डॉ चन्द्र शेखर जोशी
पर्वतीय उत्तराखंड यानि उत्तराखंड राज्य का ८६ प्रतिशत भू भाग,राज्य की ४०-४५ प्रतिशत आबादी,१३ में से १० ज़िले मतलब यह वह क्षेत्र है जिसकी समस्याएँ नया राज्य बनने के बावजूद ज्यों के त्यों बनी हुई तथा जहां जन अब तक किसी सार्थक विकास की बाट जोह रहे हैं ।राज्य सरकार स्वास्थ्य के लिए कितनी जागरूक है इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राज्य में कुछ सालों से कोई पूर्णकालिक स्वास्थ्य मंत्री ही नहीं है तथा शुरू के दस वर्ष जब एक फ़िज़िशियन दो बार चुनाव जीते तो तकनीक कौशल को राजनीतिक कौशल के सामने हार माननी पड़ी ।जहाँ तक बजट का सवाल है,स्वास्थ्य विभाग का बजट क़ाबिले बयां ही नहीं ।उत्तराखंड के पर्वतीय भूभाग में स्वास्थ्य सेवाओं की चिंताजनक स्थिति किसी से छुपी नहीं है ।यह विषय इस वक़्त इसीलिए उठाया जा रहा है ताकि कोरोना काल को एक दु:स्वप्न नहीं,बल्कि अपनी स्वास्थ्य सेवाओं के पुनर्आँकलन का अच्छा अवसर मानकर अपनी स्वास्थ्य नीति में उचित परिवर्तन कर सकें ।किसी देश या राज्य की स्वास्थ्य सेवाएँ यह निर्धारित करती हैं कि उसकी आर्थिक उड़ान कितनी ऊँची होगी तथा इन दोनों का एक दूसरे से चोली दामन का साथ है।सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जिन लोगों ने नये राज्य गठन के बाद एक सम्रद्ध उत्तराखंड की कल्पना की थी, उस सपने को पर्वतीय क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं में आमूलचूल परिवर्तन लाये बिना पूरा करना संभव नहीं ।
अगर हम इस क्षेत्र में उन रूकावटों का ज़िक्र करें जिनके कारण पर्वतीय स्थलों में स्वास्थ्य सेवा के विकास व विस्तार में दिक़्क़तें आ रही हैं तो उनमें प्रमुखता से हैं-चिकित्सकों की कमी या पहाड़ी स्थानों में कार्य करने की अनिच्छा,भौगोलिक विषमताएँ,बजट की कमी,जनसंख्या का असमान वितरण,लोगों में जागरूकता की कमी,इत्यादि,इत्यादि ।
सरकार की ओर से चिकित्सकों के पहाड़ चढ़ने की अनिच्छा सरसरी तौर पर सही दलील मालूम पड़ती है लेकिन अगर हम थोड़ा गहराई में जाएं और यह मालूम करने की कोशिश करें कि जो बड़े लोग पर्वतीय स्थानों के लिए नीति या नियम तय करते हैं,क्या कभी उन्होंने ग्राउंड ज़ीरो या उन पहाड़ों में जाकर ज़मीनी दिक़्क़तों व ज़रूरतों का स्व आँकलन किया है?क्या वे अपने परिवार के साथ उन स्थानों पर बिना न्यूनतम सुविधाओं व साधनों के अपनी सेवाएँ देने को तैयार हैं ।इन बिंदुओं को उठाने का मक़सद सिर्फ़ यह है कि ‘सन आफ द सोयल ‘यानि ‘धरती पुत्र ‘ को प्राथमिकता देना सीखिए-उसे वहाँ की मिट्टी से लगाव है,वह अपने लोगों की ज़रूरतों को समझता है तथा उनके लिए वो अपने सपनों की कांट-छाँट भी कर सकता है ।सरकार को चाहिए कि वे चिकित्सकों को पहाड़ों में अपने अस्पताल खोलने के लिए प्रोत्साहित करे तथा इस मार्ग में आ रहे क़ानूनी अड़चनों जैसे क्लीनिकल एस्टैब्लिशमैंट एक्ट इत्यादि में यथोचित बदलाव करे तथा उनको छोटे उद्योगों की तर्ज़ पर आर्थिक सहायता दे ।यहां ,एक बात गौर करने लायक़ यह है कि निजी अस्पताल डिमांड एण्ड सप्लाई के नियम से काम करते हैं अर्थात् जिस विभाग की ज़रूरत होगी उसी क्षेत्र के चिकित्सक अपना अस्पताल खोलेंगे तथा यह सतत परिवर्तन शील प्रक्रिया है।यहाँ हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि
एक औसतन चलने वाला निजी अस्पताल कम से कम परोक्ष रूप से १०-१५ लोगों को तथा इतने ही लोगों को अन्य रूप से रोज़गार देता है।
मुझे तो पहाड़ों में रोज़गार देने का यह भी अच्छा माध्यम नज़र आताहै।जो कुछ कमाई होगी ,वही तो खर्च होगी।अच्छे स्वास्थ्य सुविधाओं से पर्यटक भी अपने आपको सुरक्षित महसूस करेंगे ।
अगर हम आर्युवेद की चिकित्सा प्रणाली को केरल की तर्ज़ पर पर्यटन से जोड़ दें तों इससे दोनों क्षेत्रों को बहुत फ़ायदा होगा-तथा सरकार आर्थिक रूप से मज़बूत ही होंगी ।अगर सुनियोजित तरीक़े से योजनाएँ बनाकर उनका क्रियान्वयन किया जाय तो मेडिकल टूरिज़्म के ज़रिए हमारा राज्य विकसित राज्यों की श्रेणी में जल्द ही आ जाएगा ।
यह भी तो हो सकता है समस्त सुविधाओं के बावजूद चिकित्सक पहाड़ न चढ़े।जैसे,वर्तमान में उच्च प्रतिष्ठित शहरों में गिने जाने के बावजूद अगर आज के दिन नैनीताल शहर में किसी को दिल को दौरा पड़ता है ,तो क्या वहाँ कोई एक भी अस्पताल है जहां उसका यथोचित ईलाज हो सके,अगर नहीं तो क्या यह भी ज़रूरी है वो मरीज़ हल्द्वानी तक ज़िंदा पहुँच ही जाय?यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है जो यहाँ के लोगों को खुद से पूछना चाहिए ।कहीं इसके लिए नागरिकों का चिकित्सक समुदाय के लिए ग़ैर ज़िम्मेदाराना रवैया तो ज़िम्मेदार नहीं ?चिकित्सक वहाँ रूकेंगे जहां उन्हें सम्मान व सुरक्षा मिले।
फिर प्रश्न उठता है कि क्या विपरीत भौगोलिक परिस्थितियाँ और असमान जनसंख्या का वितरण वाक़ई मैं हमारेी लाचारी हैं ।मैं ऐसा नहीं समझता ।यह तो हमारा बहुत ही मज़बूत पक्ष है क्योंकि साफ़ हवा,साफ़ पानी तथा पर्यावरण से जुड़े सीधे सादे पर्वतीय लोग-यही तो हमारी पूँजी है।लोग इसीलिए तो पहाड़ आते हैं ।तभी तो हम त्रुटिपू्र्ण जीवनशैली से उपजी बीमारी जैसे मधुमेह,रक्त चाप,मोटापा,डिप्रेशन आदि से बचे रहते हैं ।मैं यहाँ दूषित पर्यावरण से होने वाली बीमारी जैसे श्वास रोग,दमा,कैंसर से बचने की बात भी कर रहा हूँ ।तो ,हमारे नीति निर्माताओं को चाहिए कि वे यह प्रबंधन भी करें कि यहाँ सब कुछ वैसे ही साफ़ सुथरा ही रहे ,जैसे पहले था।प्रदूषण फैलाने वाले वाहन को पहाड़ में प्रवेश न करने दें,उद्योग हल्के और प्रदूषण रहित हों।बचाव ही ईलाज है-का नियम मानें ।
अति दुर्गम या दुर्गम क्षेत्रों को चिन्हित कर उनके सबसे निकट क़स्बे के स्वास्थ्य केंद्रों में उन मरीज़ों के रूकने ,भोजन व ईलाज की व्यवस्था हो जिनमें निकट भविष्य में कोई चिकित्सकीय आपदा की आशंका हो-जैसे कि गर्भवती महिलाएँ।उन केन्द्रों के लिए चिकित्सकीय प्रशिक्षण स्थानीय पढ़े लिखे बेरोज़गारों को ही दिया जाए ।देखा जाए तो कुछ छोटे व सस्ते उपकरण जैसे पल्स आक्सीमीटर,बी पी नापने की मशीन , ग्लूकोज़मीटर, पेशाब जाँच की स्ट्रिप की उपलब्धता ऐसे मरीज़ों की चिकित्सकीय निगरानी में बहुत महत्वपूर्ण सहायक सिद्ध हो सकती हैं।यह कोशिश रहे कि दूरस्थ स्थित चिकित्सक टेलीमेडीसिन से ऐसे मरीज़ व स्वास्थ्य कर्मियों के सम्पर्क में रहे ।
सरकारी अस्पताल में कार्यरत चिकित्सा कर्मियों की मुख्य समस्याएँ उचित आवास,सुरक्षा,बच्चों की पढ़ाई,ग़लत तबादले,कार्य स्थल मं सुविधाओं का अभाव ईत्यादि हैं ।अगर चिकित्सक वहाँ का स्थानीय निवासी है तो उसका तबादला न हो।बड़े शहरों में उनके बच्चों के लिए आवासीय सुविधाएँ हों ।कार्य स्थल में उचित सुरक्षा व आवासीय सुविधा तो जायज़ माँग है।
फ़िलहाल सबसे पहले सरकार को चाहिए कि वे हर तहसील या ब्लांक स्तर के क़स्बे से मोबाइल स्वास्थ्य सेवाओं की अतिशीध्र तैनाती करे।इसके लिए बसों के डिज़ाइन बदलकर सचल अस्पतालों में परिवर्तित किया जाय।हर वाहन में कम से कम एक चिकित्सक,नर्स,लैब तकनीशियन ,फार्मासिस्ट और सहायक की तैनाती हो तथा उसमें आक्सीजन,लैब,फ़ार्मेसी,ईसीजी,एक्स रे ,अल्ट्रासाउंड इत्यादि की न्यूनतम सुविधाएँ हों।उसके अलावा सचल आपरेशन थियेटर तथा लेबर रूम की व्यवस्था भी हो।अगर इनके संचालन में कोई न्यायिक बाधा हो तो उसे दूर किया जाय।हर बीस -पच्चीस किलोमीटर की दूरी पर एक सचल स्वास्थ्य वाहन की हर हाल में उपस्थिति रहे।
सरकार को चाहिए कि पर्वतीय इलाक़ों में त्वरित परिवहन पर अधिक ध्यान दे-जैसे कि केबल -कार/रोप वे,लिफ़्ट,इत्यादि ।यह एक तरह का निवेश होगा जिसका फ़ायदा स्वास्थ्य समेत पर्यटन,आदि सैक्टरो में भी होगा।
अगला बिंदु , बजट की कमी है जो कि सिर्फ़ ग़लत नीतियों का परिणाम है ।प्राथमिकता, प्रशिक्षित स्वास्थ्य कर्मचारीयों की संख्या बल बढ़ाने की होनी चाहिए न कि ऊँचे भवन खड़े करने की जो कि हमारे जैसे उच्च भू गर्भीय हलचल वाले राज्य में खुद भूकंप के वक़्त खुद जान लेवा हो जाएँ ।हमें ज़रूरत है,बहुत सारे छोटे छोटे चिकित्सकीय ईकाईयों की ,जिनमें प्रशिक्षित कर्मी हों तथा जिनका रख रखाव का खर्चा कम हो।
कुमाऊँ के पर्वतीय क्षेत्रों में मैंने लगभग सब सरकारी अस्पताल देखे हैं और मुझे यह कहते हुए पीड़ा होती है कि उन्हें देखकर लगता है किसी भव्य मंदिर में मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा न हो सकने के कारण पूजा पाठ न हो पा रही हो।ख़र्चा चिकित्सक,मशीन व उन दोनों की गुणवत्ता पर करना चाहिए,न कि सीमेंट,सरिया में,जो किसी भी ईलाज में सहायक नहीं होते।
लोगों में स्वास्थ्य के लिए जागरूकता की कमी वाक़ई गंभीर विषय है क्योंकि लोग झाड़ फूंक के चक्कर में पड़कर अस्पताल या तो जाते नहीं या बहुत देर से पहुँचते हैं ।सरकार अपने स्तर पर या ग़ैर सरकारी संगठनों व अन्य संसाधनों की सहायता से तथा स्कूली बच्चों में जागरूकता बढ़ाकर यदि कोशिश करे तो यह मसला हल हो ही जाएगा।
पर्वतीय इलाक़ों में प्रकृति अपने रूप रंग तेज़ी से बदलती है जिसका असर जन स्वास्थ्य पर भी पड़ता है-जैसे अत्यधिक बर्फ़बारी,बारिश,तूफ़ान,भूकंप इत्यादि ।इसके अलावा पहाड़ में दुर्घटनाओं के कारण तथा प्रकार अलग क़िस्म के हैं जैसे पहाड़ों से वाहनों का गिरना,स्त्रियों का पेड़ों से गिरना इत्यादि ।ज़ाहिर है इन दोनों परिस्थितियों में स्वास्थ्य सेवाओं की तैयारियाँ भी ख़ास क़िस्म की होनी चाहिए जिसके लिए अलग प्रकार के प्रशिक्षण संस्थानों की आवश्यकता होगी ,अन्यथा केदारनाथ त्रासदी की असफलताएँ बार बार दोहराई जाती रहेंगी ।
पर्यटन से जुड़े गतिविधियों में भी कई बार दुर्घटनाएँ हो सकती है,जैसे एडवैंचर स्पोर्ट्स,माउंटेनियरिंग,नौकायन ईत्यादि।अच्छा हो ,अगर जिन स्थानों में ये गतिविधियाँ हो रही हो,वहाँ पर प्रशिक्षित स्वास्थ्य कर्मी उचित मात्रा में तैनात हों।
अच्छा होगा सरकार बड़े ब्रांड वाले अस्पतालों को हमारे यहाँ अपनी शाखाएँ खोलने के लिए प्रोत्साहित करे तथा जो सिर्फ़ उन क्षेत्रों में ही प्रशिक्षण दे,जिनकी ज़रूरत है-इस मामले में भी हमें केरल जैसे राज्य से सीखने की ज़रूरत है,जहां विपरीत भौगोलिक परिस्थितियों के कारण बड़े उद्योग लगाना संभव नहीं ।उन्होंने नर्सिंग जैसे क्षेत्र में ध्यान दिया तथा अब वह केरलवासी की पहचान बन गई है ।इससे उनको रोज़गार मिलने में सुविधा होती है ।हमारा राज्य इस तरह से क्रिटिकल केयर एक्सपर्ट की टीम यानि मेडिकल तथा पैरामेडिकल विशेषज्ञों की एक ऐसी टीम जो गंभीर रोग ईकाईयों में काम करने में निपुण हो तथा जल्द ही हमारे राज्य की पहचान बन जाए।
हमारे यहाँ धार्मिक पर्यटन उद्योग के इलाक़े उच्च हिमालयी क्षेत्र हैं जहां पर अलग क़िस्म के रोग होते हैं तथा ‘हाई ऐल्टीचूड सिकनैस रिसर्च सैंटर ‘ की यहाँ ज़रूरत है ।इस कार्य में फ़ौज के साथ पार्टनरशिप करके हम इस तरह के अनुसंधान केन्द्र की स्थापना कर देश की सुरक्षा में योगदान दे सकते हैं क्योंकि हमारे देश के कई संवेदनशील इलाक़े उच्च हिमालयी क्षेत्रों में स्थित हैं । गर्मी के मौसम में पर्यटकों का हुजूम पहाड़ों में उमड़ पड़ता है,तथा इस वर्ग की स्वास्थ्य की ज़रूरतें अलग क़िस्म की हैं ।ज़ाहिर है,इसका दबाव हमारी स्वास्थ्य सेवाओं पर भी पड़ता है ।हम लैजर टूरिज़्म में आए चिकित्सकों को पर्यटन के चरम दिनों में कुछ सुविधाएँ देकर यहाँ के अस्पतालों में काम करने को भी राज़ी कर सकते हैं ।
प्राकृतिक आपदाओं के कारण चिकित्सा तंत्र पर कम से कम बोझ पड़े तथा उन दुरूह परिस्थितियों से त्वरित गति से निबटने की कार्य क्षमता को बढ़ाने की भी आवश्यकता है।ज़रूरत है,ऐसे मेडिकल यूनिट की जिसमें अलग अलग क्षेत्र के चिकित्सक विपरीत परिस्थितियों में एक साथ काम करने के आदी हों।इस माडल में फ़ौजियों की कार्यप्रणाली सहायक सिद्ध होगी।
राज्य में परिवहन तंत्र में आए विस्तार से मैदानी क्षेत्र में फैले रोग जैसे डेंगू,मलेरिया इत्यादि भी पहाड़ चढ़ने में नहीं सकुचाते ,सो इनके बचाव व इलाज का भी प्रशिक्षण ज़रूरी है।पहाड़ों में परिस्थितिकी इन रोगों के प्रतिकूल ही रहे तो स्वास्थ्य सेवाओं पर बोझ नहीं पड़ेगा ।
अगर पर्वतीय इलाक़ों में स्वास्थ्य समस्याओं का ज़िक्र करें और नशे की प्रवृत्ति पर कुछ न कहें या करें ,तो यह विषय अधूरा ही माना जाएगा ।‘सूर्य अस्त,पहाड़ मस्त ‘-हक़ीक़त तो है लेकिन इसके मतलब यह कदापि नहीं कि पर्वतीय व्यक्ति पैदाइशी नशेडी होता है ।सरकार यह न भूलें कि नशे का एक मुख्य कारण आर्थिक भी है तथा पर्यावरण ,पर्यटन,या अन्य क्षेत्रों में रोज़गार देकर लोगों को नशे से बचाया जा सकता है ।अगर रोज़गार होगा तो बाज़ार शाम को गुलज़ार क्यों नहीं होंगे?
।बीड़ी,सिगरेट,शराब,चरस इत्यादि तक की जनता तक आसान पहुँच सोचने का विषय है ।हमें हर तहसील पर नशा मुक्ति केंद्रों तथा मानसिक रोग चिकित्सकों की भी आवश्यकता है ।इसी क्रम में हमें नहीं भूलना चाहिए कि हमारे क्षेत्रों में मानसिक रोगों का भी अच्छा ख़ासा प्रकोप है,तथा ये रोगी जानकारी व इलाज की सुविधा के अभाव में नारकीय जीवन व्यतीत करने को मजबूर होते हैं ।इनमें से ज़्यादातर रोगों का इलाज संभव है ।
पहाड़ के दूरस्थ इलाक़ों में स्वास्थ्य शिविरों में मैंने यह पाया कि गाँवों में महिलाओं द्वारा धूम्रपान ख़ास तौर से बीड़ी काफ़ी प्रचलित है जिससे इनमें श्वास रोग के अलावा फेफड़े का कैंसर भी सामान्य से अधिक दर में पाया गया है।इसके अलावा बंद कमरे में धूम्रपान से बच्चों को पैसिव स्मोकिंग का ख़तरा भी रहता है ।सरकार को चाहिए कि वह इस बीड़ी माफ़ियाँ पर लगाम कसे।
रोगों का बचाव ही इसका ईलाज है ‘कि तर्ज़ पर सरकार को चाहिए कि वो पारंपरिक भोजन के तरीक़ों का प्रचार प्रसार ज़ोरों से करें ताकि ‘फ़ास्ट फ़ूड ‘ के चंगुल में फँस कर हमारी अगली पीढ़ी को दोषपूर्ण जीवन शैली से बचाकर रक्खे।अन्यथा अगर मधुमेह,रक्त चाप या मोटापा जैसे रोग अगर पहाड़ चढ़ गये तो हमारी आर्थिक स्थिति और बदतर हो जाएगी ।
पलायन के कारण हमारे पहाड़ों में बड़े बूढ़ों की संख्या का प्रतिशत युवाओं की अपेक्षा ज़्यादा है अर्थात् हमें जीरियाट्रिक्स के चिकित्सक भी चाहिए जो व्रद्धों का इलाज भी कर सकें। यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि इस वर्ग के लोगों की स्वास्थ्य की ज़रूरतें अलग क़िस्म की होती है तथा यहाँ पर सरकार को विशेष रूप से संवेदनशील होना पड़ेगा ।आई सी एम आर के २०१६ के सर्वे में दिल की बीमारी इस वर्ग में सबसे अधिक मृत्यु के लिए ज़िम्मेदार है।
यह भी देखा गया है कि कुछ अलग क़िस्म के रोग जैसे स्क्रब टाइफस भी कभी-कभी पहाड़ों में फैल कर ताण्डव मचाते हैं ।इसका उपाय यह है कि सरकार को मैदानी क्षेत्र के बड़े अस्पतालों से पहाड़ से आए मरीज़ों की बीमारी का विस्तृत डाटाबेस तैयार करने का प्रयास करना चाहिए ।मेडिकल कालेज यह काम बख़ूबी कर सकते हैं तथा अगर मेडिकल के स्नातकोत्तर छात्रों को कुछ महीने पहाड़ो के अस्पताल में कार्य करना अनिवार्य होना चाहिए ।इससे वे राज्य की स्वास्थ्य समस्याओं से भविष्य में बेहतर तरीक़े से निपटने में सक्षम होंगे ।
एक अंतिम सुझाव यह है कि राज्य की स्वास्थ्य नीतियों को त्वरित व सही दिशा देने हेतु एक समिति का गठन किया जाय जिसमें राज्य के प्रमुख चिकित्सा संस्थानों के प्रतिनिधि चिकित्सक,आई एम ए के वरिष्ठ चिकित्सक, राज्य पी एम एस के सम्मानित अवकाश प्राप्त वरिष्ठ चिकित्सक तथा देश व विदेश में रह रहे उत्तराखंड के मूल निवासी चिकित्सक प्रतिनिधि (एशोसिएशन आफ डाक्टर्स आफ उत्तराखंड ओरिजन जैसी संस्था का गठन व सहयोग ) शामिल हों तथा यह समिति समय समय पर उच्च गुणवत्ता वाले सर्वे करवाकर सरकार को उचित दिशा निर्देश जारी करे।अच्छा हो ,अगर यह समिति राज्य विधानसभा से भी अनुमोदित हो तथा इसके कुछ अधिकार भी हों।
वैसे तो यह बहुत विस्तृत विषय है और हो सकता है कुछ महत्वपूर्ण बिंदु छूकर मैंने कुछ लोगों को नाराज़ भी कर दिया हो लेकिन मुझे पूर्ण विश्वास है कि अगर समाज का प्रतिष्ठित,प्रभावी व बु्द्घिजीवी वर्ग सरकार के साथ मिलकर इस विषय में सम्वाद व तत्पश्चात् कार्य करें तो उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं का उचित विकास व विस्तार हो पाएगा ।