ताराचन्द्र त्रिपाठी
विश्व के सभी धर्मों में हिन्दू धर्म सबसे निर्बन्ध धर्म है। आप आस्तिक हों या ना्स्तिक, आप वेदों को मानें या न मानें, आप शिव के उपासक हैं या विष्णु के, या देवी के, या इनमें से किसी के भी नहीं, केवल लोक देवताओं को ही सब कुछ मानते हों। आप किसी देवता की भक्ति करें या उससे वैर रखें। पूजा करें या न करें व्रत रखें या न रखें। कोई फर्क नहीं आप हिन्दू हैं। यही एक ऐसा धर्म है जिसमें पिता शैव, माता शाक्त और बेटा गणपति का उपासक हो सकता है। इस आस्थागत अन्तर का आपसी सम्बन्धों में कोई असर नहीं।
कमाल तो यह है कि सारे के सारे देवता घरबारी हैं। बाल बच्चेदार हैं। कुछ की तो पत्नी भी एक नहीं दो-दो हैं। इस पर भी कभी-कभी उनका मन भी मचल जाता है। विष्णु तुलसी पर डोरे डालने लगते हैं तो हिमालय की ठंड में अकड़ते शिव जी मोहिनी के पीछे दौड़ लगा देते हैं। ब्रह्मा जी की सफेद दाढ़ी में भी तिनके हैं।
यही एक ऐसा धर्म है, जिसका कोई विशिष्ट धर्मग्रन्थ नहीं है। कोई गीता पढ़ रहा है तो कोई रामायण। कोई कुछ भी नहीं पढ़ रहा है बस मुरली बजा रहा है।
कोई योग कर रहा तो कोई केवल भोग। मन्दिर के भीतर सब कुछ निर्विकार है तो बाहर की दीवारों पर पूरा- का पूरा कामसूत्र छाप दिया गया है।
सबसे कमाल तो जगन्नाथ जी हैं। उड़ीसा के राजा गजपति उनके घर में झाड़ू लगाते हैं। उनकी ड्राइवरी करते हैं। लेकिन उनकी अपनी सूरत जो नीम की लकड़ी में उकेरी जाती है पूरी तरह अनगढ़ होती है। एक मात्र ऐसे देवता हैं जिन्हें जुकाम लगता है। गर्मी लगती है। वर्ष में एक बार अपने ननिहाल जाते हैं। बारह वर्ष के होने पर देह त्याग देते हैं। फिर जन्म लेते हैं, उसी नीम की लकड़ी में। फिर एक बार फिर से बारह वर्षीय जीवन लीला के लिए।
इस वैविध्य का मूल कारण यह है कि यह धर्म सहज रूप से उगा है। किसी के उपदेश को ही सब कुछ मान कर नहीं चला है। गोरी, काली, पीली, लाल सब प्रजातियाँ इस के विस्तार में समा गयी हैं। इतना उदार और बहुरंगी होते हुए भी समय—समय पर यह बीमार भी हुआ है। इसमें भयंकर जड़ता भी आयी है। और इस जड़्ता और बीमारी के कारक वे धर्मोपदेशक रहे हैं, जिन्होंने इसके सहज लचीलेपन पर आघात किया है। यही आघात इस धर्म के ही नहीं, इस देश के अध:पतन का भी कारक रहा है।
क्या आप को नहीं लगता कि हमें फिर उसी जडता की अध:पतन की अन्धी गुहा में धकेलने की चेष्टा हो रही है ? कहीं हम इस्लामिक कट्टरपन्थियों के पीछे तो नहीं चल पड़े हैं ? क्या यह वही भारत है जिसमें वेदों की सत्ता को जड़ से अस्वीकार कर देने वाला, उनमें निर्धारित मान्यताओं और उपासना पद्धतियों का तिरस्कार करने वाला व्यक्ति भी भगवान का अवतार माना गया था ?
इस्लाम भी तो हमारी जैसी बीमारी की हालत में पहुँचा था, और यह अन्य उपासना पद्धतियो की तरह सरलता से पचने वाली जीवन पद्धति भी नहीं था। यदि स्वस्थ भारत में यह पहुँचा होता तो शैव, वैष्णव, सौर, शाक्त… की बिरादरी में मिल कर एक यह भी भारत की एक और उपासना पद्धति बन जाता। क्या पता हमारे कर्मकांड में बौद्धावतारे के साथ मोहम्मदावतारे भी जुड़ जाता ? फिर भी कन्हैया ने कितनो को अपनी मंडली में समाहित तो कर ही लिया।