इस्लाम हुसैन
पहाड़ों के जंगलों में आग लगने के समाचार लगातार आग की तरह फैल रहे हैं। इस दावाग्नि के आगे, आग बुझाने का कोई सिस्टम वजूद में है भी, यह कहीं नहीं दिखाई दे रहा है। महकमा है, बजट है, लोग हैं परन्तु सब जगह शमशान वैराग्य जैसा सन्नाटा पसरा हुआ है।
तीस साल पहले से थोड़ा और पीछे चले तो पाएंगे कि जंगल में लगी आग लोगों के लिए जीवन मरण का प्रश्न होती थी बिना सरकारी मदद तो छोड़िए बिना कहे लोग खुद ही बुझा लेते थे। भले ही उनका जंगलों से कोई सीधा लेना देना न हो। रानीखेत में मेरे नाना और मामा ने न जाने कितनी बार हरी टहनियों से जंगल की आग बुझाने में मदद की है अपने ननिहाल के प्रवास में एक दो घटनाओं का गवाह मैं भी रहा हूं। नितान्त शहरी होने पर भी जंगलों के लिए उनकी अपनी नैसर्गिक समझ थी।
इसी तरह ग्रामीण समाज ने बिना किसी सरकारी सहयोग या सुझाव के शहरी अर्धशहरी आवश्यकताओं के लिए जंगल के कटान को रोका है भले ही उनका सगा सम्बंधी ही क्यों न जंगल कटान में सम्मलित हो । ग्रामीणों ने रात रात भर पहरा देकर अपने जंगल बचाए हैं फिर यह आज क्या हो गया कि लोगों के आसपास आग आती जा रही है लोग आग से घिर रहे हैं पर जंगल बचाने नहीं आ रहे हैं।
ऐसा नहीं कि लोग संवेदनशील नहीं हैं लेकिन लोगों की संवेदनशीलता धीरे समाप्त हुई है और इसके लिए माफ कीजिए इसमें अपने आप को उभय पक्ष मानने वाला सरकारी सिस्टम दोषी है। एक उदाहरण दूं करीब पच्चीस साल पहले जब मोबाइल फोन नहीं चले थे पर टेलीफोन हर जगह और अफसर के घर में थे तब जंगलात ने आग लगने की सूचना देने के लिए अपने कार्यालयों और अफसरों के घरों के टेएलीफोन नम्बर का विज्ञापन अखबारों में छापा था। इन पक्तियों के लेखक ने एक घटना होने पर उन टेलीफोनों पर सम्पर्क करना चाहा तो परिणाम निराशाजनक रहा टेलीफोन या तो अटेंड नहीं हुए और हुए तो अर्दलियों मेमसाहब ने पूरी बेरूख़ी दिखाई।
आज सोशल मीडिया में अनेक लोग इस आग पर चिंता दिखा रहे हैं तो कुछ एक्टीविस्ट चिंता जताने वालों से पर ही सवाल खड़े कर रहे हैं। लग रहा है सब लूडो खेलने में लगे हैं। इस बीच “नेपाल सरकार और महकमा” प्लान और नक्शे बनाने में व्यस्त दिख रहा है।
अलग अलग मत और आशंकाएं हवा में तैर रही हैं मुझे तीन दशक पहले कि वह घटनाएं याद आ रही हैं जो पहाड़ की दावाग्नि के सरकारीकरण की दिशा में बदलने का महत्वपूर्ण कारक बनी।
तीन दशक सम्भवतः 1984-85 का समय रहा होगा पहाड़ के जंगलों में अप्रत्याशित रूप से दावाग्नि की घटनाएं लगातार बढ़ गई थी। महकमा जन सहयोग से बुझाने की काम करता रहा और अपने कम संसाधनों का रोना रोता यहा। अखबार ऐसी खबरों से भर गए थे। कई जगह बारिश और बरसात से आग कम हुई थी।
पर अगले सिल चमत्कार हो गया महकमा-ए-जंगलात पूरी तैयारी और लावलश्कर के साथ भुस में लगी चिंगारी को भी ढ़ूंढकर बुझाने का दावा करने लगा। मई जून के सीजन में नैनीताल के नैना देवी मंदिर और तिब्बती बाजार के पीछे की झाड़ी में बाकायदा आग लगाकर उसे बुझाने के पराक्रम का मोहक व विशुद्ध व्यसायिक प्रदर्शन करके टूरिस्टों/अतिथियों की वाह वाही लूटी गई ।
ऐसा कैसे हो गया यह कहानी बाद में पहले आगे की घटनाएं।
अगले कुछ दिनों में नैनीताल/कुमाऊं के जंगलों को आग से बचाने के लिए विदेशी पैटर्न की योजना के भौतिक लक्षण प्रकट होने लगे। यूं तो नैनीताल से कुमाऊं के जंगलों का नियंत्रण होता था। पर जंगलों में आग रोकने की वह अधिकांश योजना नैनीताल जिले में ही केन्द्रित थी।
हल्द्वानी में आग बुझाने के लिए एक बड़ा अफसर तैनात हो गया (लम्बे पत्रकारिता जीवन में हमेशा महकमा-ए-जंगलात के आफीसरान के ओहदों पर कंफ्यूज्ड रहा हूं )। एक शानदार निदेशालय टाइप कर्यालय बन गया उस समय जिले का विभाजन नहीं हुआ था, तो अब के उधमसिंहनगर के तराई के जंगलों में और कुछ पर्वतीय वनों में लोहे के एंगिलों से बने ऊंचे वाच टावर बन गए ताकि कारिंदों को आग का धुआं और लपटें दूर से दिख जाएं।
उन वाच टावरों पर वायरलैस सैट से सुसज्जित कर्मचारी नियुक्त हो गए छोटी बड़ी लाल लाल गाड़ियां अग्निशमन दस्ते के लिए और छोटे बड़े अफसरों कारकुनों को ढोने के लिए आ गईं। आग से लड़ने का और भी बहुत सा सामान कर्यालयों और फील्ड स्टेशनों सज गया। फिर इसके बाद आग से लड़ने/ बुझाने का वह साधन आया जिसकी कल्पना आज की पीढ़ी नहीं कर सकती। जी हां पहाड़ की आग को बुझाने के लिए हैलीकॉप्टर आ गए। लाल सफेद जैसी आजकल की पीढ़ी ने फिल्मों में या सोशल मीडिया में देखा होगा। वह दो हैलीकाप्टर बताए गए थे। उनका एक फ्लाईंट प्वाइंट/स्टेशन तराई के जंगल में बना और एक स्टेशन भीमताल नौकुचियाताल की पहाड़ी पर बनाया गया।
इस कार्य का बाकायदा खूब प्रसार प्रचार किया, ग्रामीण क्षेत्रों में प्रचार किया कुछ सहयोग लेने देने की औपचारिकताएं भी हुईं। पर सब सरकारी ढंग से। हैलीकाप्टर और बाकी तामझाम के आगे वह सब गौण हो गया था। परियोजना के शुरूआती दिनों में हैलीकॉप्टर की कई उड़ाने हुईं। आग बुझाने के कई कृत्रिम शो कराए गए, पत्रकारों को कई दौरे कराए गए। पत्रकारों के लिए हैलीकॉप्टर की उड़ान का कार्यक्रम भी बनाया (सुनी सुनाई यह थी कि दो एक पर यह कृपा हुई थी पर मुझसे सौगंध ले लीजिए मैं नहीं था। अपने उस लिस्ट में रहे नहीं कभी) मैं काठगोदाम स्थित अपने घर से कभी कभी उन खिलौने की तरह दिखने वाले हेलीकॉप्टरों को को देखता अवश्य था।
सुना था कि उस दौर में जंगल में लगी आग बुझाने में उस परियोजना से बड़ी मदद मिली तीन दशक बीत जाने पर भी वैसी व्यवस्था क्यों नहीं हो सकी यह प्रश्न अभी भी अटका है। कुछ सालों बाद राज यह खुला कि अमेरिका में किसी ऐजेंसी का अग्निशमन का प्रोजेक्ट बंद हुआ था उसके सामान को को ठिकाने लगाने/खपाने के लिए एक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था के माध्यम से यह खेल खेला गया था जिसमें बड़े वारे न्यारे हुए थे और जैसा आमतौर पर होता है इधर पैसा(बजट) खतम उधर खेल(प्रोजेक्ट) खतम।
वह उडनखटोले कहां गए जमीन निगल गई या आसमाम में वो गुम हो गए अभी तक नहीं पता। सुनी सुनाई यह थी कि वह सब अस्थायी लीजी दिखावा था। हां एक बात जरूर हुई कि अगले सालों में वैसे भयंकर तरीके से जंगल नहीं जले जैसा परियोजना के एक दो वर्ष पूर्व जले थे, यह भी हो सकता है कि यह उस परियोजना का प्रताप हो और अब फिर वैसे प्रताप की आवश्यकता पड़ रही हो। इस सरकारी संवेदनहीनता में जंगल की फरियाद को कौन सुने, शायद कोई परियोजना ही सुने।