राजीव लोचन साह
हमारे विकास के तरीके में एक बहुत बड़ी खामी है। हम बहुत खर्चीले ढंग से नये निर्माण करते हैं, नयी चीजें बनाते हैं, नयी संस्थायें स्थापित करते हैं। मगर उनकी मरम्मत नहीं कर पाते। उनका रखरखाव नहीं कर पाते, उन्हें लम्बे समय तक ठीक से चला नहीं पाते। हाईटैक शौचालय बनायेंगे, मगर जल्दी ही वे बदबू और गन्दगी के केन्द्र हो जायेंगे। उनको देखने वाला कोई व्यक्ति वहाँ मौजूद नहीं होगा। छोटी-बड़ी मोटर सड़कें बनायेगे, मगर जब वे टूटने-उखड़ने लगेंगी तो उन्हें हाथोंहाथ ठीक नहीं करेंगे। जब वे पूरी तरह ध्वस्त हो जायेंगी तो फिर नये सिरे से टेंडर पड़ेंगे। अच्छे स्कूल बनेंगे, मगर शिक्षकों की कमी हमेशा बनी रहेगी। अस्पतालों में बहुमूल्य मशीनें इस्तेमाल न होने के कारण जंक खाती रहेंगी। खूबसूरत स्ट्रीट लाईट्स लगेंगी, मगर बिजली का बिल न भरे जाने के कारण जल्दी ही अंधेरे में डूब जायेंगी। दरअसल बनाने वाली एजेंसी कोई और होती है तथा रखरखाव करने वाली कोई और। सारी प्रक्रिया अनेक एजेंसियों में बिखरी होती है और उन एजेंसियों में आपस में कोई तालमेल नहीं होता। अन्त में खामियाजा जनता को भुगतना पड़ता है। इस समस्या पुख्ता समाधान तमी हो सकता है, जब ऐसी सारी एजेंसियों को एक छत के नीचे ले आया जाये। हमारे संविधान में 73वें और 74वें संशोधन कानूनों के अन्तर्गत ऐसी व्यवस्था है कि ग्राम पंचायतों और नगर निकायों को ये अधिकार दे दिये जायें। मगर हम इन कानूनों को लागू ही नहीं करते। 1970 के दशक तक बिजली, पानी, प्राथमिक शिक्षा, प्राथमिक स्वास्थ्य, लोक निर्माण, वन आदि तमाम व्यवस्थायें नगरपालिकाओं के पास थीं और नागरिकों को छोटी-छोटी बातों के लिये हलकान नहीं होना पड़ता था। फिर न जाने क्यों राज्य ने धीरे-धीरे सब कुछ अपने हाथ में ले लिया और भले ही ऊपर के स्तर पर ठेकेदारी मजबूत हुई, मगर समस्यायें बढ़ने लगीं। अब उपरोक्त कानूनों की मदद से दुबारा तृणमूल स्तर पर अधिकार देने के अलावा इन समस्याओं का कोई समाधान नहीं है।