अतुल सती
दिल्ली से आए साथी विद्या भूषण रावत जी, जिनका दलित आदिवासी क्षेत्रों लोगों, भूमि अधिकार पर विशेष व अन्य सामाजिक मुद्दों पर लम्बा गम्भीर कार्य है, के साथ नीति की तरफ जा रहा था । रास्ता जगह जगह दरक रहा है । एक तरफ सड़क जगह जगह नदी की ओर धसक रही है दूसरी तरफ पहाड़ी से पत्थर गिरने का भय व पहाड़ में दरारें, अभी गिरे कि तब गिरे की स्थिति । ऐसे चलते हुए उनके ड्राइवर प्रदीप ने कहा साहब ये प्रलय क्या होती होगी या ऐसा ही कुछ, आपदा के प्रसंग में । मैंने छूटते ही, सडक पर हो रहे काम की तरफ इशारा करते हुए कहा, वही जिसकी तैयारी अगल बगल देख रहे हो । हम खुद ही बुला रहे हैं । रावत जी की सहमति पर मैंने आगे कहा कि, हम लोग उत्सवधर्मी तमाशा प्रिय लोग हैं । जब आपदा आई फरवरी में तब भी देखा कि पीड़ितों प्रभावितों राहत कर्मियों से कई गुना अधिक भीड़ तमाशबीन की थी । जिनकी जिज्ञासा यही की हुआ क्या । तो हम लोग 200 लोगों के मरने का और 2013 में 5000 से अधिक लोगों के मरने का तमाशा देख चुके । हमें कुछ बड़ा चाहिए । कोई बड़ा इवेंट । बड़ा सा तमाशा । तो यहां हम उसकी तैयारी कर रहे हैं ।
क्या यहां कार्य कर रहे इंजीनियर तकनीशियन नहीं जानते कि पेड़ की जड़ काटेंगे तो पेड़ गिरेगा ही ।
आगे बढ़े तो देखा एक से बढ़ कर एक भूस्खलन के नए नए क्षेत्र विकसित हो गए हैं । मलारी से आगे तो सड़क के दोनों तरफ चीड़ देवदार के पेड़ गिरे पड़े हैं । जिन्हें होने होने में वर्षों लगे होंगे । मलारी से आगे गमशाली की ओर जाते हुए सड़क के नजदीक ही नदी के बायीं तरफ बड़ा सा क्रेशर लगा है । उस पूरे क्षेत्र की शांति में वह बहुत खलता है ।
नीति की तरफ बढ़ते हुए बल्कि बम्पा गमशाली से ही मलवा नीचे ढेर का ढेर दिखता है । नदी का पूरा किनारा मलवे से बोल्डर से भरा हुआ है। नीति की तरफ बढ़ते हुए नदी ज्यों ज्यों और संकरी हो रही है मलवे के ढेर के तले नदी के दबने की आशंका और बढ़ती है । तभी आपको वह झील दिखती है । जिसकी तरफ सीमा सडक संगठन का ही एक सिपाही यह जानते आपको भेजता है कि अरे आप टूरिस्ट हैं, आपने वह झील नहीं देखी तो क्या देखा । जाइये देख आइए । हम पाले से ढंकी कांच की सड़क को पार कर वहां पहुंचते हैं । पहले सचमुच उसे देख अच्छा ही लगता है । रावत जी कहते हैं , यह झील तो थ्री इडियट फ़िल्म वाली झील की तरह लग रही है । तभी नजर मलवे पर और उस झील का, नदी के बहाव का रास्ता रोके डंप पर जाती है, तो अपनी कही वही बात याद आती है कि, हम बड़ी आपदा की तैयारी कर रहे हैं ।
लौटते में हम इसी पर बात करते हैं । जाते हुए जो उत्साह था वह यह सब देख निराशा में आक्रोश में बदल जाता है । हम करना क्या चाहते हैं .. पता नहीं । रावत जी टिप्पणी करते हैं उन न्याय के पंडितों को यहां का दौरा कराना चाहिए जो वहां न्याय के आसन पर बैठ कर पर्यावरण और विकास सुरक्षा पर बड़ी बड़ी बातें करते हैं । जी करता है ऐसा कर ही दिया जाय । उन्हें आमंत्रित किया जाय कि आओ अपनी आंखों देखिए क्या यह विकास टिकेगा भी ?
जिस सुरक्षा के नाम पर यह करने की कवायद है क्या वह सुरक्षा वाले वहां रह पाएंगे इन हालात में । जब उनका आना जाना ही जान पर खेलना हो जाय । गांव सुविधाओं के अभाव में खाली हो रहे हैं । सड़क लोगों की जिंदगी से खेल रही है । ऐसे में कौन सी सुरक्षा है जिसकी बात है .. अस्तित्व अस्मिता की कीमत पर ?