प्रमोद साह
16 सितंबर 1942 को ग्राम डंढोली, मनीला निकट भातरोजखन जनपद अल्मोड़ा में जन्म लेने के बाद हीरा सिंह राणा का बचपन और जवानी का संघर्ष एक आम पहाड़ी नौजवान का संघर्ष ही था ।. जो विद्यालय के साथ हीअपनी समृद्धि लोक परंपरा से जीवन की शिक्षा पाता है ।अपने गांव अपने पहाड़ को अपने दिल में रखते हुए मैदान को पलायन कर जाता है ।यही सब हीरा सिंह राणा जी के साथ भी हुआ उन्होंने अपने जीवन की शुरुआत दिल्ली में एक सेल्समैन के रूप में की, लेकिन यहां मन नही लगा तो नौकरी छोड़ 1974 में ताड़ीखेत में नव युवकों का एक सांस्कृतिक दल का गठन कर अपनी रोजी-रोटी का जुगाड़ प्रारंभ किया . भारत में अलग-अलग सांस्कृतिक दलों और संगठनों से जुड़े हुए एक बड़ा मुकाम हासिल किया विनोद नगर दिल्ली में रहने लगे। दोंसाद मैं जन्म लेने के कारण श्री राणा कुमाऊनी और गढ़वाली दोनों भाषा में बराबर अधिकार रखते थे ।
हीरा सिंह राणा सिर्फ गायक नहीं थे बल्कि लोक की व्यापक चेतना उनके भीतर थी। जो समय-समय पर गीतों के रूप में समाज का मार्गदर्शन करती रही . अपनी जड़ों के प्रति अनुराग उनके गीत .
“म्यर मानिले डानी त्यर बलांईं ल्यू” मे दिखती है । तो पहाड़ की जीवन शैली में संघर्ष और हिम्मत का पुट होना जरूरी है। जो आपको जिंदा रखता है . इसे व्यक्त करते हुए उनका ऐतिहासिक गीत ।
लसका कमर बांधा ,
हिम्मतक सांथा.
फिर भोला उज्याउ होली ।
कांले रोली राता ..
लसका कमर बांधा ।
लोक चेतना को जागृत करने, दिशा देने की श्रेणी में हीरा सिंह राणा स्वर्गीय गिरीश तिवारी गिर्दा तथा नरेंद्र सिंह नेगी जी की परंपरा के नजदीक है। गिर्दा की तरह वह सीधे आंदोलनकारी तो नहीं रहे ,लेकिन समाज और उसके सरोकारों से वह कभी दूर भी नहीं रह पाए । उनका अधिकांश समय दिल्ली में बीता लेकिन पहाड़ों की पीड़ा पहाड़ों की लोक कला के प्रति उनकी चिंता जगजाहिर रही.
लोकगीत और लोकभाषा और लोक परंपरा के प्रति उनके अनुराग को गत वर्ष दिल्ली सरकार ने उत्तराखंड की लोक भाषा “कुमाऊनी ,गढ़वाली और जौनसारी ” भाषा विकास परिषद के उपाध्यक्ष के रूप में उनकी नयुक्ति कर उनके प्रयासों को रेखांकित किया. ।लोक भाषा और संस्कृति कि उनकी इस मुहिम के पीछे क्रिएटिव उत्तराखंड के श्री चारू तिवारी आदि मित्रों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है ।
अपने लक्ष्य को स्पष्ट करते हुए एक साक्षात्कार में हीरा सिंह राणा कहते हैं।
“अपने नौनिहालों को अपनी लोक संस्कृति एवं लोक परंपराओं से रूबरू करता रहूंगा। मैं तो चाहता हूं हमारे नौनिहाल अपनी भाषा-बोली के प्रति जागरूक हो अपने लोक संस्कृति को जाने समझे अपनी गीतों को समझे अपने गीतों में उकरी पीड़ा को जानने की कोशिश करे। जो लोक गीत बिखरे हुए हैं। उन्हें संकलित करने का प्रयास करे। सही अर्थों में यह हमारा सम्मान होगा”
लोक परंपरा और संस्कृति के संरक्षण की दिशा में हीरा सिंह राणा जी द्वारा एक बड़ा काम अभी शुरू ही किया था ,कि काल के क्रूर हाथों ने आज 13 जून 2020 की प्रातः ह्रदयाघात से उन्हे हमसे छिन दिया .।
एक लोक गायक, समाज में अपना व्यापक असर तभी रखता है। जब न केवल वह परंपराओं के प्रति जागरूक हो बल्कि समाज के भीतर घट रही घटनाओं पर भी उसकी नजर हो , जो भविष्य की राह भी तलाश करती हो,
राज्य गठन से पहले जब उत्तराखंड के समाज में पलायन की समस्या बड रही थी, राजनीति अपने विद्रूप स्वरूप में प्रकट होरही थी । समाज में ठेकेदारों का वर्चस्व बड रहा था ।तब उनका यह गीत समाज का एक बेहतरीन आकलन करता है।
त्यर पहाड,म्यर पहाड ।
होय दु;खो क ड्यर पहाड़ .
बजुर्गो ले जोड पहाड.
राजनीति ले जोड़ पहाड.
ठेकेदारों ले तोड पहाड.।
नांतिनो ले छोड़ पहाड.।
लोक के चितेरे ,महान लोक गायक को विनम्र श्रद्धांजलि