योगेंद्र यादव
“मैं? मैं तो कुछ नहीं करती। घर पे रहती हूँ। हाउसवाइफ हूँ।” मुझे अक्सर इस जवाब का सामना करना पड़ता है। जब कोई दंपत्ति कहीं मिल जाएँ तब अक्सर पुरुष आगे बढ़ कर अपना परिचय देता है। उनकी मिसेज़ पीछे खड़ी रहती है। चुपचाप नमस्ते करती है। जैसे पुरुष से पूछता हूँ, वैसे ही महिला से भी पूछता हूँ, “और आप क्या करती हैं?” इरादा उनकी उपस्थिति को दर्ज करने और बातचीत में उन्हें शामिल करने का होता है, उनकी कमाई के स्रोत के बारे में पूछना नहीं। लेकिन अगर वो महिला गृहिणी हो तो अक्सर सकुचा जाती है, खासतौर पर अगर वो पढ़ी लिखी आधुनिक महिला हो। झेंप कर कहती है की वो “कुछ नहीं” करती।
इस उत्तर से मैं परेशान हो जाता हूँ। कहता हूँ घर पर काम करना तो “कुछ नहीं” की श्रेणी में नहीं आता। ख़ुद अपनी मिसाल देता हूँ। एक बार मुझे तीन हफ़्ते के लिए अकेले दोनों छोटे बच्चों को संभालना पड़ा था। विदेश था, इसलिए किसी तरह की पारिवारिक मदद नहीं थी। वहाँ मजदूरी इतनी ज़्यादा है कि पैसे देकर घरेलू काम करवाने की हैसियत बहुत कम लोगों की होती है। इसलिए बच्चों को तैयार करने, स्कूल छोड़ने से लेकर रसोई-बर्तन और झाड़ू-पोछा सब काम अपने हाथ से करना पड़ता था। तीन हफ़्ते तक “कुछ नहीं” करते-करते मेरी कमर टूट गई थी। इसलिए जब कोई “कुछ नहीं” कहता है तो मुझे ध्यान आता है कि यह कितना मेहनत का काम है। यह किस्सा सुनकर गृहणी के चेहरे पर मुस्कान आती है। लेकिन दिल और दिमाग पर पड़ी लकीर को आप एक किस्से से तो पोंछ नहीं सकते। समाज को कैसे समझायें कि औरत कितना काम करती है।
यूँ तो प्रत्यक्ष को प्रमाण की जरूरत नहीं होनी चाहिए, लेकिन हाल ही में एक आधिकारिक रिपोर्ट ने मेरी इस धारणा की पुष्टि कर दी कि दरअसल एक औसत औरत एक औसत मर्द से ज़्यादा काम करती है। यह कोई छोटा मोटा अध्ययन या कोई शौक़िया आंकड़ा नहीं है। भारत सरकार ने पिछले पाँच साल से आधिकारिक रूप से अखिल भारतीय स्तर पर ‘टाइम यूज़ सर्वे करवाना शुरू किया है। पाँच साल के अंतराल के बाद नेशनल सैंपल सर्वे द्वारा किये जाने वाले इस सर्वे में देश के लगभग डेढ़ लाख परिवारों के ६ साल से बड़े सभी सदस्यों का सर्वे किया जाता है। इस सर्वे में उनके घर जाकर उनसे पूछा जाता है की आपने कल सुबह ४ बजे से लेकर आज सुबह ४ बजे तक क्या कुछ किया। हर आधे घंटे या उससे भी कम समयावधि में किए हर काम का ब्योरा दर्ज कर उसका विश्लेषण किया जाता है इसकी रिपोर्ट में। इसकी पहली रिपोर्ट वर्ष २०१९ में आई थी। दूसरी रिपोर्ट हाल ही में केंद्र सरकार ने सार्वजनिक की है।
वर्ष २०२४ के आंकड़े पर आधारित यह नवीनतम रिपोर्ट बताती है कि हमारे देश में एक औसत औरत हर दिन एक औसत पुरुष की तुलना में एक घंटा ज़्यादा काम करती है। सटीक आँकड़े देखें तो हर पुरुष प्रति दिन ३०७ मिनट (यानी ५ घंटे और ७ मिनट) काम करता है तो एक औसत महिला प्रति दिन ३६७ मिनट (यानी ६ घंटे और ७ मिनट) काम करती है। फ़रक यह है कि पुरुष को अधिकांश काम की कमाई मिलती है, लेकिन महिला के अधिकांश काम की कमाई नहीं होती। एक औसत पुरुष के ३०७ मिनट में २५१ मिनट का काम पैसे देता है, उसके सिर्फ ५६ मिनट ऐसे काम में लगते है जिसकी कमाई नहीं होती। लेकिन महिला की स्थिति ठीक उलटी है। उसके ३६७ मिनट में सिर्फ ६२ मिनट के काम से कमाई होती है और ३०५ मिनट का काम “कुछ नहीं” की श्रेणी में रह जाता है। यानी की सिर्फ़ इतना कहना ठीक नहीं है की आदमी बाहर का काम करता है और महिला घर का। अंदर-बाहर दोनों काम जोड़ दें तो महिला का काम भारी होता है।
अभी २०२४ के सभी आंकड़े नहीं आए हैं, लेकिन २०१९ के आंकड़े देख कर हम कुछ गहराई में जा सकते हैं। यह “कुछ नहीं” वाला काम मुख्यतः दो श्रेणी में आता है — एक तो घर में रसोई, सफ़ाई, कपड़ा धोना, पानी भरना जैसा घर चलाने का काम और दूसरा बच्चों और बुजुर्गों की देखभाल का काम। इन दोनों तरह के कामों में महिला पर बोझ हर वर्ग के परिवार में देखा जा सकता है। यह एक सामान्य भ्रांति है कि अगर औरत कमाने लग जाय तो यह बोझ घट जाता है। यह रिपोर्ट बताती है कि दरअसल ‘कामकाजी’ यानी पैसा कमाने वाली महिला दोनों तरफ़ से पिसती है। ग्रामीण परिवार में कमाने के लिए काम करने के बाद भी इन दोनों घरेलू कामों में महिला औसतन ३४८ मिनट खर्च करती है तो शहरी परिवार में भी ३१६ मिनट। अगर पुरुष बेरोजगार हो तब भी वह घर के काम में हाथ नहीं बँटाता। पिछली रिपोर्ट इस भ्रांति का भी खंडन करती है कि औरतें साज-श्रृंगार में ज़्यादा समय खर्च करती हैं। एक औसत दिन में पुरुष नहाने धोने तैयार होने में ७४ मिनट लगाते हैं, और महिलायें उससे कम ६८ मिनट। खाने पीने में भी पुरुष महिलाओं से दस मिनट फ़ालतू लेते हैं। गृहिणी को सुस्ताने, आराम करने, बातचीत करने और मनोरंजन के लिए दिन में ११३ मिनट मिलते हैं, जबकि पुरुष को १२७ मिनट।
अब सवाल यह उठता है की यह कौन तय करता है की किस काम के लिए पैसा मिले और किसके लिए नहीं? जाहिर है यह काम के महत्व के आधार पर तय नहीं होता। दफ्तर और फैक्ट्री के काम बिना तो फिर भी दुनिया चल सकती है लेकिन रसोई और बच्चों की देखभाल के बिना नहीं। पुरुष प्रधान समाज ने अपने फायदे के लिए यह व्यवस्था बना रखी है। तो क्या इस अन्याय को ठीक करने की कोई व्यवस्था नहीं होनी चाहिए? पिछले कुछ वर्षों में अनेक राज्यों में महिलाओं को कुछ पैसा नियमित रूप से देने का चलन निकला है।अलग अलग नाम से चली इन योजनाओं को पैसा बांटने की खतरनाक प्रवृत्ति के रूप में देखा और दिखाया गया है। लेकिन अगर यह देश पुरुषों से ज़्यादा महिलाओं की मेहनत पर चल रहा है तो राष्ट्र निर्माण में उनके इस योगदान के एवज़ में उन्हें कुछ भुगतान करने में क्या बुरा है? इसे चुनाव से पहले रिश्वत या भीख की तरह देने की बजाय क्यों नहीं महिलाओं के लिए “कृतज्ञता निधि” जैसी कोई राष्ट्रव्यापी योजना बनाई जाती? ८ मार्च को इस महिला दिवस पर देश में विचार क्यों नहीं होता?