जय सिंह रावत
गत 11 अगस्त को संसद का मानसून सत्र सम्पन्न हो जाने के बावजूद केन्द्र सरकार का अचानक 18 से 22 सितम्बर तक संसद का विशेष सत्र बुलाना एक बड़े राजनीतिक धमाके का स्पष्ट संकेत है। लेकिन साथ ही ‘‘एक राष्ट्र एक चुनाव’’ की व्यवस्था की संभावनाओं पर विचार के लिये पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द की अध्यक्षता में कमेटी का गठन करने से लगता है कि सरकार विशेष सत्र में एक साथ चुनाव कराने की संवैधानिक व्यवस्था करने जा रही है। इसके अलावा भी ‘‘इंडिया’’ एलायंस को ढेर करने के लिये समान नागरिक संहिता और महिला आरक्षण बिल जैसे राजनीतिक ब्रह्मास्त्र भी चलाये जा सकते हैं। बहरहाल चर्चा तो एक साथ चुनाव की ही है। भारत जैसे विविधतापूर्ण और संघीय देश में ‘‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’’ (ओएनओई) कानून लाना जितना आकर्षक लग रहा है उतना ही अधिक जटिल भी है। इस विचार को व्यवहारिक धरातल पर उतारने में भारत सरकार को महत्वपूर्ण व्यावहारिक, संवैधानिक और राजनीतिक बाधाओं का भी सामना करना पड़ेगा।
भारत के संविधान में राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर एक साथ चुनाव का प्रावधान नहीं है। इस विचार को धरातल पर उतारने के लिए संविधान में संशोधन के लिए राजनीतिक सहमति और एक लंबी प्रक्रिया की आवश्यकता होगी। राज्य विधान सभाओं और लोकसभा के लिए निश्चित शर्तें समकालिक नहीं हैं। इन शर्तों के समन्वय के लिए दोनों स्तरों पर संवैधानिक संशोधन और कानूनी बदलाव की आवश्यकता होगी। संविधान के जानकारों के अनुसार इसके लिये कम से कम संविधान के 5 अनुच्छेदों में संशोधन करना पड़ेगा।
अनुच्छेद 83 खंड (2) के तहत लोकसभा का कार्यकाल ठीक 5 साल तय किया गया है। संसद के सत्र के संबंध में संविधान के अनुच्छेद 85 में प्रावधान किया गया है। भारत में किसी राज्य की विधानसभा का कार्यकाल संविधान के अनुच्छेद 172 द्वारा निर्धारित किया गया है। यह अनुच्छेद निर्दिष्ट करता है कि राज्य विधान सभा का सामान्य कार्यकाल पांच वर्ष होगा। लेकिन इसे कुछ परिस्थितियों में राज्य के राज्यपाल द्वारा पहले भी भंग किया जा सकता है, जैसे कि जब विधानसभा बहुमत का विश्वास खो देती है या जब राज्यपाल इसके विघटन की सिफारिश करता है। संविधान आपातकाल की घोषणा की स्थिति में विधानसभा के कार्यकाल के विस्तार की भी अनुमति देता है। इसी अनुच्छेद में प्रावधान है कि जब आपातकाल् की उद्घोषणा प्रवर्तन में है, तब संसद विधि द्वारा ऐसी अवधि एक बार में एक वर्ष तक बड़ा सकेगी और उद्घोषणा के प्रवर्तन में न रह जाने के पश्चात् किसी भी दशा में उसका विस्तार छह मास की अवधि से अधिक नहीं होगा। राज्य की संवैधानिक मशीनरी के खराब होने की स्थिति में केंद्र सरकार अनुच्छेद 356 में प्रदत्त शक्ति का उपयोग कर राज्य के प्रशासन का नियंत्रण ग्रहण करता है। इस अनुच्छेद को “राष्ट्रपति शासन” भी कहा जाता है। लेकिन अब इस अनुच्छेद का इस्तेमाल आसान नहीं रह गया है। केंद्र शासित प्रदेशों, जिनकी अपनी विधान सभाएं नहीं हैं, की विशिष्ट स्थिति को समायोजित करने के लिए भी आवश्यक प्रावधान करने होंगे। अनुच्छेद 324 में संशोधन कर एक साथ चुनावों के समन्वय के लिए चुनाव आयोग को अतिरिक्त अधिकार और जिम्मेदारियों के साथ सशक्त बनाना होगा ताकि आयोग समय से पहले बिना राज्य सरकार की सहमति से भी चुनाव तिथियां घोषित कर सके।
आजादी के बाद पहले चुनाव से लेकर 1957, 1962 और 1967 में भी लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए गए। लेकिन दलबदल, राजनीतिक अस्थिरता तथा अनुच्छेद 356 के बार-बार इस्तेमाल के कारण एक साथ चुनाव का क्रम टूटता गया। अविश्वास प्रस्ताव के जरिये राज्य सरकारें समय से पहले गिरती रही है और खण्डित जनादेश के कारण विधानसभा नयी बहुमत की सरकार चुनने की स्थिति में नहीं रहीं। अब अविश्वास प्रस्तावों और विधान सभाओं के विघटन से संबंधित प्रासंगिक प्रावधानों में संशोधन की आवश्यकता भी होगी। चुनाव के समय में बदलाव के लिए दसवीं अनुसूची (दलबदल विरोधी कानून) में संशोधन भी करना होगा। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि भारत में संवैधानिक संशोधनों के लिए लोकसभा और राज्यसभा में दो-तिहाई बहुमत और कम से कम आधे राज्य विधानमंडलों द्वारा समर्थन की आवश्यकता होती है। ऐसी आम सहमति हासिल करना और संविधान में सफलतापूर्वक संशोधन करना एक लंबी और चुनौतीपूर्ण प्रक्रिया है।
एक साथ चुनाव के पक्ष में धन की बचत का तर्क भी दिया जा रहा है लेकिन भारत जैसे विशाल और बड़ी आबादी वाले देश में चुनाव कराने के लिए व्यापक साजो-सामान योजना और संसाधनों की आवश्यकता होती है। एक साथ चुनाव होने से चुनाव आयोग, सुरक्षा बलों और प्रशासनिक मशीनरी पर भारी दबाव पड़ेगा। देश के हर कोने में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन, प्रशिक्षित कर्मियों और पर्याप्त बुनियादी ढांचे की उपलब्धता सुनिश्चित करना एक कठिन काम होगा। नयी व्यवस्था से राष्ट्रीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित हो सकता है और क्षेत्रीय चिंताओं की उपेक्षा हो सकती है, जो संभावित रूप से संघवाद को कमजोर कर सकती है। एक साथ चुनाव को लेकर राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर विभिन्न दलों के बीच राजनीतिक सहमति हासिल करना चुनौतीपूर्ण है। विपक्षी दल वैसे ही इस विचार से विचलित नजर आ रहे हैं। जिन परिस्थितियों में यह कदम उठाया जा रहा है उनसे संदेह स्वाभाविक भी है।
एक विचार यह भी है कि कुछ राज्यों में, व्यवहार्यता का आंकलन करने और चुनौतियों से निपटने के लिए एक पायलट प्रोजेक्ट के रूप में यह काम शुरू किया जा सकता है। फिलहाल इसकी संभावना ज्यादा नजर आ रही है। सत्रहवीं लोकसभा का कार्यकाल 16 जून 2024 को पूरा हो रहा है। इसलिये आम चुनाव अप्रैल से मई के बीच संभावित हैं। लेकिन केन्द्र सरकार उससे पहले भी चुनाव करा सकती है, ताकि अधिक से अधिक राज्यों के चुनाव भी लोकसभा के साथ हो सकें। कम से कम दस राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल 2024 में आम चुनावों के लिए निर्धारित समय से पहले या उसके आसपास समाप्त हो रहा है। जबकि पांच राज्यों – मध्य प्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना, मिजोरम और छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव इस साल के अंत तक होने वाले हैं। आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, ओडिशा, सिक्किम और झारखंड में लोकसभा चुनाव के साथ ही चुनाव होने की संभावना है। मिजोरम, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान और तेलंगाना के चुनाव दिसम्बर से लेकर जनवरी 2024 तक होने हैं। अनुच्छेद 172 के अनुसार विधानसभा का कार्यकाल 5 साल तय है। चूंकि निर्वाचन आयोग कहने भर को स्वायत्तशासी है मगर व्यवहार में वह केन्द्र सरकार का ही एक विभाग है जो कि सामान्यतः केन्द्र सरकार की सुविधानुसार ही काम करता है। इसलिये जून में होने वाले राज्यों के चुनाव भी समय से पहले लोकसभा के साथ कराये जा सकते हैं। वर्तमान में 10 राज्य भाजपा शासित हैं और 4 एनडीए शासित हैं। भाजपा के लिये अपने शासन वाले राज्यों में मध्यावधि चुनाव कराने में कठिनाई नहीं होगी। वर्तमान में कांग्रेस शासित 4 राज्यों में से हिमाचल और कर्नाटक में और आम आदमी पार्टी शासित पंजाब और दिल्ली के साथ ही पंश्चिम बंगाल जैसे राज्यों के चुनाव समय से पहले कराने के लिये केन्द्र सरकार अनुच्छेद 356 में संशोधन करा सकती है।
भारत जैसे विविधतापूर्ण और संघीय देश में यह एक जटिल उपक्रम है। आम सहमति हासिल करने, संवैधानिक और कानूनी बाधाओं को दूर करने और एक सुचारु परिवर्तन सुनिश्चित करने के लिए दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। वर्तमान में दृढ़ इच्छा शक्ति की तो कमी नहीं मगर आम सहमति का नितान्त अभाव साफ नजर आ रहा है।