विनीता यशस्वी
प्रश्न : आपने यात्राओं की शुरूआत कैसे की ?
उत्तर : मैं 1998 में पिण्डारी गया बतौर एन.सी.सी. कैडेट। वो मेरी पहली यात्रा थी और बहुत विचित्र यात्रा थी। रानीखेत से सौंग तक मुझे अकेले ही जाना पड़ा। जब मैं भराड़ी पहुँचा तो वहाँ मुझे अनूप साह जी मिल गये। हम दोनों ने ट्रक में बैठ कर सौंग तक का रास्ता तय किया। सौंग से वे अपनी टै्रकिंग के लिये आगे बढ़ गये और मैं वहाँ चला गया, जहाँ मेरा कैम्प लगा था। वहाँ मैंने अकेले ही रात काटी, क्योंकि मेरी टीम के बांकी लोग धाकुड़ी जा चुके थे। अगली सुबह कैम्प में एन.सी.सी. की मेडिकल टीम ने मेरा मेडिकल टेस्ट किया, जिसके बाद मैं अकेला ही धाकुड़ी के लिये चला गया। धाकुड़ी में भारत के अन्य राज्यों से भी एन.सी.सी. की टीमें पहुँची थीं। इसलिये मैं उत्तर प्रदेश वाले कैम्प में चला गया, अपने साथियों से मिला और आगे की यात्रा मैंने अपने साथियों के साथ की।
प्रश्न : पहली यात्रा के अच्छे और बुरे अनुभव क्या रहे ?
उत्तर : बुरा अनुभव तो यही रहा कि मुझे अकेले यात्रा करनी पड़ी। उस समय वीर बहादुर जी की मृत्यु हुई थी, जिस कारण सभी ऑफिस बंद थे और मेरे कागज भी नहीं बन पाये। बहुत मुश्किल से मैंने अपने सारे कागज तैयार करवाये। अच्छा अनुभव तो यही रहा कि मैंने पहली बार ग्लेशियर देखा था। मैं ग्लेशियर को देखता ही रह गया। उसी वक्त मैंने तय किया कि मैं ग्लेशियरों में आता रहूँगा।
प्रश्न : आपने दूसरी यात्रा कब की और किस उद्देश्य के साथ की ?
उत्तर : दूसरी यात्रा 1991 में गंगोत्री के लिये की। इस यात्रा का उद्देश्य घूमना और गंगोत्री को देखना-समझना ही था। इस यात्रा में मेरे साथ मेरे चार मित्र और एक गाइड थे। यह यात्रा हमने दिसम्बर के महीने में की। हमें थराली से ही पैदल जाना पड़ा, क्योंकि बर्फ गिरने के कारण गाड़ी आगे नहीं जा सकती थी। पहले दिन हम थराली से गंगोत्री तक पैदल गये और अगले दिन गौमुख तक। उसी दिन वापस भी लौट आये। वापस लौटने के बाद हमने एक क्लब बनाया और फिर हम पिण्डारी ग्लेशियर गये। उस यात्रा के दौरान हमने पिण्डारी ग्लेशियर से बहुत कूड़ा इकट्ठा किया। उस कूड़े को अपने साथ अल्मोड़ा लाये और अल्मोड़ा में उसे नष्ट किया।
प्रश्न : क्या फिर यात्राओं का सिलसिला जारी रहा ?
उत्तर : हाँ। 1994 में हम थारकोट-भानेरी अभियान के लिये गये। इस अभियान के दौरान हम पहले थारकोट चोटी में चढ़े और उसके बाद भानेरी चोटी में। फिर 1995 में मैंने पी.एच-डी. संबंधी शोध कार्यों के लिये यात्रा की। मेरा विषय भूगोल है। इस दौरान मैं और मेरा एक साथी चौंदास, व्यास, कालापानी और नाभीढांग होते हुए दारमा निकले। वहाँ से कुटी, नाभी, रांककांग और ज्योलिकांग होते हुए, सिनला दर्रा पार करते हुए तिदांग, दिदांग होते हुए धारचुला वापस लौट आये।
प्रश्न : इस यात्रा में आपने क्या पाया ?
उत्तर : हमने यह पाया कि पर्यटन के लिये हमारा आधारभूत ढांचा अच्छा नहीं है। गाइड और पोर्टर की व्यवस्था भी नहीं है। रास्ते में कहीं भी रुकने के स्थान नहीं हैं। हम उस समय इनसे संबंधित विभागों से बात नहीं कर पाये थे। परन्तु 1997 में जब हम एक अनाम चोटी पर चढ़ने के लिये गौमुख से रक्तवर्ण ग्लेशियर की ओर निकले तो उस वक्त हमें हर जगह साहसी पर्यटन अधिकारी का कार्यालय मिला, जिनसे हमें थोड़ी बहुत मदद भी मिल गयी थी।
प्रश्न : आपका शोध कार्य कब पूरा हुआ ?
उत्तर : 1999 में मेरी पी.एच-डी. पूरी हो गयी और मैं गोविन्द बल्लभ पंत पर्यावरण एवं विकास संस्थान, कटारमल में काम करने लगा। मेरी अपने काम से संबंधित यात्रायें फिर से शुरू हो गयीं। सबसे पहली यात्रा गौमुख की ही थी। मुझे यह पता करना था कि गंगोत्री ग्लेशियर कितना पीछे हट रहा है। मुझे वहाँ के वातावरण का भी अध्ययन करना था। यह लगभग 5 साल तक चला। मापन के लिये जून से अक्टूबर तक का समय अच्छा होता है, इसलिये इस दौरान मैं अक्सर वहीं रहा करता था।
प्रश्न : मापन का मतलब क्या है ?
उत्तर : मापन का मतलब यह पता करना होता है कि प्रतिदिन ग्लेशियर से कितना लीटर पानी निकल रहा है और कितना किलोग्राम गाद रोजाना ग्लेशियर से निकल रही है।
प्रश्न : तो मापन करते हुए आपने क्या पाया ?
उत्तर : मैंने यही पाया कि गंगोत्री ग्लेशियर खिसक भी रहा है और सिकुड़ भी रहा है।
प्रश्न : खिसकने और सिकुड़ने में क्या अंतर होता है ?
उत्तर : खिसकने का अर्थ होता है कि ग्लेशियर के स्नाउट से बर्फ कम हो रही है और सिकुड़ने का अर्थ होता है कि ग्लेशियर की मोटाई कम हो रही है। इस विषय से संबंधित हमारे कम से कम 5 शोध पत्र राष्ट्रीय और अंर्तराष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशित हुए।
प्रश्न : क्या इस अध्ययन के लिये आपने और भी यात्रायें कीं ?
उत्तर : 2000 में गौमुख से कालिन्दीखाल (19,519 फीट ऊँचाई) को पार करते हुए हम बद्रीनाथ पहुँचे। इस दौरान हमने गंगोत्री ग्लेशियर के ऊपर यात्रा की। गंगोत्री ग्लेशियर से जो दूसरे ग्लेशियर जुड़ते हैं उनका भी अध्ययन किया। इनमें रक्तवन और चतुरंगी ग्लेशियर मुख्य थे। तब भी हमने ग्लेशियरों का मापन किया। इस शोध कार्य को करने के पश्चात मुझे युवा वैज्ञानिक फैलोशिप मिली, जिसके अन्तर्गत मैंने मिलम ग्लेशियर का मापन किया।
प्रश्न : आपने गंगोत्री ग्लेशियर और मिलम ग्लेशियर में क्या समानता पायी और क्या भिन्नता पायी ?
उत्तर : समानता यह थी कि खिसक दोनों ग्लेशियर रहे हैं। परन्तु मिलम ग्लेशियर की खिसकने की रफ्तार थोड़ा कम है।
प्रश्न : इसका कारण क्या होगा ?
उत्तर : बदलता मौसम भी इसका बड़ा कारण है और गंगोत्री में बेतहाशा बढ़ता पर्यटन भी। शोध के दौरान हमने पाया कि गंगात्री में पेड़ बहुत कट रहे हैं। पर्यटक आग जलाने के लिये भोज और जूनिफर का खूब इस्तेमाल करते थे, जिससे जंगलों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ रहा था। पर्यटकों की वहाँ बहुत भीड़ रहती थी, जिसके चलते दुकानें भी वहाँ बहुत थीं। प्लास्टिक का कूड़ा भी बढ़ रहा था। लोग कूड़ा वहीं छोड़ जाते थे। कांवड़ यात्रा के दौरान तो कूड़े का अम्बार लग जाता है। गौमुख में स्नान करते समय लोग अपने पुराने कपड़े वहीं छोड़ आते हैं और नये कपड़े पहन लेते हैं। इस बारे में हमने कई लेख लिखे और यह मुद्दा उठाया कि इन स्थानों पर जाने वाले लोगों की संख्या सीमित की जानी चाहिये। हद से ज्यादा लोगों का ग्लेशियर में पहुँच जाना ग्लेशियर को प्रभावित कर रहा है।
प्रश्न : क्या इस मुद्दे को उठाये जाने का कुछ प्रभाव पड़ा ?
उत्तर : हाँ, जब हमारे और अन्य लोगों की ओर से इस मुद्दे को गंभीरता से उठाया गया तो उसके बाद यहाँ आने वाले पर्यटकों के लिये परमिट जारी होने लगे। दुकानों की संख्या तय की गयी। आग जलाना बंद करवाया गया और पर्यटकों द्वारा प्लास्टिक के सामान को ले जाने पर रोक लगी।
प्रश्न : उत्तराखंड के अलावा आपने और कहीं की यात्रायें भी की हैं ?
उत्तर : उत्तराखंड के अलावा लेह लद्दाख, मनाली, कश्मीर आदि की यात्रायें की हैं। परन्तु ये सब यात्रायें घूमने के उद्देश्य से थीं, अध्ययन के उद्देश्य से नहीं।
प्रश्न : जब भी आप ग्लेशियरों में जाते हैं तो कौन सी बात सबसे ज्यादा दिमाग में आती है ?
उत्तर : जब भी ग्लेशियरों में जाता हूँ तो सोचता हूँ कि ग्लेशियर कब तक जिन्दा रहेंगे। ग्लोबल वॉर्मिंग का इन पर क्या असर पड़ेगा और इनकी आयु कितनी लम्बी होगी ?
प्रश्न : यात्राओं के अनुभव क्या रहे ?
उत्तर : हर तरह के मौसमों को झेलना और उनमें काम करना एक अलग ही अनुभव है। इसके अलावा जिस जगह जाता हूँ वहाँ के लोगों से मिलना, उनकी संस्कृति, उनके खाने और उनकी बोली-भाषा को जानना अच्छा लगता है। जिस इलाके में जाओ तो वहाँ के लोगों से बहुत कुछ सीखने को मिल जाता है।
प्रश्न : यात्राओं के दौरान क्या अच्छा लगता है और क्या बुरा ?
उत्तर : अच्छा तो यही लगता है कि इतना कठिन जीवन होने के बावजूद लोग गाँवों में रह रहे हैं और खेती-किसानी कर रहे हैं। पर बुरा यह देखकर लगता है कि इन लोगों के लिये कोई भी सुविधा सरकार द्वारा नहीं दी जाती है। अभी मैं अपनी रालम यात्रा की ही बात करुँ तो हमें गाँवों में अस्पतालों की कोई सुविधा नहीं मिली। हमारे साथ इस यात्रा में एक डॉक्टर भी थे। वे गाँव के लोगों के लिये दवाइयाँ लेकर गये और जिन लोगों को कोई स्वास्थ्य की कोई दिक्कत थी तो उनसे बात करके उनकी परेशानियों का हल निकालने की कोशिश की। इसके अलावा शिक्षा की हालत भी बहुत खराब है और सड़कें तो हैं ही नहीं। खेती-किसानी के लिये भी कोई खास सुविधायें इन लोगों को नहीं मिल रही हैं।
प्रश्न : सरकार से क्या अपेक्षा रखते हैं ?
उत्तर : सरकार द्वारा जो भी सुविधायें दी जा रही हैं उनका लाभ प्रत्येक गाँव तक पहुँचना चाहिये। गाँवों में अच्छे अस्पताल और अच्छी शिक्षा की सुविधा उपलब्ध करायी जानी चाहिये। सड़कों की सुविधा होनी चाहिये। खेतीहर जानवरों का अस्पताल भी गाँवों में अवश्य होना चाहिये। स्वस्थ पर्यटन को बढ़ावा देना चाहिये ताकि ग्रामीण लोगों की उनके घर में ही थोड़ा रोजगार मिल सके।