विनोद पाण्डे
‘आॅल वेदर रोड’ या ‘चार धाम परियोजना’ को प्रधानमंत्री का ड्रीम प्रोजेक्ट कहा जा रहा है। इसके अन्तर्गत मुख्यतः उत्तराखंड के चारों धामों को जोड़ने वाली सड़कों, जिनकी कुल लंबाई लगभग 900 किमी. है, को डबल लेन में बदला जाना है। पर्यावरण की दृष्टि से अति संवेदनशील उच्च हिमालयी इलाकों में इतनी बड़ी परियोजना में पहाड़ों के कटने और मलबा निस्तारण से जागरूक लोग अत्यन्त चिंतित हैं। जब अनेक माध्यमों से सरकार को इस परियोजना के खतरों से आगाह करने के कोई परिणाम नहीं निकले और राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण से भी इस मामले में निराशा हाथ लगी तो ‘सिटीजन फाॅर ग्रीन दून’ नामक एक संस्था ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। न्यायालय ने इस परियोजना की जमीनी हकीकत जानने के लिए एक कमेटी का गठन किया।
समिति में 26 सदस्य थे, जिनमें से अधिकांश सरकारी विभागों-संस्थानों से जुड़े हुए थे। अधिकांश निष्कर्षो, जैसे मलबा निस्तारण और कटान की सीधी ढाल से पर्यावरण को हो रही क्षति, पर सारे सदस्य एकमत थे। पर जैसे ही यह सुझाव विचारार्थ आया कि पर्यावरणीय बर्बादी को बचाने के लिए जो सड़क अब बननी शेष रह गई है, उसमें सड़क की चैड़ाई 12 मीटर के बजाय 5.5 मीटर रखी जानी चाहिये तो 21 सदस्य इसके विरोध में आ गये। ये सभी सरकारी विभागों-संस्थानों से जुड़े हुए लोग थे।
भारत सरकार ने मार्च 2018 में एक परिपत्र जारी करके पहाड़ों में सड़कों को डबल लेन के बजाय इंटरमीडियेट लेन करने के आदेश दिये थे। इसका अर्थ था कि यहाँ सड़क की चैड़ाई 5.5 मीटर ही रखी जाय। समिति के अध्यक्ष रवि चोपड़ा ने इसी परिपत्र को आधार बनाया था। पर समिति का बहुमत स्वीकृत रोड में बदलाव करने को तैयार नहीं हुआ। रवि चोपड़ा समिति में यह बात भी कही गई है कि संकरी जगहों और नुकीले मोड़ों को काट कर सड़क को उपयुक्त बनाया जा सकता है। लेकिन समिति में एक वैज्ञानिक विषय का निबटारा वोटिंग से हो गया! जो सदस्य बहुमत में थे उन्होंने अपनी एक और अलग रिर्पोट पेश कर दी। दोनों रिपोर्टांें इस चैड़ाई वाले मुद्दे को छोड़ कर बाकी सब कुछ समान है।
पहाड़ के दीर्घकालीन हित में खड़े और वैज्ञानिक दृष्टि से पुष्ट अल्ममत में पड़े इन सदस्यों को आशा थी कि चिपको की भूमि कहे जाने वाले उत्तराखंड के तमाम ख्यातिप्राप्त पर्यावरणविद और जागरूक नागरिक उनके पक्ष में खड़े हो जायेंगे। पर अभी तक इस बात पर पूरी तरह सन्नाटा है। हालांकि समिति के इस विवाद के जन सामान्य की जानकारी में आ जाने का सबसे बड़ा फायदा ये है कि उत्तराखण्ड की पारिस्थितिकी व बनावट के हिसाब से नाजुक पहाड़ों में कई आपदों के बाद भी कोई सबक न लेने का मामला फिर चर्चा में आ गया है।
हालांकि सड़क बनाना अभी तक सिविल इंजीनियरिंग का ही काम समझा जाता है। जबकि पहाड़ में सड़क बनाने के लिये पर्यावरण के मिजाज की समझ होना जरूरी है। यहाँ सड़क बनने से बहुत बड़ी पर्यावरणीय हलचल पैदा होती है और इसलिए यह एक जटिल काम है। उत्तराखण्ड न केवल हिमालय के साथ गुंथा हुआ है, बल्कि यह भारत को शुद्ध हवा-पानी भी देता है। विकास के लिए सड़क भी चाहिये। इसलिए सड़क का पर्यावरण के साथ सामंजस्य बनाना चुनौतीभरा काम है। पीडब्ल्यूडी के सेवानिवृत्त, वयोवृद्ध इंजीनियर देवेन्द्र नैनवाल बताते हैं कि पहले की सड़कें ज्यादा भारी भरकम नहंी होती थी, फिर भी पहाड़ों में रोड निर्माण कटिंग-फिलिंग तकनीक से होता रहा है, जिसमें सड़क की जरूरी चैड़ाई पहाड़ को काट कर निकले मलबे को घाटी की ओर दीवार में खपाकर हासिल की जाती थी। पहाड़ के ढलान को काटने के बाद पानी की धाराओं के प्राकृतिक बहाव में भारी बदलाव आ जाता है।
इसलिए पानी के बहाव को नियंत्रित करने के लिए नालियों और कलमटों को बनाना जरूरी हो जाता था, ताकि पानी अपने पुराने रास्तों को फिर पकड़ ले और बरसात में भटक कर तबाही न मचाये। इसके अलावा पहाड़ को इस तरह काटा जाता था कि उसमें हल्की ढलान बनी रहे, जिसे आम बोलचाल में ‘सलामी’ कहा जाता था। अभियांत्रिकी में इसे ‘एंगिल आॅफ रिपोज’ कहा जाता है। इसका महत्व यह था कि कटा हुआ पहाड़ बाद में गिरता नहीं था। इन तीन तकनीकों के कारण पहाड़ में सड़कों का निर्माण प्रकृति के लिए तात्कालिक और बाद में भी ज्यादा नुकसानदायक नहीं होता था। पर जेसीबी और पोकलैंड मशीनों के आने से अब वर्षो का काम दिनों में होने लगा है। मजदूरों की फौज से छुटकारा मिल गया है और मुनाफा बढ़ गया है। जितनी लम्बी-चैड़ी सड़क उतना ही बड़ा ठेका और उतना ही मुनाफा। कमीशन, झंझट भी कम। ये नयी तकनीक विभागों से लेकर ठेकेदारों तक के लिए आकर्षक बन गई है।
हालांकि इसमें कटान की ही क्षमता हेाती है, पत्थर की दीवार बनाने की कोई मशीनी तकनीक तो आज तक इजाद नहीं हुई है। इसलिए कटिंग-फिलिंग तकनीकी की बलि चढ़ गई। अब चैड़ाई हासिल करने के लिए पहाड़ ज्यादा कटने लगा और मलबा भी पहले से कई गुना बढ़ गया है। खानापूरी के लिए ‘मलबा निस्तारण स्थल’ नाममात्र के लिए बन जाते हैं। बरसात में अवरूद्ध पानी की धारायें नयी जगहों से बह कर नया मलबा पैदा करती हैं और पहले का मलबा उसमें जुड़ कर बहुत बड़ी तबाही पैदा कर देता है। मूल कारणों में न जाकर सरकार और मीडिया इसे ‘बादल फटने’ की संज्ञा दे देते हैं। जबकि सच यह है कि सड़क बनाने की दोषपूर्ण नई तकनीक जमीन का कमजोर कर तेज बारिश के आगे उसे असहाय बना चुकी होती है। इस तकनीक से पहाड़ पर उगी वनस्पतियों व बसने वाले प्राणियों का भी बड़ा नुकसान होता है, जिसका सही आंकलन करना संभव नहीं है।
पिछले कुछ वर्षों से पहाड़ों में सारी सड़कें इसी तरह बनायी जाती रही हैं। चार धाम परियोजना इसका सबसे बुरा उदाहरण इसलिए है, क्योंकि यह उच्च हिमालय में 900 किमी. इलाके में बन रही है। इसका औचित्य केवल ये बताया गया है कि तेज और सुगम यातायात से धार्मिक पर्यटन का विकास होगा। उत्तराखण्ड में पर्यटन को विकास का सबसे बड़ा आधार मान लिया गया है। हालांकि पर्यटन का वर्तमान अनियंत्रित स्वरूप आमतौर पर बाहरी और बड़े कारोबारियांे के हिस्से में आता है। स्थानीय लोगों के हिस्से बहुत छोटे-मोटे काम आते हैं। पर्यटन से इतर अन्य लोगों को आर्थिक, सामाजिक, पर्यावरणीय और यहां तक कि दैहिक शोषण के तक दंश झेलना पड़ते हैं। इसलिए यह तर्क कि मोटर रोड से पर्यटन का विकास होगा और पर्यटन के विकास से क्षेत्र के निवासियांे का विकास होगा, जमीनी सच्चाई से परे है।
पहाड़ों में पर्यटन के क्षमता निर्धारण में सबसे बड़ा मापदंड वहन क्षमता क्षमता है, जिसे अंग्रेजी में ‘कैरींग कैपेसिटी’ कहा जाता है। इस झेलने की क्षमता के अतिक्रमण को वर्ष 2013 की केदारनाथ की त्रासदी में देखा जा चुका है। एक दशक भी नहीं हुआ है और हमने इस सच से आंखें फेर ली हैं। रवि चोपड़ा समिति की रिपोर्ट में एक स्थान पर कहा गया है कि केदारनाथ की पर्यटक क्षमता 6,000 प्रतिदिन है पर सरकार के आंकड़ों के आधार पर सन् 2030 तक यहां पर प्रतिदिन पर्यटक संख्या 30,000 हो सकती है। ऐसा संभव भी हो सकता है, मगर तब कभी दुर्भाग्य से फिर ऐसी ही प्राकृतिक आपदा आ ही गई तो ?
उत्तराखण्ड में पर्यटन को अनियंत्रित और आवारा छोड़ने के बजाय गुणवत्तायुक्त पर्यटन में बदलने की जरूरत है, जिसमें पर्यटन का माॅडल इलाकों की वहन क्षमता के अनुसार, लेकिन अधिक आय देने वाला बनाना होगा। यात्रा पर्यटन साल में मुश्किल से 3 महीने चलता है। इसलिए इस अल्पकालिक कार्यक्रम के लिए पर्यावरण की इतनी क्षति के बजाय यदि यात्रा के दौरान यातायात नियंत्रण पर ध्यान दिया जाता तो शायद कम चैड़ाई वाली सड़क से काम चलाया जा सकता था।
चारधाम परियोजना पर रवि चोपड़ा समिति के भीतर पैदा हुआ विवाद इस बात को भी रेखांकित करता है कि पर्यावरण, जिसकी बारीकियों के बारे में हमें अभी बहुत कम जानकारी है, की क्षुद्र आर्थिक लाभ के लिए किस तरह सुविधानुसार तोड़-मरोड़ कर व्याख्या कर दी जाती है, उसके तात्कालिक और दीर्घकालीन नुकसान से आंखें फेर कर।
लेकिन इस प्रकरण का सबसे खतरनाक पक्ष हमारे विश्वविख्यात पर्यावरणविदों की चुप्पी है। उन्हें यह नहीं भूलना चाहिये कि जिस हिमालय ने उन्हें मान्यता दी है, वे उसी के विनाश की नींव रख रहे हैं।