डाॅ. पंकज उप्रेती
उत्तराखण्ड की राजनीति में हमेशा धुरी बनकर रहीं नेता प्रतिपक्ष डाॅ.इन्दिरा हृदयेश अब हमारे बीच नहीं रहीं लेकिन उनकी असाधरण प्रतिभा हमेशा प्रेरणा देती रहेगी। मूल रूप से बेरीनाग क्षेत्र के दशौली की इन्दिरा जी ने हर विपरीत परिस्थिति को अपने अनुकूल बनाते हुए राज किया। 1941 में स्व.टीकाराम पाठक के घर जन्मी इन्दिरा का स्यौहारा, बिजनौर के हृदयेश कुमार के साथ विवाह हुआ। यह पीलीभीत से एक-दूसरे को जानते थे और विवाह उपरान्त हल्द्वानी में रहे। इन्दिरा राजनीति के क्षेत्र में निपुण थीं तो हृदयेश कुमार व्यवसायी थे।
शिक्षकों की नेता के रूप में एक शिक्षक का एमएलसी बनना और कांग्रेस सहित सभी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के बीच शिष्टता के साथ अपनी बात रखने का इन्दिरा जी का लहजा उन्हें हमेशा श्रेष्ठता की श्रेणी में रखता है। वह जानती थी कि शासन किस प्रकार से चलता है और प्रशासन से कैसे कार्य करवाया जाए। हल्द्वानी के विकास में उनकी अमिट छाप हमेशा रहेगी। पूर्व मुख्यमंत्री दिग्गज नेता स्व. एन.डी.तिवारी के निकट रही इन्दिरा जी उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद भी सत्ता पक्ष और विपक्ष में शीर्ष आसन पर रहीं। अपने रास्ते बुनने की कला में निपुण इन्दिरा ने यूपी के जमाने में ही शीर्ष के नेताओं का सानिध्य पाया था। ऐसे में उत्तराखण्ड बनने के बाद उनका सा दिग्गज कौन होता? सत्ता भोग करने वाले अधिकांश नेताओं की तरह वह भी इस पर्वतीय प्रदेश की वह सीधे-सीधे समर्थक नहीं थी लेकिन राज्य बनने के बाद सूचना, लोकनिर्माण विभाग, संसदीय कार्य तथा विज्ञान एवं टैक्नालाॅजी मंत्री वह रहीं। बाद में संसदीय कार्य विधायी वित्त, वाणिज्य कर, स्टाम्प व निबन्धन, मनोरंजन कर, निर्वाचन, जनगणना, भाषा व प्रोटोकाल मंत्रालयों को संभाला। नेता प्रतिपक्ष के रूप में भी वह लोकप्रिय रही हैं।
एक साधारण महिला की असाधारण कहानी सुनने-समझने को आज जमाना तैयार है लेकिन एक दौर ऐसा भी था कि इन्दिरा को एक महिला होने का दंश पग-पग पर झेलना पड़ा। ये असाधारण महिला कौन है जैसे सवाल मेरे मन में बचपन से थे। चूंकि पिता स्व. आनन्द बल्लभ जी से उनके कई किस्से सुने थे तो जिज्ञासा भी बढ़ती चली गई। हमारे छापाखाना ‘शक्ति प्रेस’ में गपोड़ियों का अड्डा तो था ही, लिखने-पढ़ने वालों से लेकर रोजगार-बेरोजगारों के बीच गुप्तचर विभाग विभाग के भी आकर बैठते। कई सारे लोगों की गपशप, बचपन में तो सिर्फ कहानी जैसा ही लगती थी लेकिन इण्टर कक्षा में आते-आते जब समझ आने लगा कि पार्टियां भी होती हैं और इनके नेता ऐसा-वैसा करते हैं इत्यादि। बात-बहस के बीच पिता जी हमेशा इन्दिरा का पक्ष लेते। वह बड़े साफ शब्दों में कहते- ‘‘ये समाज महिला को चैराहे पर खड़ा करना चाहता है लेकिन इन्दिरा वह है जिसने उस रानी का जैसा किया जो अपने राज्य के मुख्य द्वार पर अपना घाघरा लटका देती है और आदेश देती है जिसे आना-जाना है वह नियम माने।’’
पिता जी इन्दिरा जी को जितना पहचान पाए, इन्दिरा हृदयेश ने भी उन्हें बहुत पहचाना। यही कारण था कि पत्रकारों की कक्षा लगाने वाली यह नेता हमेशा उप्रेती जी का सम्मान करती थी। मुझे याद है पत्रकार वार्ता के लिये गिने-चुने पत्रकारों में मैं भी जाने लगा था। उन दिनों में बी.ए.का विद्यार्थी था और पत्रकारों की टोली में सबसे छोटा भी। इन्दिरा जी के सौरभ होटल में पत्रकारों को जाते ही चाय-नाश्ता करवाया जाता और सवाल-जबाब के साथ वह अपनी बात कर देती। एक दिन अपने साथियों के साथ पिता जी गपिया रहे थे और बोले- ‘‘यार होटल में उ ख्वैड़ खा्न लिजी जाण छ। पत्तरफाड़ बुला रखीं।’’ डबलरोटी के कटे टुकड़ों को वह ख्वैड़ कह रहे थे। वाकेई कुछ सालों में स्थिति यह हो चुकी थी उन गिने-चुने पत्रकारों में वह चेहरे भी आने आने लगे जिनसे इन्दिरा हृदयेश सख्त नाराज थीं। थोड़ा समय और बीतने के बाद हालात यह हो गये कि असल पत्रकारों की जगह ऐसी भीड़ ने ले ली जो अपना घेरा बनाने, अपने स्वार्थों के लिये उन्हें घेरने लगी। साथ ही इन्दिरा जी को भी वह प्रिय होने लगे थे जिनसे वह सख्त नाराज थीं। पिता जी ने पत्रकार वार्ता में जाना छोड़ दिया था लेकिन वह अपना वाहन भिजवाकर कहती- ‘उप्रेती जी को ले आओ।’ बाद-बाद को हाल यह हो गया कि पत्रकार वार्ता का मतलब अखबारों को सूचना देने वालों को बुलाकर लिखवाना है। वह जानती थी कि अब आनन्द बल्लभ नहीं आयेंगे क्योंकि वह सवाल भी करते हैं। इसके बावजूद श्रीमती हृदयेश ने पूरा मान दिया क्योंकि वह चतुर और निपुण तो थी ही। वह जानती थी कि उप्रेती या उनके जैसे पत्रकार याचक बनकर खड़े नहीं होने वाले हैं। वह हमारे व्यक्तिगत और संस्थागत प्रत्येक कार्य में अतिउत्साह के साथ भागीदारी करती थी।
राजनीति के दांवपेंच के अलावा शिक्षक उनकी मूल प्रवृत्ति थी। मैंने स्वयं देखा है वह छोटे-बड़े पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ती थी और जानकारों से सलाह लेने में सकुचाती नहीं थी। सदन की मर्यादा के साथ किस प्रकार से अपनी बात को रखना है वह खूब जानती थीं। इसके बावजूद सत्ता के मद में चूर होकर वह एक बार भाजपा के बंशीधर भगत से चुनाव हारीं। अपनी उस हार से सबक लेते हुए इन्दिरा ने जनता के बीच सम्पर्क साधा और फिर से हल्द्वानी विधानसभा सीट पर सफल रहीं। साथ ही वह अपने सुपुत्र सुमित को अपना राजनैतिक उत्तराधिकारी बनाने का सपना देखने लगी। उस समय हमारे छापेखाने में गपौड़ियों की बैठक में जब सुमित की चर्चा हुई तो पिता जी साफ बोले- ‘जानवर भी अपने बच्चों को पहले लड़ना-बचना सिखाते हैं। यह सफल नहीं हो सकती है। इनके सोचने से कुछ नहीं होगा।’ हुआ भी यही कि सुमित के राजनीति में उतरने की हवा ने इनका विरोध शुरु कर दिया। तब इन्दिरा ने सुमित को समाज में मिलने-जुलने सहित अन्य तौर-तरीके बताये। इस बीच पिता जी का नैनीताल समाचार में हल्द्वानी को लेकर सिलसिलेवार सीरियल प्रकाशित हो रहा था। बाद में उन्होंने ‘‘हल्द्वानी: स्मृतियों के झरोखे से’’ पुस्तक प्रकाशित करवाई, जिसमें इन्दिरा हृदयेश के अनछुवे पहलुओं को भी दिया गया है।
पिता जी जितना स्पष्ट बोलते थे उतना ही लिखते भी थे। यह सब इन्दिरा जानती थीं, इसी लिये वह उन्हें ‘पत्रकार’ के अलावा मार्गदर्शक मानती थी। इस पुस्तक को पिता और मैं स्वयं इन्दिरा जी को सौंप कर आये थे। उन्होंने इसे पढ़ा और उनके चाहने और न चाहने वालों ने भी पुस्तकें खरीद कर पढ़ीं। इस पुस्तक का विमोचन सन् 2013 में बसंत पंचमी के दिन हुआ था और इसके अगले ही सप्ताह पिता का निधन भी हो गया। इन्दिरा जी ने अपना वह नाता बनाये रखा और स्व.आनन्द बल्लभ उप्रेती की यादों को संजोते हुए ‘पिघलता हिमालय’ प्रत्येक कार्यक्रम में प्रतिवर्ष भागीदारी की। वह अपने संगठन या सत्ता में जिस पद पर भी रहीं, उनसे हमारा शहर का नाता था। पद पर आसीन व्यक्ति की हैशियत के अनुसार कई बारे उसके पतों में सुधार होता रहता है लेकिन हमारे लिये उनका एक ही पता था- डाॅ. इन्दिरा हृदयेश, सिविल लाइन, नैनीताल रोड, हल्द्वानी। इसी पते पर उन्हें अभी तक अखबार भेजा जाता रहा। शहर का नाता उन्होंने भी निभाया और हमने भी। यादों की यह बारात बहुत लम्बी है जिसमें इन्दिरा जैसी प्रेरणादायी महिला का होना संरक्षक की भूमिका था।
One Comment
Hansi Brijwasi
उप्रेती जी बहुत बेवाकी से तथ्यात्मक व सारगर्भित लेख लिखा है आपने ,उत्तराखंड की “आयरन लेडी “पर👍