गोविंद पंत राजू
उत्तराखंड के तीर्थ पुरोहितों ने फैसला किया है कि वे इस साल बद्रीनाथ-केदारनाथ के कपाट खुलने पर उनमें होने वाले किसी भी अनुष्ठान में शामिल नहीं होंगे
केंद्रीय मंत्रिमंडल ने ‘श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र’ के गठन के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है. 15 सदस्यीय यह संस्था अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण और उससे संबंधित विषयों पर निर्णय के लिए पूर्ण रूप से स्वतंत्र होगी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बुधवार को लोकसभा में इसकी घोषणा की. सरकार के इस फैसले का स्वागत देश भर के हिंदू और संत समुदाय द्वारा किया जा रहा है.
उत्तराखण्ड की सरकार ने भी बीते दिनों देश के सबसे पवित्र माने जाने वाले चार धाम मंदिरों के प्रबंधन के लिए एक संस्था बनाने की घोषणा की है. लेकिन इसका वे लोग ही विरोध कर रहे हैं जो इन मंदिरों से सबसे करीब से जुड़े हुए हैं. बीते दिनों में यह विरोध उत्तराखण्ड की त्रिवेन्द सिंह रावत सरकार के खिलाफ बन्द और प्रदर्शनों का रूप लेता गया है.
पिछले साल के अंत में राज्य सरकार ने बिना किसी सामाजिक विमर्श और तैयारी के अचानक ही देवस्थानम प्रबन्धन विधेयक को विधानसभा में पारित करवा दिया. इस विधेयक को आम बोलचाल की भाषा में श्राइन बोर्ड विधेयक कहा जा रहा है. इसके तहत बद्रीनाथ-केदारनाथ सहित कुल 51 मंदिरों का पूर्ण प्रबन्ध देवस्थानम प्रबन्धन बोर्ड के अधीन आ जाएगा. इनमें बद्रीनाथ मन्दिर से जुड़े 30 मन्दिर, केदारनाथ से जुड़े 17 मन्दिर और गंगोत्री मन्दिर समूह व यमुनोत्री मन्दिर समूह सहित टिहरी का चन्द्रबदनी, देव प्रयाग का रघुनाथ मन्दिर, टिहरी का ही नागराज मन्दिर व श्रीनगर का राज राजेश्वरी देवी मन्दिर शामिल हैं. इसमें बद्रीनाथ मंदिर के तहत आने वाले अल्मोड़ा जिले के तीन लक्ष्मीनारायण मन्दिरों को भी रखा गया है.
राज्य सरकार द्वारा इस विधेयक को लाए जाने की वजह यह बताई गई कि ‘‘उत्तराखण्ड में 1939 से लागू श्री बद्रीनाथ श्री केदारनाथ अधिनियम अब प्रासंगिक नहीं रह गया है. इसके अतिरिक्त गंगोत्री, यमुनोत्री तथा अन्य प्रसिद्ध मंदिरों का भी कायाकल्प अति आवश्यक है. यह विधेयक जम्मू-कश्मीर में स्थापित श्री वैष्णो देवी माता मन्दिर, सांई बाबा, जगन्नाथ और सोमनाथ मंदिरों की तरह राज्य में अवस्थित श्री बद्रीनाथ, श्री केदारनाथ मंदिर, गंगोत्री, यमुनोत्री व अन्य प्रसिद्ध मंदिरों के कायाकल्प हेतु मील का पत्थर साबित होगा.’’
राज्य सरकार के पर्यटन व संस्कृति मंत्री सतपाल महाराज द्वारा प्रस्तुत यह विधेयक पहले उत्तराखण्ड चार धाम श्राइन प्रबन्धन विधेयक के नाम से लाया जाना था लेकिन बाद में सरकार ने इसका नाम बदलकर देवस्थानम प्रबन्धन विधेयक कर दिया.
इस विधेयक की सुगबुगाहट शुरू होते ही इसके खिलाफ विराध भी शुरू हो गया था. क्योंकि इस तरह की कोई नई व्यवस्था लागू होते ही चार धाम मंदिरों से जुड़ी परम्परागत व्यवस्थाओं के ध्वस्त होने की आशंकाएं इनसे जुड़े हजारों लोगों को डराने लगी थीं. इन लोगों की रोजी-रोटी पूरी तरह से इन्ही मंदिरों से चलती है और इनके लिए ये मन्दिर सिर्फ धार्मिक आस्था न होकर इनकी सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन पद्धति का भी एक अभिन्न अंग हैं. रूद्रप्रयाग, चमोली, टिहरी, पौड़ी व उत्तरकाशी जिलों के सैकड़ों गावों का जीवन कई स्तरों पर इन मन्दिरों से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है.
उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी के अध्यक्ष पीसी तिवारी कहते हैं, ‘राज्य सरकारें स्थानीय लोगों के हितों पर लगातार कुठाराघात करती आ रही हैं , चाहे भू कानून हो या वन अधिकार काूनन या फिर अब यह देवस्थानम विधेयक, सब जनता की अपेक्षाओं, भावनाओं और हितों के प्रतिकूल हैं. चुनी हुई सरकारों को जनता के जीवन को व्यापक रूप से प्रभावित करने वाली नीतियों पर लोगों से बातचीत किए बिना फैसले लेने का हक नहीं है.’’
ऐसा नहीं है कि उत्तराखण्ड में मौजूदा चार धाम व्यवस्था पर सरकार का पहले से नियंत्रण नहीं है. केदारनाथ बद्रीनाथ व इनसे जुड़े 41 प्रमुख मन्दिरों की व्यवस्था पहले से ही बद्रीनाथ केदारनाथ मंदिर समिति नाम की जो संस्था कर रही है उसका मुख्य कार्यकारी अधिकारी राज्य सरकार का ही एक आईएएस अधिकारी होता है. इसी तरह गंगोत्री मन्दिर की व्यवस्था श्री पांच गंगोत्री मन्दिर समिति करती है जो यमुनोत्री मन्दिर समिति की तरह ही सरकार के अधीन कार्य करती है. फिर ऐसे में अचानक पुरानी व्यवस्था को बदलकर एक नई व्यवस्था लागू करने का जबरिया प्रयास क्यों?
राज्य की जनता की इस बारे में सामान्य राय यह है कि ऐसा करके त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार अपने मंत्रियों, विधायकों और अधिकारियों के लिए कमाई के नए रास्ते खोलना चाह रही है. हाल के वर्षों में चार धाम यात्रा आस्था की यात्रा के साथ-साथ मनोरंजन और सैर-सपाटे की यात्रा भी बनती जा रही है. इसके चलते खराब मौसम और खतरनाक सड़कों के बावजूद यात्रियों की संख्या भी तेजी से बढ़ती जा रही है. राज्य सरकार का आकलन है कि अगले कुछ वर्ष में ही यहां आने वाले यात्रियों की संख्या एक करोड़ से अधिक हो जाएगी. जाहिर है कि इसका सीधा असर मंदिरों की कमाई पर भी पड़ेगा.
आरटीआई से मिली एक जानकारी के मुताबिक सिर्फ बद्रीनाथ धाम को विशेष पूजा से 1999-2000 में 56 लाख 66 हजार की आय हुई थी जो 2009-10 में बढ़ कर 3 करोड़ 66 लाख हो गई. मंदिर समिति के अनुमान के अनुसार 2019-20 (क्योंकि यात्रा सीजन अब समाप्त हो गया है) में पूजा से कुल आय 10 करोड़ से अधिक हो चुकी है. स्थानीय लोगों और मन्दिरों से रोजी-रोटी हासिल कर रहे पंडा पुरोहितों का आरोप है कि नये कानून के बाद मंदिरों की व्यवस्था और निर्माण आदि खर्चों के नाम पर अफसरों और नेताओं में खूब बंदरबांट होने लगेगी.
गंगोत्री और यमुनोत्री मंदिर समितियों से जुड़े मौजूदा पदाधिकारियों का यह आरोप है कि मंदिरों से कमाई के बावजूद अभी भी राज्य सरकार उन पर खर्च नहीं करती. यहां तक कि 2013 की आपदा के बाद भी राज्य सरकार की उपेक्षा के कारण गंगोत्री और यमुनोत्री के तीर्थ पुरोहितों को अपने सम्पर्कों और संसाधनों से ही जरूरी निर्माण कार्य पूरे करवाने पड़े थे. विधेयक का विरोध करने वालों का यह भी आरोप है कि सरकार नई व्यवस्था के जरिए चार धाम यात्रा का पूर्ण व्यवसायीकरण करने जा रही है. मौजूदा स्वरूप में यह लोक जीवन से जुड़ी एक परंपरा हैं जिसके तार उत्तराखण्ड के गांव-गांव तक जुड़े हुए हैं. बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री का दर्जा स्थानीय समाज में लोक देवताओं की तरह है और इसमें सरकारी घुसपैठ उनके लोक जीवन की आजादी पर हमला है.
युवा आन्दोलनकारी लु शुन टोडरिया कहते हैं कि ‘हम शांतिपूर्ण तरीके से इसके खिलाफ अपना विरोध जता रहे हैं, मगर अपनी संस्कृति के खिलाफ हो रहे इस षडयंत्र के खिलाफ हम अदालत की शरण में भी जा रहे हैं. राज्य सरकार को मन्दिर परम्परा से जुड़े स्थानीय समाज के बारे में अपनी नीति साफ करनी होगी, स्थानीय समाज के हक हकूकों के साथ कोई समझौता नहीं किया जा सकता.’
हालांकि यह भी नहीं कहा जा सकता कि मौजूदा व्यवस्था में सबकुछ ठीक-ठाक है. इसमें तीर्थ पुरोहितों और पंडों के लालच के भी कई उदाहरण मिलते हैं. लेकिन यह लालच सिर्फ उनकी रोजी-रोटी की व्यवस्था तक ही सीमित है. इसका प्रमाण यह है कि राज्य के छुटभय्ये नेताओं, दलालों और ठेकेदारों जैसी चमत्कारी सम्पन्नता मंदिर परम्परा से जुड़े तबके में कहीं नहीं दिखाई पड़ती. ऊपर से मौजूदा व्यवस्था सिर्फ पण्डों और पुरोहितों तक ही सीमित नहीं है, उसकी जड़ें स्थानीय समाज में काफी गहराई तक फैली हुई हैं. गंगोत्री के मंदिर के प्रबन्ध एवं रोजाना की व्यवस्था में हरसिल के जाड़ जनजाति के लोगों का एक अहम रोल है तो मुखबा के सेमवाल पंण्डितों के अलावा अन्य जातियों का भी, जिनमें दलित भी शामिल हैं. इन सभी को मंदिर की आय से अलग-अलग अंश मिलते हैं.
इसी तरह की व्यवस्था यमुनोत्री मदिर की भी है और बद्रीनाथ में तो बाकायदा अनेक गावों को मन्दिर प्रबन्धन में अलग-अलग भूमिकाएं मिली हुई हैं. बद्रीनाथ मन्दिर के पट खुलते समय भगवान के वस्त्र माणा गांव के जनजातीय समाज द्वारा तैयार किए जाते हैं. इसी तरह बद्रीनाथ के निकट पाण्डुकेश्वर गांव का भी बद्रीनाथ के शीत-कालीन प्रवास में महत्वपूर्ण रोल है. बटवाला, घड़िया, मेहता भण्डारी, स्योकार, कदमी कोठारी, पंचमाणा, रैकवाल जैसे अहम दायित्व निभाने वाले लोग बद्रीनाथ से जोशीमठ तक के गांवों की अलग-अलग जातियों से आते हैं.
इसी तरह केदारनाथ मन्दिर से जुड़े अलग-अलग कार्यों के लिए किमाणा, डुग्गर, भटवाड़ी, मंगोली व पठाली आदि गावों के विभिन्न जातियों के लोगों में जिम्मेदारियां बटी हुई हैं और यह काम सौ वर्ष से भी अधिक समय से बदस्तूर चल रहा है. बद्रीनाथ-केदारनाथ से जुड़े कुल 49 मन्दिरों की व्यवस्था वेतनभोगी कर्मचारी नहीं संचालित करते बल्कि यह वंश परम्परा के अनुसार स्थानीय समाज के लोग चला रहे हैं. इन लोगों को ‘हकदार’ कहा जाता है. इनकी सेवाओं के मुताबिक इन्हें बद्रीनाथ केदारनाथ मंदिर समिति की ओर से दस्तूर मिलता है.
नए कानून के बाद इन सब लोगों का क्या होगा यह अनिश्चित है. इसमें बोर्ड का गठन कैसे होगा, कौन-कौन अधिकारी उसमें किस रूप में शामिल होंगे, वित्तीय अधिकार और मुस्लिम मुख्यमंत्री होने की स्थिति में बोर्ड का मुखिया कौन होगा जैसे अनेक छोटे-बड़े प्रश्नों पर व्यवस्था दी गई है. लेकिन हकूकधारियों और तीर्थ-पुरोहितों आदि की अब क्या भूमिका होगी इसे कहीं स्पष्ट नहीं किया गया है. विधेयक का विरोध करने वालों की चिंताएं इन्ही बातों से बढ़ती जा रही हैं.
सन्देह विधेयक को पारित कराने के तौर तरीकों को लेकर भी हैं. जिस दिन चार धाम विकास परिषद के उपाध्यक्ष शिव प्रसाद ममगांईं देहरादून में राज्य भर के हक-हकूकधारियों और तीर्थ पुरोहितों के प्रतिनिधियों के साथ बातचीत के जरिए कोई बीच का रास्ता निकालने का प्रयास कर रहे थे. उसी दौरान राज्य मंत्रिमण्डल ने विधेयक का प्रस्ताव पारित कर दिया. इस पर तीव्र प्रतिक्रिया हुई. बैठक तुरन्त बेनतीजा खत्म हो गई और शिव प्रसाद ममगांईं ने परिषद के उपाध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया. इसके बाद तीर्थ पुरोहितों, हक-हकूकधारियों एवं मन्दिरों की व्यवस्था से जुडे़ अन्य ग्रामीणों ने सरकार के इस कदम के खिलाफ आन्दोलन छेड़ने का निर्णय कर लिया. इस बीच राज्य सरकार ने नाटकीय ढंग से 10 दिसम्बर को इस प्रस्ताव को राज्य विधान सभा में पारित भी करवा लिया. न तो इस विधेयक के बारे में विधानसभा की कार्यमंत्रणा समिति की बैठक में किसी तरह का उल्लेख किया गया और न ही इस विधेयक को प्रवर समिति के पास भेजने की विपक्ष की मांग को ही स्वीकार किया गया.
इस विधेयक पर पहले दिन की चर्चा में तीन बार कार्रवाई स्थगित हुई. विपक्ष ने इस प्रस्ताव को रोकने का हरसम्भव प्रयास किया और आरोप लगाया कि सरकार इसके जरिए चार धाम पूजा पद्धति को ही खत्म करना चाहती है. विधानसभा के बाहर भी विधेयक के खिलाफ जोरदार धरना प्रदर्शन होता रहा. देवस्थानम प्रबन्धन कानून के खिलाफ जोशीमठ, रूद्रप्रयाग, देवप्रयाग आदि में विरोध प्रदर्शन के बाद 18 दिसम्बर को उत्तरकाशी में एक बड़ा प्रदर्शन हुआ. इसके समर्थन में उत्तरकाशी जिले के सारे बाजार बन्द रहे. इसमें नेता प्रतिपक्ष कांग्रेस की इन्दिरा हृदयेश सहित अनेक राजनेताओं ने हिस्सा लिया. इसके बाद श्रीनगर में हुए प्रदर्शन में भी हजारों हक-हकूकधारी शामिल हुए. कांग्रेस ने इस प्रदर्शन के दौरान यह घोषणा कर डाली कि अगर अगले चुनाव में उनकी सरकार बनी तो इस विधेयक को निरस्त कर दिया जाएगा. यानी यह मामला अब बीजेपी के लिए राजनीतिक चुनौती भी बन रहा है.
जोशीमठ के डॉ बृजेश सती मानते हैं कि ‘किसी तरह का बोर्ड बनने से स्थितियों में कायाकल्प हो जाएगा, ऐसा दावा करना बेमानी बात है. नया राज्य बनाते समय उत्तराखण्ड के लिए भी ऐसा ही दावा किया गया था. लेकिन अफसरों के हाथों खेलते उत्तराखण्ड के राजनेताओं ने स्थिति को लगातार खराब ही किया है. राज्य सरकार को समझना होगा गंगोत्री से लेकर बद्रीनाथ तक फैले चार धाम सिर्फ मन्दिरों का समूह ही नहीं हैं. यह उत्तराखण्ड की संस्कृति का एक अभिन्न हिस्सा है, उसे कंक्रीट के जंगल बनाकर संरक्षित और विकसित नहीं किया जा सकता. जबकि देवस्थानम बोर्ड के नाम पर राज्य सरकार ऐसा ही करने जा रही है.’
सरकार द्वारा हक-हकूकधारियों के परम्परागत अधिकारों को संरक्षण देने के बारे में कोई स्पष्ट घोषणा न होने से स्थानीय जनता में आशंकाए बढ़ती ही जा रही हैं, फिलहाल तीर्थ पुरोहितों की महापंचायत ने निर्णय किया है कि वे इस वर्ष बद्रीनाथ-केदारनाथ के कपाट खुलने पर उनमें होने वाले अनुष्ठानों में शामिल नहीं लेंगे. अगर ऐसा हुआ तो चार धाम की ब्रांडिग कर पैसा कमाने की बीजेपी सरकार की मंशाओं पर पानी फिर सकता है और इसका असर आने वाले चुनाव पर भी पड़ सकता है.
हिन्दी वैब पत्रिका ‘सत्याग्रह’ से साभार