रमदा
नवारुण से 2024 में प्रकाशित “हिमांक और क्वथनांक के बीच“ सतत-यात्री श्री शेखर पाठक का दूसरा यात्रा-वृतान्त है. 1973 में पिंडारी-गल की यात्रा के साथ शुरू हुआ उनकी यात्राओं का अनवरत सिलसिलावर्तमान तक निरंतर जारी है. अपने रहवास – निवासियों -पर्यावरण और हिमालय को समझने के प्रयास में 1974-2024 के दौरान, उत्तराखंड के आर-पार, 06 “अस्कोट-आराकोट अभियानों” के अलावा भारतीय हिमालय के सभी राज्यों, नेपाल, भूटान तथा तिब्बत के अंदरूनी इलाकों की अनेकों अध्ययन-यात्राओं के इस पथारोही ने 2008 मे अपने दो साथियों श्री अनूप साह, श्री प्रदीप पाण्डे और तीन सहयोगियों के साथ की गयी “गंगोत्री-कालिन्दीखाल-बद्रीनाथ यात्रा” का विवरण इस पुस्तक में प्रस्तुत किया है.
यह यात्रा मार्ग अनूठा है.
“ हमारे इस मार्ग में बहुत कम लोग आते हैं. यह कहीं से भी तीर्थयात्रा मार्ग नहीं है. न व्यापार मार्ग है. न यहाँ मनुष्य है और न देवता. भूगर्भ और भूगोल तो हैं पर गिनी चुनी जीव-वनस्पतियाँ.xxx.हिमालय यहाँ आदिम राग गाता है अत्यंत बिलम्बित आवाज में.xxx दरअसल यह मार्ग ही नहीं था. बेचैन हिमालय प्रेमियों की उत्कंठा ने इस मार्ग को नक़्शे में बना डाला. यह हिमालयी अन्वेषण के परिणामों में से एक है.”
शेखर अपनी इस यात्रा को 1934 में बद्रीनाथ से गोमुख पहुंचने वाले पहले अभियान दल और 1955 में पहली बार और कुल मिलाकर् दस बार इस मार्ग से जाने वाले स्वामी सुन्दरानंद को सलाम की तरह पेश करते हुए बताते हैं कि सुन्दरानंद की पहली यात्रा और उनकी यात्रा के बीच 53 सालों का अंतराल है.
“ गंगोत्री-बद्रीनाथ यात्रा पूरी तरह पैदल थी. किलोमीटर तो 100 से 125 होंगे पर हर किमी. अपने आप में 10 किमी. होता है ऐसे मार्ग में. यात्रियों के गोलोकवासी होने देने का रिकार्ड भी इस मार्ग का अव्वल था. यह दो तीर्थों को एक कठिन भूगोल और अति वर्जित रास्ते से होकर या प्राकृतिक रूप से भागीरथी तथा अलकनंदा के उपरी जलागमों को जोड़ता था. भागीरथी-केदारगंगा संगम (गंगोत्री) से यह यात्रा शुरू होती और तमाम गलों और कलिन्दीखाल को पार कर सरस्वती-अलकनंदा संगम (बद्रीनाथ के पास) पर समाप्त.”
अपार प्राकृतिक सौन्दर्य से सराबोर किन्तु मौसम के प्रतिकूल हो जाने पर भयावह, जानलेवा परिस्थितियों से भरी ऐसी तमाम विकट, निर्मम यात्राओं के मकसद या मतलब परखुद सवाल उठाते हुए शेखर लिखते हैं “ क्या यह सिर्फ ज्ञान अर्जन था? दुनिया देखना था ? प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर क्या यह अपने हिमालय और अपने इलाके को समझने का प्रयास था ? क्या यह हमें शहरी मोनोटोनी से बचने में मदद या दुर्लभ जीव तथा वनस्पति प्रजातियों के दर्शन का मौका देता था ? क्या उस आध्यात्म को समझने में मदद देता था जो तमाम धर्मों, उनके ग्रंथों और उनकी तमाम विरासत के माध्यम से हिमालय से जुड़ा था ? क्या इस तरह की यात्राएं देश और दुनिया को समझने का विवेक हमको देती हैं ? दे सकती हैं ? मैं इसका कोई ठीक उत्तर नहीं जानता.”
वस्तुतः ये सवाल ही अपने आप में उत्तर हैं.
“गंगोत्री-कालिन्दीखाल-बद्रीनाथ” के इन यात्रियों के ऋषिकेश-नरेन्द्रनगर-जाजल-चंबा-उत्तरकाशी होते हुए गंगोत्री पहुँचने तक के सारे नाम तो जाने-पहचाने हैं किन्तु इन तमाम जगहों से जुड़े विकास / विनाश के मुद्दों पर बड़ी महत्वपूर्ण टिप्पणियां पुस्तक में हैं.
“1990 के बाद टिहरी को धीरे धीरे उजाड़ा गया. 2000 तक जितनी बेमानियाँ हो सकती थीं, हुईं. बहुत सी लड़ाकू सन्ततियों के होते हुए भी यह शहर और इससे जुड़े गाँव हार गए.”
“ मनेरी बैराज से उत्तरकाशी (तिलोथ) बिजलीघर को सुरंग से पानी जाता था. इस सुरंग ने जामक गाँव को 1991 के भूकंप के समय सबसे अधिक ध्वस्त करने में योग दिया. यह दो तरह से हुआ. पहले सुरंग के ज्यादा गहराई में न होने से जामक में धंसाव संभव हुआ और फिर सीमेंट सस्ता मिलने से (इसी परियोजना की बदौलत) लोगों ने पाथर की छतें उखाड़ कर पुरानी दीवारों पर भारी भरकम लिंटर डाल दिए.”
गंगोत्री से आगे की ओर की ओर चलते हुए प्रकृति और हिमालय की जुगलबंदी के मोहक दृश्यों का जैसे एक चलचित्र लगातार पथारोहियों के सामने था और इस समूचे परिदृश्य की एक अन्तरंग मनोरम झांकी लेखक ने पेश की है. इस स्वप्नलोक के तमाम पात्रों के साथ लेखक लगातार संवाद करता चलता है और यह हिमालय को उसके अप्रतिम सौन्दर्य से इतर एक ऐसे नजरिये से भी सामने रखता है कि पाठक सोचने-विचारने और हिमालय को एक नये बोध के साथ एक नई नज़र से देखने के लिए विवश सा होता है.
“ भोजपत्र के एक पेड़ ने हमें रोक दिया. क्षण भर को वह पतरौल-सा और फिर घस्यारी सा लगा.xx यह पेड़ शायद हमसे अपनी दास्तान कहना चाहता था कि हमारा भी ख्याल करो. हमें ईधन में जलने से बचाओ. हम ईधन में जलने से ज्यादा महत्वपूर्ण काम यहाँ रह कर करते हैं xx इस क्षेत्र के पर्यावरण को बनाये-टिकाये रखते हैं.”
भोजवासा में बड़ी चहल-पहल के साथ चारों तरफ फैले कूड़े, पौलीथीन और शराब और प्लास्टिक की बोतलों को साथियों के साथ समेटते हुए लेखक एक समाधान भी सामने रखता है “ उत्तराखंड में कोई समझदार सरकार कभी आयेगी तो वह सेना, आई.टी.बी.पी.,एस .एस.बी. के अलावा पर्वतारोहियों-पथारोहियों, एन,सी.सी. तथा एन एस.एस. के कैडेट आदि से सहयोग लेकर अंतिम मोटर बिन्दुओं से हर माह या पन्द्रह दिन में कुछ ट्रक चलायेगी, जो तमाम इलाकों की बोतलें, प्लास्टिक या अन्य अजैविक कूड़ा नीचे ले जायेंगे. इस ‘सामान’ को कहीं ‘ठिकाने लगाने’ के स्थान पर चुन कर रिसाइकिल और रियूज की श्रेणी में रखा जाये.xx इससे गाड़-गधेरे,नदी-नाले, खेत, जानवर तथा जंगल एक आसन्न खतरे से बच जायेंगे. इससे अंततः आदमी और मूलतः पहाड़ बचेगा.xx तीर्थयात्रियों, पथारोहियों और पर्वतारोहियों के लिए यह अनिवार्य हो कि वे अपने सामान का कोई भी हिस्सा ऊपर न छोड़ आयें, जैसा कि चीन ने तिब्बत में किया है.”
“ कोई अगर नेपाल के सोलो खुम्बू इलाके में लुकला से एवरेस्ट बेस की यात्रा करे तो यह ठीक से समझ में आएगा कि शेरपा लोगों ने किस तरह अपने जंगल, जंगली जीव बचाए हैं. कैसे सौर ऊर्जा और केरोसीन का इस्तेमाल कर (लकड़ी पर) यह दबाव घटाया है.”
गोमुख के पास बैठा लेखक सोचता है कि “आज राम की महिमा की तरह गंगा भी संकुचित सोच का शिकार हुई है. यह गोमुख से लेकर गंगा सागर तक देखा जा सकता है. जिस मां का गुणगान करते हैं उसके प्रवाह में गन्दगी तो डालते ही हैं और ऊपर से अपने को असली गंगापुत्र मानने की ग़लतफ़हमी भी पालते हैं.”
गोमुख से तपोवन की ओर के यात्रा पथ और आगे की ओर के तमाम गलों (ग्लेशियरों) का विशेष ध्वन्यात्मक विवरण पुस्तक में है. शेखर इस पूरी यात्रा में पेड़-पौधों, पक्षियों, भरलों और गलों आदि से लगातार संवाद में रहे हैं. हिम-शिखरों के नीचे की ओर की घाटियों में चरते निर्भय भरलों की बात करते हुए टिप्पणी है “ जनतंत्र में नागरिक भी यदि इसी तरह निर्भय हो जाएँ तो ठगी करने वाली राजनीति समाप्त हो सकती है. या कहें कि ऐसी राजनीति के समाप्त होने पर ही ठगी बंद होगी.”
हिमालय के अप्रतिम सौन्दर्य के इस विराट चलचित्र के साथ-साथ पथारोही की बारीक नज़र और गहरा विश्लेषण पुस्तक को एक ऐसी विशिष्ट रचना का स्वरुप देता है जो पाठक को बाँध कर तो रखती ही है साथ में उसे एक नए बोध, नये नज़रिए की ओर ले जाती है.
गंगोत्री-गल के सबसे बड़े सहायक चतुरंगी गल के सहारे सहारे यात्री दल के कालिन्दीखाल की ओर जाते जाते यात्रा को उत्तरोत्तर कठिन होते जाना था और वासुकी ताल, वासुकी पर्वत के इलाके में हमारे यात्रियों की आखों पर सूजन की शुरुआत होने लगी थी. यात्रापथ में ये अकेले नहीं थे. ऑस्ट्रिया के पथारोहियों के एक दल के अतिरिक्त पर्वतारोहियों के भी एकाधिक समूह आस-पास मौजूद थे. भरल-समूह तो बार-बार दिखाई पड़ते रहे, पक्षियों की कुछ प्रजातियों के अतिरिक्त कव्वों का साथ, मौसम के अनुकूल रहने तक, यात्रियों को मिलता रहा- “सुंदर एकांत में सहारे की तरह”.
यात्री अब सतोपंथ-शिखर और चतुरंगी-गल, गलों की त्रिवेणी, की संगत में हैं. प्रकृति के अपार सौन्दर्य और विराटता तथा शिविरों में बिताई गयी रातों के मुग्ध कर देने वाले विवरण लेखक के भीतर के कवि को बार-बार पाठकों के सामने लाते हैं. “ वासुकी तथा भागीरथी-2 शिखर पीछे चमक रहे थे और पास का चन्द्रा शिखर भी. वे सभी चांदनी में नहाये थे xx चाँदनी जैसे गल की सतह पर बह रही थी. कुछ पत्थरों तथा बर्फ में अलग से चमक रही थी, क्षण भर को लगा जैसे चाँद की सतह पर चांदनी. Xx गल जितना सूरज से घबराते हैं उतना ही चाँद और तारों को चाहते हैं.”
सेता गल से आगे की ओर प्राकृतिक-मीनारों, पिघली और जमी बर्फ, नई और युगों पुरानी बर्फ, बर्फ की शिलाओं के बीच की दरारों से भरा सघन बर्फ क्षेत्र था और दरारों के भय की शुरुआत होने लगी थी. “ इस तरह की जगह पर हम हिमालय में कभी गए ही नहीं थे xx (पहले कभी) इस तरह का दृश्य और बर्फ का इतना सघन भण्डार नहीं मिला था xx इतने प्रकार के हिमोड़, कुंड-ताल-नदियाँ, गल, लटकते गल, दरारें, बर्फ के पेड़, बेंच या टेबल और स्वयं बर्फ और पानी के इतने रूप हमने कभी देखे न थे.”
अब तक चले अच्छे मौसम का सिलसिला एकाएक गड़बड़ाने लगा था. आगे राजखरक तक भारी बर्फबारी के बीच दरारों भरे रास्ते से जाना कठिन और खतरों से भरा तो था किन्तु शेखर कहते हैं कि “जान पर बन आयेगी यह हमारी कल्पना में नहीं था.” आखिरकार पथारोही कालिन्दीखाल (19514 फीट) पहुंचते हैं किन्तु आगे का संसार और विकट था.
अपने प्रसिद्ध यात्रा-वृतान्त “ ट्रेवल्स विद चार्ली “ में जॉन स्टेनबक ने लिखा था, “ हर यात्रा अन्य सब यात्राओं से भिन्न होती है. वह अपना व्यक्तित्व, स्वभाव, वैशिष्ट्य और निरालापन रखती है. यात्रा अपने आप में एक व्यक्ति है. दो यात्राएँ कभी एक सी नहीं होती. उनके बारे में हमारे सारी योजनायें, चौकसियाँ, व्यवस्था और जोर-ज़बरदस्ती बेकार हैं. वर्षों के संघर्ष के बाद हमें पता चलता है कि हम यात्रा पर नहीं हैं, बल्कि यात्रा खुद हम पर हावी है.”
मौसम लगातार प्रतिकूल होता जा रहा था और सचमुच जैसे अब यह यात्रा यात्रियों पर हावी होने लगी थी.
“ हम सभी ने दर्रे से राजखरक की तरफ उतरना शुरू किया.xx 10-12 फीट से आगे कुछ नहीं दिख रहा था. कोहरे का ऐसा गाढ़ापन कभी देखा नहीं था.xxx. धीरे-धीरे पर लगातार चलते रहे. कोई संवाद और बातचीत नहीं. सब अपने आप में केन्द्रित थे या ज्यादा से ज्यादा जाते हुए अगले क़दमों को देख रहे थे. हमें सिर्फ़ वह रोप जोड़ती थी जो हमारी कमर से जुड़ी थी और हम पांच एक यूनिट की तरह थे. जैसे पांच शरीरों में एक प्राण विराजमान हो. या कहें कि पांच प्राणों को जोड़ती यह निर्जीव जीवन रेखा जैसे लगातार धड़क रही हो.”
स्थितियां लगातार खराब होती रहीं, यहाँ तक कि यात्री दल वापस गंगोत्री की ओर लौटने पर भी विचार करने को विवश हुआ. किन्तु लगने वाले समय के हिसाब से जाना बद्रीनाथ की तरफ ही था. किसी तरह राजखरक तक पहुंचे.
इससे आगे की यात्रा नितांत प्रतिकूल, घातक मौसम में ‘हिमवान की गलती हुई देह’ के बीच अस्तित्व के लिए हुए मानवीय संघर्ष की लोमहर्षक गाथा है. चूँकि घासतोली तक कोई जगह इससे विकट परिस्थिति में सुरक्षित नहीं थी यात्री दल को एक दिन में दो पड़ावों की दूरी तय करनी थी. सैटेलाइट फोन की मदद से मुख्य सचिव से गुहार लगाईं गयी कि यदि घासतोली से आई.टी.बी.पी. के जवान आरवाताल तक आ जाएँ तो संकट में फंसे 49 जीवन बचाए जा सकते हैं.
भारी सामान छोड़ दिया गया. शेखर बताते हैं कि आगे बढ़ने की गति के घट जाने पर अधैर्य के कारण रास्ता बनाने के लिए वह आइस-एक्स से बर्फ खोदने लगे. “दस बारह बार ही बर्फ में एक्स मारा होगा और मैं हांफने लगा था. इतनी ठण्ड में मैंने भीतर से अपने को भीगा पाया. जिन्दगी में पहली बार अपने को हिमांक और क्वथनांक के बीच खड़ा देखा. बाहर का हिमांक और भीतर का क्वथनांक.”
बर्फीले पानी वाली आरवा नदी को कई बार पार करने के दौरान सहयात्रियों और सामान के नदी में गिरने तथा बारिश बढ़ने के साथ नदी के विकराल होते जाने से “ धीरे-धीरे जान के अलावा हर चीज़ मामूली लगने लगी.” अभी भी घासतोली पांच घंटे दूर थी. साथ चल रहे यात्रियों के फिसलने, नदी में गिर-बह जाने, हिम-अन्धता, हिम-दंश के रोंगटे खड़े कर देने वाले प्रसंग किताब में हैं.
“ मौत हमारे आस-पास मंडरा रही थी. वह किसी को भी दबोच सकती थी.xx.हमारे शरीर लगातार हिमांक के पास थे और हमारे मन-मस्तिष्कों में भावनाओं का उबाल क्वथनांक से ऊपर पहुँच रहा था.xx. मैंने इतना बदहवास, पराजित और हतप्रभ अपने को जीवन में कभी नहीं पाया. शब्द गले तक आते थे और लार में मिलकर नीचे उतर जाते थे. एक ओर जीवन से वंचित होते नीतेश के द्वारा रचा गया हिमांक मेरे भीतर उथल-पुथल मचाये था और दूसरी ओर बेचैनी, विवशता और बिडम्बना भाव से मचलता मेरा चेतन-अचेतन क्वथनांक को पार कर रहा था.xx. हमारा एक साथी (अब) हमारे साथ न था.”
घनघोर हिमपात और अँधेरे ने जान बचाने की कोशिशों को कमज़ोर कर दिया. दैत्याकार भूस्खलन ने रास्ते के संकेत को ही ख़त्म सा कर दिया और हमारे यात्री अनजानी दिशा में इधर-उधर भटकने लगे. अनुभवी अनूप साह ने चेताया कि इस भूस्खलन में रास्ता नहीं हो सकता, रास्ता घासतोली की ओर जा रही नदी के साथ ही होगा. चूंकि अब घोर अन्धकार में उधर जाना भी संभव नहीं रहा था किसी बड़े पत्थर के पास शरण लेने का ही विचार बना.
“ऊंचाई और अन्धकार मिलकर हमारा भ्रम बढ़ा रहे थे xx .हम चारों इतने थके थे कि न आगे बढ़ने का साहस होता था न उस भूस्खलन क्षेत्र में रुकने का भय कम होता था xx हर बड़े पत्थर को देख कर लगता था जैसे वह कभी भी लुढ़क पड़ेगा. वर्षा में वह जगह भी खिसक सकती थी, जहां पर हम अभी थे.”
आखिरकार अनूप साह एक ऐसे बहुत बड़े बोल्डर को खोज सके जिसके नीचे शरण ली जा सकती थी. रात के लगभग 9 बजे थे, कुछ भी खाए 15 घंटे बीत चुके थे. हाथों को आपस में रगड़ने और एक दूसरे के पैरों की मालिश का भी दौर चला, दिमाग को चैतन्य रखने के लिए अन्त्याक्षरी का भी सहारा लिया जाता रहा. लेखक बताते हैं कि “ एकाएक मुझे कंपकंपी सी छूटी xxx मैं एक तरह के अर्ध-सपने, अर्ध-बेहोशी में चला गया था. लगता था मेरे चारों ओर कुछ अदृश्य शक्तियां मंडरा रही थी, जैसे मेरा घेराव कर रही थीं xxx यमराज के एजेंट जैसे हम चारों को लील लेना चाहते थे.”
अर्द्ध-बेहोशी की हालत में अपने साथियों और स्वयं अपने दिवंगत हो जाने सम्बन्धी दुस्वप्न का बड़ा ह्रदय-विदारक विवरण इस किताब में है. गनीमत यह रही कि ऐसी विकट परिस्थिति में भी श्री अनूप और श्री प्रदीप ने अपना होश बनाये रखा. अनुभवी श्री साह का कहना था कि ऐसी स्थिति में “सोना माने अपना जीवन खोना.”
साथियों के लगातार प्रयासों की वजह से शेखर के अर्द्ध-मूर्छा से बाहर आने के बाद प्रदीप ने 11 बजे रात ढाई बजने की बात शेखर से कही तो रात के एक बड़े हिस्से के गुज़र जाने के अहसास से शेखर का आत्मविश्वास लौटने लगा.
“प्रदीप का ढाई बजे हैं कहना मेरे को जीवन की उम्मीद से भर गया. सोचने लगा कि अब रात है ही कितनी xx यह कठिन मौसम भी रोशनी को रोक नहीं सकेगा. सुबह आखिर सुबह है xx अब हम टिक जायेंगे.”
चैतन्यता बनाए रखने के लिए अगले ढाई-तीन घंटे तरह तरह के जन-गीतों, होलियों आदि का सिलसिला चलाये रखा गया.
“अब लगता था कि मृत्यु की परियां ज़रा दूर से हमारी परिक्रमा कर रहीं थीं. वे अब करीब आने से कतरा रहीं थीं. हमें आठ घंटे इस पत्थर के नीचे हो गए थे. राजखरक से चले कुछ समय बाद चौबीस घंटे हो जायेंगे. यह चौबीस घंटे का दिन था या इतनी लम्बी रात.”
“सुबह की उम्मीद के साथ नीचे नदी किनारे की ओर से टॉर्च की रोशनी दिखाई दी xx दो साथी इधर-उधर रोशनी डालते हुए आ रहे थे xx हमारे यार्त्रियों के टॉर्च दिखाने पर बोले यहाँ कहाँ चले गए हो? नीचे उतरो. यहाँ तो ऊपर से पहाड़ टूट रहा है xx जिन्दगी की जीत पर हमें यकीन करना पड़ा.“
अभी और यात्री थे जिनका पता नहीं चल पा रहा था जिनकी तलाश में इन्हें खोजने वाले और ऊपर की ओर बढ़ गए. घासतोली अभी भी 4-5 किमी. दूर था मगर अब सुबह के धुंधलके साथ उम्मीद का हल्का सा प्रकाश भी साथ में था. इसी हलके से उजाले में हमारे पथारोहियों ने अपना पूरा चेहरा दिखा रहे भूस्खलन के बीच उस ‘पाषाणराज’ को भी देखा जिसने अब ख़त्म हो रही उस कठिन रात में उन्हें शरण देकर बचाए रखा था. कुछ आगे चलने पर मिले एक बड़े मैदान के पास के ढलान पर पत्थरों का लुढ़कना जारी था. यात्री बेसहारा एक बार फिर भटके. वापस लौटते साथियों के टॉर्च की रोशनी ने सहारा दिया.
‘’उनके चेहरों में गहरी उदासी पढ़ी जा सकती थी. बताया कि तीन मृत शरीर वे देख आये थे.”
आखिरकार… “ घासतोली जिंदाबाद !” जहां आई.टी.बी.पी. कैंप था. मौसम भले ही अभी भी खराब ही था किन्तु सहायता-देखभाल-चिकित्सा-संवेदना-सूखे कपड़े-भोजन और सर्वोपरि जीवन था.
किताब में अनेक दुर्लभ श्वेत-श्याम छायाचित्रों के अलावा यात्रा से सम्बंधित दर्शनीय, नयनाभिराम रंगीन छायाचित्रों के साथ “गंगोत्री-कालिन्दीखाल-बद्रीनाथ” हिमालयी मार्ग और यात्रा से जुड़े महत्वपूर्ण सुझाव भी हैं.
यह यात्रा वृतान्त पथारोहण के माध्यम से अपने हिमालय को प्रत्यक्षतः निकट से समझने और प्रतिकूल परिस्थितियों में मानवीय संघर्ष और संवेदना की गाथा के नज़रिए से एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है. साथ में ऐसी अनेक महत्वपूर्ण टिप्पणियां भी हैं जो इस पर्वतीय प्रदेश की भौगोलिक एवं पर्यावरणीय विशिष्टताओं के अनुरूप सही विकास दृष्टि को सामने रखती हैं. कोई संदेह नहीं है कि हिमालय और उत्तराखण्ड के इस अनवरत पथारोही के पास ऐसा बहुत कुछ है जो इस प्रदेश के नीति-निर्माताओं को पर्यटन-प्रलय और विध्वंसक-विकास के इस दौर में एक सही और जनोन्मुखी विकास-दृष्टि विकसित करने में सहायक हो सकता है. आशा है देर-सबेर ऐसा होगा.