े तेवर अपनाते हों, कोरोना काल में विशेष पास जारी करवाने में, या औली बुग्याल जैसी संवेदनशील क्षेत्रों में शाही शादी करवाने में या किसी बाबा व्दारा जंगल क्षेत्रों में कई बीधों के अतिक्रमण में सहयोग देते हैं। ऐसे ही अधिकारी तब भी चुप रहते हैं जब ऐसे बयान आते हैं कि राज्य परिसम्पतियों पर उ. प्र. से कोई विवाद नहीं है या जब इस यथार्थ के सार्वजनिक होने पर कि अंतर्धार्मिक विवाह में विगत में प्रोत्साहन राशि दी जाती रही, एक अधिकारी को परोक्ष में प्रताड़ित किया जाता है। क्या जब-जब न्यायालयों में उत्तराखंड व उ.प्र. से परिसम्पत्तियों के विवादों के मामले आयेंगे तो राज्य सरकार का प्रतिनिधित्व करने वाला अधिकारी कह सकता है कि कोई विवाद नहीं है।
कोर्ट बार-बार मुख्य सचिवों, सचिवों व अन्य अधिकारियों को उनके द्वारा आदेशों के न पालन होने पर या जनहित याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान सरकारी पक्ष या सरकारी कार्यवाहियों या निष्क्रियता के लिए तलब करता रहा क्योंकि वे भी जानते हैं कि काम मंत्री नहीं करते हैं। अब इसलिए कई अधिकारी मौखिक आदेश की बजाय लिखित आदेश की बात करते हैं।
ईमानदार अधिकारी तो इससे भी क्षुब्ध रहते हें कि जब किसी विभागीय जांच की रिपोर्ट वे जमा करते हैं तो वे दबा दी जाती हैं। सच को सच कहने वाले अधिकारी भी कई बार परेशानियों में आ जाते हैं। सरकारी भ्रष्टाचार से त्रस्त व्हिसिल ब्लोवर का काम भी करते हैं। अधिकारी व मंत्री दोनों को जनहित में व कुशल प्रशासन के लिए एक दूसरे से सीखने व अपने अपने कामों की गुणवत्ता में सुधारना चाहिए। जानकार मंत्री व जानकार अधिकारी एक दूसरे के पूरक हो सकते हैं। कागजों में यदि राजनेता तेज हों तो अधिकारी को डर बना रह सकता है कि मंत्री या अन्य जनप्रतिनिधि उसकी गलतियों या मंशा को पकड़ लेंगे। जिन मंत्रियों में भाषा को समझने, लिखने या परियोजनाओं की जानकारी न हो तो वह अधिकारियों के बिना चल नहीं सकते हैं। विधान सभा में बिना होम वर्क के व तैयारियों के जब खुद लिखने-पढ़ने से परहेज करने वाले मंत्री जाते हैं तो वे सवालों का जवाब भी वही पढ़ कर देते हैं जो उनको लिख कर दिया गया हो और जो अपर्याप्त भी हो सकता है व अप्रासंगिक भी। ऐसे में तो वे केवल धौंस-पटटी दिखाकर घुड़सवार ही बन सकते हैं ज्ञान के आधार पर नहीं। विधान सभा में ही नहीं न्यायालयों में भी जो सरकार की फजीहत होती है उसका एक कारण यह भी है।
परन्तु हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि राज्य सरकारों में व विधायकों में उस समय कम ही संवेदना उपजती है या आक्रोश उभरता है जब राज्य सरकार के अधिकारी व कर्मचारी पंचायती राज संस्थाओं की ब्लाक गांव या जिला पंचायतों के चुने गये प्रतिनिधियों व्दारा बुलाई गई आधिकारिक बैठकों में शामिल न होने को अपनी आदत बना देते हैं या उनके फैसलों को अमल में नहीं लाते हैं।